Wednesday, May 13, 2020

कभी रेलवे पटरी की मरम्मत करने वाले गैंगमैन से एक IPS अफसर बनने तक का सफ़र


कहते हैं कठिन मेहनत और कभी न हार मानने वाले जज़्बे से इस दुनिया की कोई भी मंज़िल फ़तह की जा सकती है। मंज़िल जितनी ऊँची होगी, संघर्ष भी उतना ही बड़ा करना होगा। हमारी आज की कहानी एक ऐसे शख्स की है, जिन्होंने न सिर्फ अभूतपूर्व सफलता हासिल की है बल्कि औरों के लिए भी प्रेरणा के एक मज़बूत प्रतीक बने हैं। एक किसान के बेटे ने ग्रामीण परिदृश्य में अनगिनत संघर्षों का डटकर मुकाबला करते हुए उस मुक़ाम तक पहुँचा है, जहाँ प्रयाप्त संसाधनों के बावजूद भी लोग नहीं पहुँच पाते।

राजस्थान के प्रह्लाद मीणा एक ग़रीब किसान परिवार में पैदा लिए। उनके माता-पिता जमींदारों के घर काम किया करते थे। वो जिस परिवेश से आते हैं, वहां शिक्षा का बिलकुल महत्व नहीं था। लेकिन शुरुआत  पढ़ाई में दिलचस्पी रखने वाले मीणा के माता-पिता भी नहीं चाहते थे कि उनके बच्चे भी मजदूरी कर अपना जीवन-यापन करें। उन्होंने गांव के सरकारी स्कूल से ही 10वीं तक की पढ़ाई पूरी की। 

संघर्ष के दिनों को याद करते हुए वो कहते हैं "10 वीं कक्षा का परिणाम आया तो मुझे स्कूल में पहला स्थान मिला। फिर लोगों ने मुझे साइंस विषय लेने के सुझाव दिए। सपना इंजीनियर बनने का था। लेकिन परिवार वालों की स्थिति ऐसी नहीं थी कि वह मुझे पढ़ा सके।"

दुर्भाग्य से साइंस विषय में आगे की पढ़ाई के लिए उनके गाँव के के आस-पास कोई स्कूल भी नहीं था। अपने सपनों को भुला कर उन्होंने मानविकी विषयों के साथ आगे की पढ़ाई करने का निश्चय किया। समय के साथ उन्होंने जीवन में अपनी प्राथमिकताओं को बदल दिया। अभी भी उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती आर्थिक हालात थे। 

वे बताते हैं कि जब वे बारहवीं कक्षा में थे, तब उनके गांव से एक लड़के का चयन भारतीय रेलवे में ग्रुप डी (गैंगमैन) में हुआ था। उसी समय उन्होंने अपना लक्ष्य गैंगमैन बनने का बना लिया और तैयारी में लग गए। बीए द्वितीय वर्ष में उनका चयन भारतीय रेलवे के भुवनेश्वर बोर्ड में गैंगमैन के पद पर हो गया है। यहां जॉब के दौरान ही उन्होंने कर्मचारी चयन आयोग द्वारा आयोजित होने वाली संयुक्त स्नातक स्तरीय परीक्षा में बैठने का फैसला किया और उन्हें रेल मंत्रालय के सहायक अनुभाग अधिकारी के पद पर नियुक्ति मिली। 


वे बताते हैं कि अब दिल्ली से मैं घर की सभी जिम्मेदारियों को बखूबी निभा रहा था और साथ ही मैंने सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी भी शुरू कर दी।



यूपीएससी परीक्षा में सफलता का परचम लहराना कोई साधारण काम नहीं था। उन्हें कई बार असफल होना पड़ा लेकिन हार न मानते हुए उन्होंने संघर्ष को जारी रखा। उन्हें वर्ष 2013 और 2014 में मुख्य परीक्षा देने का अवसर मिला। 2015 में प्रिलिमनरी परीक्षा में सफलता नहीं मिली तो उस वर्ष उन्होंने वैकल्पिक विषय हिंदी साहित्य को अच्छे से तैयार किया और 2016 के प्रयास में सिविल सेवा परीक्षा में सफलता प्राप्त की। वर्तमान में वे भारतीय पुलिस सेवा- IPS में ओडिशा कैडर के 2017 बैच के अधिकारी हैं।


 उनका मानना है कि उनकी सफलता ग्रामीण क्षेत्र से आने वाले बच्चों में भी आत्मविश्वास का संचार करेगा। यक़ीनन उनकी सफलता देश के करोड़ों नौजवानों के लिए प्रेरणादायक है जो परिस्थितियों के तले दबकर सपनों का त्याग कर देते हैं।  

प्रेरणादायक: सड़क किनारे चूड़ी बेचने वाला कैसे बना देश का एक शीर्ष IAS अफ़सर



राष्ट्रकवि दिनकर की एक प्रसिद्ध पंक्ति है ‘मानव जब जोड़ लगाता है पत्थर पानी बन जाता है।’ कहीं ना कहीं इस पंक्ति को चरितार्थ कर दिखाया है महाराष्ट्र के एक छोटे से गांव के रहने वाले इस चूड़ी बेचनेवाले बालक ने। 10 साल की उम्र तक मां के साथ चूड़ी बेचने वाले इस बच्चे ने वाकई कमाल कर दिखाया। आज इस बालक की पहचान देश के एक शीर्ष IAS अधिकारी के रूप में है लेकिन इनके यहाँ तक पहुँचने का सफ़र संघर्षों से भरा है।

माँ-बेटे पूरे दिन चूड़ियाँ बेचते, जो कमाई होती उसे पिता शराब में उड़ा देते। दो जून की रोटी के लिए ललायित इस बालक ने अपना संघर्ष जारी रखा।


महाराष्ट्र के सोलापुर जिला के वारसी तहसील स्थित एक छोटे से गांव महागांव में जन्मे रमेश घोलप आज भारतीय प्रशासनिक सेवा का एक जाना-माना चेहरा हैं। रमेश का बचपन अभावों और संघर्षों में बीता। दो जून की रोटी के लिए माँ-बेटे दिनभर चूड़ी बेचते लेकिन इससे जो पैसे इकट्ठे होते उससे इनके पिता शराब पी जाते। पिता की एक छोटी सी साइकिल रिपेयर की दूकान थी, मुश्किल से एक समय का खाना मिल पाता था। न खाने के लिए खाना, न रहने के लिए घर और न पढ़ने के लिए पैसे, इससे अधिक संघर्ष की और क्या दास्तान हो सकती? 

रमेश अपने माँ संग मौसी के इंदिरा आवास में ही रहते थे। संघर्ष का यह सिलसिला यूँ ही चलता रहा। मैट्रिक परीक्षा से एक माह पूर्व उनके पिता का निधन हो गया। इस सदमे ने रमेश को पूरी तरह झकझोर कर रख दिया, लेकिन हार ना मानते हुए इन हालातों में भी उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा दी और 88.50% अंक हासिल किया। माँ ने भी बेटे की पढ़ाई को जारी रखने के लिए सरकारी ऋण योजना के तहत गाय खरीदने के उद्देश से 18 हज़ार रुपये ऋण लिया। 


माँ से कुछ पैसे लेकर रमेश IAS बनने के सपने संजोए पुणे पहुंचे। यहाँ उन्होंने कड़ी मेहनत शुरू की। दिन-भर काम करते, उससे पैसे जुटाते और फिर रात-भर पढ़ाई करते। पैसे जुटाने के लिए वो दीवारों पर नेताओं की घोषणाओं, दुकानों का प्रचार, शादी की पेंटिंग इत्यादि किया करते। पहले प्रयास में उन्हें बिफलता हाथ लगी, पर वे डटे रहे। साल 2011 में पुन: यूपीएससी की परीक्षा दी और 287वां स्थान प्राप्त किये। इतना ही नहीं उन्होंने राज्य सर्विस की परीक्षा में पहला स्थान प्राप्त किया। 

उन्होंने प्रतिज्ञा की थी वो गांव तभी जायेंगे जब उन्हें अपने लक्ष्य की प्राप्ति में सफलता मिलेगी।



4 मई 2012 को अफसर बनकर पहली बार जब उन्होंने उन्ही गलियों में कदम रखा जहाँ कभी चूड़ियाँ बेचा करते थे, गांववासियों ने उनका जोरदार स्वागत किया। पिछले साल उन्होंने सफलतापूर्वक अपना प्रशिक्षण एसडीओ बेरमो के रूप में प्राप्त किया। हाल ही में उनकी नियुक्ति झारखण्ड के ऊर्जा मंत्रालय में संयुक्त सचिव के रूप में हुई है।


रमेश अपने बुरे वक्तों को याद करते हुए बताते हैं कि जब कभी भी आज वो किसी निःसहाय की मदद करते तो उन्हें अपनी माँ के उस स्थिति की याद आती जब वो अपने पेंशन के लिए अधिकारीयों के दरवाज़े पर गिरगिराती रहती। अपने बुरे वक़्तों को कभी ना भूलते हुए रमेश हमेशा जरूरतमंदों की सेवा में तत्पर रहते। इतना ही नहीं रमेश अबतक 300 से ज्यादा सेमीनार कर युवाओं को प्रशासनिक परीक्षाओं में सफल होने के टिप्स भी दे चुके हैं। 




 रमेश की कहानी उन लाखों युवाओं के लिए एक मज़बूत प्रेरणा बन सकती है जो सिविल सर्विसेज में भर्ती होकर देश और समाज की सेवा करना चाहते हैं।  


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पिता नहीं चाहते थे कि बेटा पढ़ाई करे, लेकिन उसने महज 21 की उम्र में IAS बन कर रच दिया कीर्तिमान


कठिनाइयां कितनी भी हो, जब लक्ष्य को पाने की चाहत प्रबल हो तो दुनिया की कोई भी ताकत आपको आपके मंज़िल तक पहुँचने से नहीं रोक सकता। यह सिर्फ कहने की बात नहीं है बल्कि एक सच्चाई है। हमारे समाज में ऐसे कई उदाहरण हैं जहाँ आर्थिक, सामाजिक और पारिवारिक चुनौतियों का सामना करते हुए लोग सफलता की कहानी लिखे हैं। हमारी आज की कहानी भी एक ऐसे ही शख्स के इर्द-गिर्द घूम रही है, जिन्होंने बचपन से ही चुनौतियों का सामना किया और हार ना मानते हुए अपने-आप को इसका मुकाबला करने के काबिल बनाया। आज वह शख्स हमारे बीच एक सफल प्रशासनिक ऑफिसर के रूप में विराजमान हैं। 

मराठवाड़ा के शेलगांव में पैदा लिए अंसार शेख देश के सबसे युवा आईएएस ऑफिसर में से एक हैं लेकिन उनके संघर्ष की कहानी बेहद प्रेरणादायक है। उनके पिता ऑटो रिक्शा चलाते और माँ खेतिहर मजदूर थी। बचपन से ही दो जून की रोटी के लिए संघर्ष करते हुए वे बड़े हुए। एक सूखाग्रस्त इलाका होने की वजह से यहाँ खेती भी सही से नहीं हो पाती थी। गाँव के ज्यादातर लोग शराब की शिकार में डूब चुके थे। अंसार के पिता भी हर दिन शराब पीकर आधी रात को घर आते और गाली-गलौज करते। इन सब के बीच पले-बढ़े अंसार ने छोटी उम्र में शिक्षा की अहमियत को पहचान चुके थे। दिनों-दिन चरमराती आर्थिक स्थिति को देखते हुए लोगों ने उनके पिता ने उनकी पढ़ाई छुड़वा देने के लिए कहा।

 उस दौर को याद करते हुए अंसार कहते हैं कि "जब मैं चौथी कक्षा में था, तब मेरे रिश्तेदारों ने पिता पर मेरी पढ़ाई छुड़वा देने का दबाव डाला।"

अंसार बचपन से ही एक मेधावी छात्र थे। जब उनके पिता ने उनकी पढ़ाई बंद करवाने के लिए शिक्षक से संपर्क किया तो, सबने उनके पिता को बहुत समझाया कि यह बच्चा होनहार है और इसमें आपके परिवार की परिस्थिति तक बदलने की ताकत है। उसके बाद पिता ने उन्हें कभी पढ़ाई-लिखाई के बारे में कुछ नहीं कहा। इससे अंसार को अपने लक्ष्य को प्राप्त करने की दिशा में और मज़बूती मिली।


मराठी माध्यम से पढ़ाई करने और पिछड़े माहौल में रहने के कारण अंसार की सबसे बड़ी कमजोरी उनकी अंग्रेजी थी। फिर भी उन्होंने हार नहीं मानी। घरवालों की सहायता से उन्होंने पुणे के नामचीन फर्गुसन कॉलेज में दाखिला लिया। उनके पिता हर महीने आय का एक छोटा हिस्सा उन्हें भेजते, उसी से उनका गुजारा चलता था। 

कॉलेज के पहले वर्ष ही उन्हें यूपीएससी परीक्षा के बारे में जानकारी मिली और फिर क्या था उन्होंने इसे ही अपना लक्ष्य बना लिया। उन्होंने भरपूर मेहनत की और साल 2015 में रिजल्ट घोषित हुए तो उनकी मेहनत का साक्षी हर कोई था। उन्होंने 21 वर्ष की उम्र में अपने पहले प्रयास में ही सफलता हासिल कर ली और देश के करोड़ों युवाओं के सामने मिसाल पेश की। 



 परिस्थितियों का हवाला देकर जो लोग अपने लक्ष्य का त्याग कर देते हैं, अंसार शेख की सफलता उनके लिए एक मिसाल के तौर पर है। यदि पूरी दृढ़ इच्छाशक्ति के साथ आगे बढ़ें तो सफलता अवश्य हासिल होगी।  

प्रेरणादायक: कभी पढ़ाई पूरी करने के लिए करनी पड़ी थी मजदूरी, आज हैं देश के एक प्रतिष्ठित IAS ऑफिसर

यह सच है कि अगर इंसान किसी चीज़ को दिल से चाहे तो दुनिया की सारी ताकतें उसे उस चीज़ को हासिल करने में मदद करती। यह कहानी ऐसे ही एक बुलंद हौसले और मजबूत इरादों से संपन्न शख़्स को समर्पित है। इस शख़्स की जिंदगी में बचपन से ही गरीबी और अभावों ने दस्तक दे चुके थे। लेकिन फिर भी उन्होंने हार नहीं मानी और कामयाबी की अनोखी कहानी लिखी। 

 आपको यह जानकर हैरानी होगी कि इस शख़्स को अपनी पढ़ाई पूरी करने के लिए मजदूरी तक करनी पड़ी थी। आज यह हमारे बीच एक प्रतिष्ठित प्रशासनिक ऑफिसर के रूप में उपस्थित हैं।



आज हम बात कर रहें हैं आईएएस अफसर विनोद कुमार सुमन की सफलता के बारे में जो युवाओं के लिए बेहद प्रेरणादायक है। उत्तर प्रदेश के भदोही के पास जखांऊ गांव में एक बेहद ही गरीब किसान परिवार में पैदा लिए सुमन की जिंदगी किसी संघर्ष से कम नहीं रही। घर में आय का एकमात्र स्रोत खेती ही था। जमीन भी ज्यादा बड़ी नहीं थी कि अनाज बेचकर भी अच्छे से घर का गुजारा हो सकता था। पुरे परिवार को कम-से-कम दो जून की रोटी की खातिर सुमन के पिता खेती के साथ-साथ कालीन बुनने का भी काम करते थे।

गांव से ही प्रारंभिक शिक्षा पूरी करने के बाद सुमन पिता का हाथ बंटाना आरंभ कर दिए। सुमन बतातें हैं कि “पांच भाई और दो बहनों में मैं सबसे बड़ा था। जाहिर है परिवार की जिम्मेदारी में पिता का हाथ बंटाना मेरा फर्ज भी था।” लेकिन सुमन किसी भी हाल में अपनी पढ़ाई भी नहीं छोड़ना चाहतें थे। किसी तरह उन्होंने इंटर पास किया पर आगे की पढ़ाई के लिए आर्थिक समस्या खड़ी हो गई।


अपने ही दम पर मंजिल पाने के जुनून में सुमन ने अपने माता-पिता को छोड़कर घर से शहर की ओर चल पड़े। उनके पास सिर्फ शरीर के कपड़ों के अलावा कुछ नहीं था। आर्थिक हालातों से टूट चुके सुमन ने इतनी दूर निकलने का मन बना लिया जहां उन्हें कोई पहचान ही न सके। उन्होंने श्रीनगर गढ़वाल जाने का निश्चय किया। वहां पहुँचते-पहुँचते उनके पास एक फूटी कौड़ी तक नहीं बची। अंत में उन्होंने वहां एक मंदिर में पहुंचे और पुजारी से शरण मांगी। अगले दिन वह काम की तलाश में निकले। उन दिनों श्रीनगर में एक सुलभ शौचालय का निर्माण चल रहा था। ठेकेदार से मिन्नत के बाद वह वहां मजूदरी करने लगे। मजदूरी के तौर पर उन्हें 25 रुपये रोज मिलते थे।


संघर्ष के दिनों को याद करते हुए सुमन बताते हैं कि “करीब एक माह तक वे एक चादर और बोरे के सहारे मंदिर के बरामदे में रातें बिताई। इस दौरान मजदूरी से मिले पैसों से कुछ भी खा लेते थे।”


कुछ महीनों तक ऐसा चलने के बाद उन्होंने उसी शहर के विश्वविद्यालय में दाखिला लेने का निश्चय किया। उन्होंने श्रीनगर गढ़वाल विवि में बीए प्रथम वर्ष में प्रवेश ले लिया और गणित, सांख्यिकी और इतिहास विषय लिए। सुमन की गणित अच्छी थी। इसलिए उन्होंने रात में ट्यूशन पढ़ाने का निश्चय किया। पूरे दिन मजदूरी करते और रात को ट्यूशन पढ़ाते। धीरे-धीरे उनकी आर्थिक हालात कुछ ठीक हुए तो उन्होंने घर पर पैसे भेजने शुरू कर दिए। वर्ष 1992 में प्रथम श्रेणी में बीए करने के बाद सुमन ने पिता की सलाह पर इलाहाबाद लौटने का निश्चय किया और यहां इलाहाबाद विश्वविद्यालय से प्राचीन इतिहास में एमए किया।

इसके बाद 1995 में उन्होंने लोक प्रशासन में डिप्लोमा किया और प्रशासनिक सेवा परीक्षा की तैयारी में जुट गये। इसी बीच उन्हें महालेखाकार ऑफिस में लेखाकार की सर्विस लग गई। सर्विस होने के बाद भी उन्होंने तैयारी जारी रखा और 1997 में उनका पीसीएस में चयन हुआ और इसके बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा।


तमाम महत्वपूर्ण पदों पर सेवा देने के बाद 2008 में उन्हें आइएएस कैडर मिल गया। वह देहरादून में एडीएम और सिटी मजिस्ट्रेट के अलावा कई जिलों में एडीएम गन्ना आयुक्त, निदेशक समाज कल्याण सहित कई महत्वपूर्ण पदों पर रह चुके हैं। वे अल्मोड़ा और नैनीताल में भी जिलाधिकारी के पद पर रहे हैं।

 सुमन का मानना है कि अगर दृढ़ निश्चय हो तो कोई भी कठिनाई इंसान को नहीं डिगा सकती। अपने लक्ष्य को लेकर सुमन दृढ़-संकल्प होकर डटे रहे और अंत में सफलता का स्वाद चखे। इनकी सफलता से हमें यही प्रेरणा मिलती है कि जिंदगी की राह में हमें अनगिनत बाधाओं का सामना करना पड़ेगा, हमें उसका डटकर मुकाबला करने की जरुरत है न कि हार मान लेने का।


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आइडिया साधारण किन्तु इरादे बड़े थे, छोटे से गैराज से हुई शुरुआत, आज है 8000 करोड़ का एम्पायर

अगर आपने मन में कुछ सोच लिया तो कुछ भी कर पाना संभव है। सबसे पहले आप समझिए कि आपके लिए क्या महत्वपूर्ण है, फिर आप अपने जुनून का उपयोग कर कुछ भी हासिल कर सकते हैं। 

 आज की हमारी स्टोरी 68 साल के रविन्द्र किशोर सिन्हा जी की है जिन्होंने एक छोटे से गैराज से शुरू कर आज एशिया के सबसे बड़े मानव शक्ति से युक्त सुरक्षा फर्म्स के संचालक है। यह अपने आप में प्रेरणादायक है।


इनका जन्म और पालन-पोषण पटना के एक निम्न मध्यम वर्गीय परिवार में हुआ था। उन्होंने अपने छह भाई-बहनों के साथ-साथ सरकारी स्कूल से प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त की। उसके बाद उन्होंने यह तय किया की वह पोलिटिकल साइंस में उच्च शिक्षा की पढ़ाई करेंगे। अपने परिवार की आर्थिक जरूरतों को पूरा करने के लिए इन्होंने एक पार्ट टाइम नौकरी ज्वाइन कर ली। यह नौकरी अपराध और राजनैतिक रिपोर्टिंग से जुड़ी जर्नलिस्ट की थी जिसका नाम सर्चलाईट था।

भारत -पाकिस्तान तनाव की रिपोर्टिंग के दौरान उन्हें बिहार रेजीमेंट के बॉर्डर पोस्ट पर रुकने का मौका मिला। तब उन्हें सिक्योरिटी और इंटेलिजेंस सर्विस के बारे में एक आईडिया आया। 1973 में जयप्रकाश नारायण की राजनैतिक सक्रियता से सहानुभूति रखने पर उन्हें नौकरी से निकाल दिया गया। उसके बाद उन्होंने बहुत सारी नौकरी की तलाश की पर उनके आशा के अनुरूप नौकरी नहीं मिल पा रही थी।

उनके कुछ दोस्त कंस्ट्रक्शन के बिज़नेस में थे और उन्हें अपने प्रोजेक्ट साइट के लिए गार्ड की जरुरत थी। सिन्हा जी ने तब उन्हें रिटायर्ड सैनिक दिए और तब उन्हें यह पता लगा कि प्राइवेट सिक्योरिटी एजेंसीज में भी बिज़नेस के मौके हैं। तब उन्होंने अपनी खुद की कंपनी खोलने का निश्चय किया। आखिर 1974 में पटना में एक छोटे से गैरेज को लीज़ पर लेकर "सेक्युरिटी और इंटेलिजेंस सर्विसेज" (SIS इंडिया लिमिटेड) नामक कंपनी खोली। 

 पहले साल में SIS इंडिया लिमिटेड ने 250 सेना के आदमी रखे और लगभग एक लाख रूपये का कारोबार हासिल किया। 1988 में SIS इंडिया लिमिटेड ने अपना एक नया विभाग खोला; ट्रेनिंग अकादमी का, जहाँ लाखों की संख्या में सिक्योरिटी गार्ड्स को ट्रेनिंग दी जाती थी।

2005 में कंपनी का टर्न-ओवर 25 करोड़ के पास पहुँच गया। उन्होंने दूसरे देशों में भी कंपनी खोलने का निश्चय किया। 2008 में SIS इंडिया लिमिटेड ने ऑस्ट्रेलिया की सबसे बड़ी कंपनी चब-सिक्योरिटी को 1000 करोड़ में खरीद लिया। आज SIS एशिया की सबसे अधिक मैनपॉवर वाली सिक्योरिटी फर्म बन गई है। आज इनके यहाँ लगभग 70,000 कर्मचारी काम करते हैं।

SIS इंडिया लिमिटेड आज 2000 से भी अधिक कॉर्पोरेट इंडस्ट्रीज को सिक्योरिटी प्रदान कर रही है जिसमे टाटा स्टील, टाटा मोटर और आईसीआईसीआई बैंक शामिल हैं। वर्तमान में SIS इंडिया लिमिटेड का मार्केट कैप क़रीब 8000 करोड़ का है। 

2014 में सिन्हा संसद के ऊपरी सदन के सदस्य के रूप में राज्यसभा के लिए चुने गए थे। वह बिहार राज्य से भारतीय जनता पार्टी के प्रतिनिधि के रूप में हैं। 



 2006 में नुकसान की रोकथाम के प्रमोटर पुरस्कार से उन्हें नवाज़ा गया। पंजाब सरकार के द्वारा उन्हें CAPSI प्रतिष्टित लाइफ टाइम अचीवमेंट अवार्ड से भी सम्मानित किया गया। उनके द्वारा किये गए असाधारण उपलब्धि उनके साहस, दृढ़ता और उनकी इच्छाशक्ति का परिणाम है। 

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महज 4 वर्ष में 7000 करोड़ का साम्राज्य स्थापित कर इस लड़की ने पेश की सफलता की अनूठी मिसाल



ऐसी दुनिया में जहां 10 में से नौ निवेश के फैसले पुरुषों के द्वारा या उनके नेतृत्व में किए जाते हैं, और महिलाओं द्वारा स्थापित की गई कंपनियां वैश्विक बाज़ारं के कुल निवेश का महज 2 फीसदी हिस्सा ही अपने नाम कर पाती हैं, यह सच है कि पुरुषों की तुलना में महिलाओं के लिए खुद का कारोबार शुरू करना ज्यादा चुनौतीपूर्ण है। और ऐसे पुरुष-प्रधान परिवेश में जब कोई महिला सफलता की कहानी लिखती हैं, तो वह उन तमाम महिलाओं के लिए प्रेरणा का स्रोत बनती है जो अपना बॉस बनने की ख़्वाहिश रखती हैं।

कुछ साल पहले एक घर की पार्टी में दो पड़ोसियों के बीच एक आकस्मिक बातचीत के रूप में शुरू हुआ एक छोटा सा आइडिया अब वैश्विक स्तर पर एक नामचीन स्टार्टअप के रूप में जाना जा रहा है। अपने सपनों का पीछा करने की दृढ़ इच्छाशक्ति ने 27 साल की अंकिती बोस और 28 वर्ष के ध्रुव कपूर को महज चार साल के भीतर ही करीब एक अरब डॉलर (लगभग 7000 करोड़) के स्टार्टअप जिलिंगो का मालिक बना दिया।

अंकिती सिकोया कैपिटल नामक एक इन्वेस्टमेंट फर्म में काम करती थी, तभी उनकी मुलाकात सॉफ्टवेयर इंजीनियर के रूप में काम करने वाले ध्रुव से हुई धीरे-धीरे दोनों की दोस्ती बढ़ी और उन्होंने ये महसूस किया कि वे दोनों अपने खुद के स्टार्ट-अप बनाने की महत्वाकांक्षा रखते हैं। उनकी क्षमताएं मिल कर कमाल कर सकती थीं। फिर क्या था, दोनों से कारोबारी आइडिया की तलाश करनी शुरू कर दी। इस दौरान अंकिती ने उन स्टार्टअप को बेहद करीब से अध्ययन किया जो वेंचर कॅपिटलिस्ट्स से निवेश उठाने में सफल रहे थेा उन्हें इसी का लाभ मिला, जब 12 फरवरी, 2019 को, ज़ीलिंगो ने $226 मिलियन की फंडिंग उठाई और उनकी वैल्यूएशन $1 बिलियन के करीब आंकी गयी।


"मैंने अपने भीतर सीखने की लालसा को कभी मरने नहीं दिया, दिन में 18-18 घंटे काम किया और यह बहुत मजेदार भी था।"

दिसंबर 2014 में, दोनों ने अपनी बचत में से $ 30,000 (21 लाख रुपये) के निवेश से अपने कंपनी की स्थापना की। सिंगापुर स्थित जिलिंगो एक फैशन और सौंदर्य आदि से जुड़ा एक ऑनलाइन बाज़ार है। यह दक्षिण पूर्व एशिया के छोटे व्यापारियों को उपभोक्ताओं को बिक्री के लिए अपनी वस्तुओं को सूचीबद्ध करने के लिए एक ऑनलाइन प्लेटफार्म मुहैया कराता है।

 अंकिती की प्रेरणा बैंकाक के लोकप्रिय चटुचक बाजार की यात्रा से हुई, जहाँ पूरे थाईलैंड से सामान बेचने वाले 15,000 से अधिक बूथ हैं। उसने महसूस किया कि इन विक्रेताओं के पास विस्तार करने के पर्याप्त अवसर नहीं हैं। 
 कंपनी ने छोटे व्यापारियों को उपभोक्ताओं तक अपने उत्पाद को पहुंचाने में मदद करके शुरुआत की, और तब से नए क्षेत्रों में विस्तार किया है। हजारों छोटे विक्रेताओं के साथ सौदा करने के दौरान उन्होंने महसूस किया कि कई में प्रौद्योगिकी, पूंजी और पैमाने की अर्थव्यवस्थाओं की पहुंच का अभाव है। 

 इसलिए उन्होंने विक्रेताओं को बांग्लादेश से वियतनाम तक फैक्ट्रियों तक पहुंचने और क्रॉस-बॉर्डर शिपिंग और इन्वेंट्री प्रबंधन में मदद करने के लिए सॉफ्टवेयर और प्रोद्योगिकी का इस्तेमाल किया। 2018 के बाद से, ज़ीलिंगो ने छोटे विक्रेताओं को कार्यशील पूंजी प्रदान करने के लिए वित्तीय प्रौद्योगिकी फर्मों के साथ भी काम किया है ताकि वे माल का उत्पादन करने के लिए कच्चे माल खरीद सकें।  

इस वेबसाइट पर कोई भी विक्रेता मुफ्त में लिस्टिंग कर सकता है लेकिन उन्हें प्रत्येक ऑर्डर के साथ 10 प्रतिशत से 20 प्रतिशत के बीच कमीशन देना होता है।

सिंगापुर के नियामकों के साथ कंपनी की सबसे हालिया फाइलिंग के अनुसार, जिलिंगो ने 31 मार्च, 2017 तक $ 1.3 मिलियन का राजस्व अर्जित किया, जो कि मार्च 2016 में स्थापना के बाद से लगभग $434,000 था। मार्च 2018 में समाप्त हुए वर्ष में राजस्व 12 गुना बढ़ गया और कंपनी के अनुसार अप्रैल से जनवरी की अवधि में चार गुना हो गया। 
 केवल एक सपने के साथ शुरू होने वाली कंपनी आज 400 कर्मचारियों के साथ आठ देशों तक फैल चुकी है। वर्तमान में यह इंडोनेशिया, थाईलैंड और फिलीपींस में फैशन ई-कॉमर्स साइटों को संचालित करता है और जल्द ही ऑस्ट्रेलिया में लॉन्च करने की तैयारी कर रहा है। 

 यदि आप हार नहीं मानने के लिए तैयार हैं तो आपको कोई रोक नहीं सकता है। इसलिए ज्ञान और सही कौशल प्राप्त करने पर ध्यान केंद्रित करें और फिर सकारात्मक दृष्टिकोण के साथ सपनें की नीव रखें।  


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5 रुपये की तनख्वाह पर खेतों में मजदूरी करने वाली यह महिला कैसे बन गई करोड़पति उद्यमी


अपने सपनों का पीछा करना कोई आसान बात नहीं है। जीवन की यात्रा में बहुत से व्यक्ति अपने सपनों को बीच में ही छोड़ देते है पर कुछ ही ऐसे बहादुर होते हैं जो विपरीत परिस्थितियों में भी सफलता प्राप्त करते हैं। 

यह कहानी है अनिला ज्योति रेड्डी की जिसने महिला शक्ति और दृढ़ संकल्प की अनोखी मिसाल पेश की है। जब वह छोटी थीं तब एक अनाथालय में रहने को विवश थी। गरीबी से जूझ रहे उनके पिता ने उन्हें अनाथालय में यह कह कर डाल दिया कि वह उनकी लड़की नहीं है। ज्योति जब 16 वर्ष की थी तभी उनकी शादी एक 28 वर्ष के उम्र-दराज़ व्यक्ति से कर दी गयी। उस समय का माहौल रूढ़िवादी प्रथाओं से बंधा हुआ था और ज्योति को यह बात बिलकुल पसंद नहीं थी। जिस व्यक्ति से ज्योति की शादी हुई थी वह बहुत ही कम पढ़ा-लिखा और एक किसान था। शादी के कुछ वर्षों तक ज्योति को शौच के लिए खेतों में जाना पड़ता था। इतना ही नहीं उसे पांच रुपये रोज कमाने के लिए कड़ी मेहनत भी करनी होती थी।  
महज़ 17 वर्ष की उम्र में ज्योति ने एक बच्चे को जन्म दिया और अगले ही वर्ष दूसरी बार माँ बनी। वह दिन-भर घर के कामों में लगी रहती थी और परिवार को अच्छी तरह से चलाने के लिए सीमित संसाधनों में भी घर को अच्छे तरीके से चलाया करती थी। लेकिन इन सब के बीच ज्योति अपने जीवन से संतुष्ट नहीं थी। वह अपने इस ग़रीबी से बाहर आना चाहती थी जिसमें वह दिनों-दिन धंसती जा रही थी।

जब ज्योति रेड्डी खेतों में काम करती थी तब भी उन्हें घर चलाना मुश्किल होता था। इन सब के बावजूद भी उन्होंने अपने बच्चों को अशिक्षित नहीं रहने दिया। ज्योति ने अपने बच्चों को पास के ही तेलुगू मीडियम स्कूल में पढने के लिए भेजा। स्कूल की फीस के लिए उन्हें 25 रुपये महीने देने होते थे और ज्योति खेतों में मजदूरी कर यह सब चुकता करती। धीरे-धीरे ज्योति ने अपने सभी बंधनों को पीछे छोड़ते हुए आस-पास के खेतों में काम करने वाले लोगों को सिखाना शुरू किया। इसके पश्चात् उन्हें एक पहचान मिली और एक सरकारी नौकरी भी जहाँ उन्हें 120 रूपये प्रति महीने की तनख्वाह मिलने लगी। ज्योति का काम पास के एक गांव में जाकर वहाँ की महिलाओं को सिलाई सिखाना था।  

अलीबाबा संस्था के फाउंडर जैक मा की ही तरह ज्योति रेड्डी ने भी एक शिक्षक से एक अमेरिकन कंपनी की सीईओ बनने तक का सफर तय किया। ज्योति वारंगल के काकतिया यूनिवर्सिटी से इंग्लिश में एम.ए. करना चाहती थी पर यह संभव नहीं हो पाया। उसके बाद ज्योति ने अमेरिका जाने का निश्चय किया। वह वहां जाकर सॉफ्टवेयर की बुनियादी बातें सीखना चाहती थी।उस समय यूएसए में बसना ही अपने आप में एक बड़ी बात थी। एक रिश्तेदार की मदद से ज्योति को वीसा मिल पाया और वह न्यू जर्सी के लिए रवाना हो गई।  

अपना बिज़नेस खड़ा करने से पहले ज्योति ने न्यू जर्सी में छोटे-छोटे कई काम किये। उन्होंने सेल्स गर्ल, रूम सर्विस असिस्टेंट, बेबी सिटर, गैस स्टेशन अटेंडेंट और सॉफ्टवेयर रिक्रूटर की नौकरी कर अपने सपनों की उड़ान को नई दिशा दी। आज उनके पास यूएसए में अपने खुद के 6 घर हैं और भारत में दो घर। इतना ही नहीं आज ज्योति मर्सेडीज जैसी महंगी गाड़ियों की मालकिन भी हैं। हालांकि आज ज्योति रेड्डी यूएसए में रह रहीं हैं लेकिन वो 29 अगस्त को हर साल भारत आना कभी नहीं भूलती। वो इस दिन भारत आकर अपना जन्मदिन उसी अनाथालय में बच्चों के साथ मनाया करती है। इतना ही नहीं ज्योति अनाथ बच्चों के लिए ढेर सारे उपहार लेकर जाती है।  

एक छोटी सी उम्र में अपने से काफी उम्रदराज़ किसान के साथ शादी से लेकर सिलिकॉन वैली की सीईओ बनने तक की ज्योति रेड्डी की कहानी बड़ी अदभुत और प्रेरणा से भरी है। ज्योति रेड्डी भारत के युवा वर्ग के लिए प्रकाश-स्तम्भ की तरह हैं जो ऊँचे ख़्वाब देखने वालों को अँधेरे के पार स्थित प्रकाशमय भविष्य की ओर पहुँचने का राह दिखाती है।




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