Friday, May 15, 2020

मात्र 5 हज़ार रुपये, लेकिन आइडिया कमाल का था, सालाना 360 करोड़ की हो रही है कमाई


गम हो या खुशी के पल हो फूल हर अंदाज को बयां करने का सबसे आसान और खुबसूरत जरिया होते हैं। ताजे फूलों में खुशी को दोगुना और गम को हल्का करने की ताकत होती है। इन्हीं फूलों के छोटे से गुलदस्ते में कारोबारी संभावनाओं को देखा बिहार के विकास गुटगुटिया ने। महज 5 हज़ार रुपये की रकम से शुरुआत कर देश के फ्लोरिकल्चर इंडस्ट्री में क्रांति लाते हुए अंतराष्ट्रीय स्तर की एक नामचीन ब्रांड स्थापित करने वाले विकास आज हजारों लोगों के लिए प्रेरणास्रोत हैं। 



 कायदे से देखें तो भारत की फ्लोरिकल्चर इंडस्ट्री की सालाना कुल ग्रोथ 30 फीसदी की रफ्तार से भी तेज हो रही है। वहीं इंडस्ट्री बॉडी एसोचैम की माने तो आने वाले कुछ वर्षों में इस इंडस्ट्री का मार्केट कैप 10,000 करोड़ रुपये तक पहुंच जाएगी। ऐसे स्थिति में इस क्षेत्र में कारोबार की बड़ी संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता।  

आज हम बात कर रहे हैं एक छोटे फ्लोरिस्ट से अंतरराष्ट्रीय बाजार में  पहचान बना चुके बड़े ब्रांड फर्न्स एन पेटल्स की आधारशिला रखने वाले विकास गुटगुटिया की सफलता के बारे में। पूर्वी बिहार के एक छोटे से गांव विद्यासागर में एक मध्यम-वर्गीय परिवार में जन्मे विकास ने स्कूली शिक्षा प्राप्त करने के बाद ग्रेजुएशन की पढ़ाई पश्चिम बंगाल से की। पढ़ाई के दौरान विकास अपने चाचा के फूलों की दुकान पर मदद भी किया करते थे और यहीं से उन्होंने व्यापार करने की बारीकियों को सीखा।

 पढ़ाई खत्म होने के बाद दो साल उन्होंने मुंबई व दिल्ली में रोजगार व व्यापार की संभावना खोजी और फिर साल 1994 में 5 हजार रूपये की शुरूआती पूंजी से साउथ एक्सटेंशन दिल्ली में पहली बार फूलों की एयर कंडीशन शॉप खोली। हालांकि उस दौर में देश के भीतर फूलों से संबंधित व्यापार में ज्यादा तरक्की के आसार नहीं थे लेकिन फिर भी विकास ने अपना सफ़र जारी रखा। संयोग से उन्हें एक भागीदार मिल गया जिसने इस बिजनेस में 2.5 लाख रुपए निवेश किए। भागीदारी लंबी नहीं चली और 9 साल तक उन्हें मुनाफ़े का इंतजार करना पड़ा। इस दौरान फूलों का निर्यात करके उन्होंने रिटेलिंग को किसी तरह जारी रखी।

  इस असंगठित सेक्टर में जितने भी फ्लोरिस्ट मौजूद थे उनसे हटकर बेहतर सर्विस, फूलों की वेराइटी और आकर्षक फूलों की सजावट पर विकास ने जोर दिया। और विकास का गुणवत्ता पर ज्यादा ध्यान देने की उनकी कोशिश कामयाब हुई। इसी दौरान ताज पैलेस होटल में एक भव्य शादी के लिए उन्हें फूलों की सप्लाय का ऑर्डर मिला और इस तरह बिज़नेस के एक नए रास्ते खुले। साथ ही विकास ने कारोबार में नयापन लाने हेतु फुलों के गुलदस्ते के अलावा फुलों के साथ चॉकलेट्स, सॉफ्ट टॉइज, केक्स, गिफ्ट हैंपर्स जैसे प्रोडक्ट के साथ अपनी रेंज बढ़ाते गये।

करीबन 7 साल तक कारोबार को चलाने के बाद उन्होंने अपने रिटेल व्यापार को देशव्यापी बनाने की योजना बनाई और फर्न्स एन पेटल्स बुटीक्स की फ्रेंचाइजी देना शुरू किया। फ्रेंचाइजी के लिए उन्होंने 10-12 लाख रुपये के निवेश और शोरूम के लिए 200-300 वर्गफीट की जगह का न्यूनतम मापदंड रखा। इस निवेश में कंपनी ब्रैंड नेम, इंफ्रास्ट्रक्चरल सपोर्ट, डिजाइन और तकनीकी जानकारियां, फूलों के सजावट की ट्रेनिंग के साथ स्टोर चलाने के लिए लगने वाली इंवेटरीज जैसे फूल, एक्सेसरीज और गिफ्ट आइटम मुहैया करवाती है।



आज फर्न्स एन पेटल्स की चेन्नई, बैंगलोर, दिल्ली, मुंबई, कोयंबटूर, आगरा, इलाहाबाद सहित देश के 93 शहरों में 240 फ्रेंचाइज स्टोर फैली हुई है। इतना ही नहीं फर्न्स एन पेटल्स आज भारत में सबसे बड़ा फूल और उपहार खरीदने वाली श्रृंखला है जिसका सालाना टर्नओवर 360 करोड़ के पार है। आज यह सिर्फ भारत में ही कारोबार नहीं कर रही बल्कि एक वैश्विक ब्रांड बन चुकी है।   

 फूलों के संगठित रिटेल व्यापार में सबसे बड़े उद्यमी के रूप में जाना जाने वाले विकास की सफलता से हमें काफी कुछ सीखने को मिलता है। विकास जब फूलों का कारोबार शुरू किये थे तो उन्होंने कभी नहीं सोचा था कि एक दिन वे देश के सफल कारोबारियों की सूची में शुमार करेंगें। अपने आइडिया के साथ आगे बढ़ते हुए उन्होंने हमेशा कुछ नया करने को सोचा और सफल हुए।  





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20 हजार रूपये से शुरुआत कर 8,800 करोड़ के एक प्रसिद्ध ब्रांड को बनाने वाले दो दोस्तों की कहानी


आमतौर पर पैसे की बर्बादी और किसी के बहकने के लिए दोस्ती को ही जिम्मेदार ठहराया जाता रहा है। लेकिन यह एक ऐसी दोस्ती की कहानी है, जो आज औरों के लिए मिसाल बन चुकी है। यह दो पहली पीढ़ी के उद्यमियों की कहानी है, जिन्होंने अपनी दोस्ती को बखूबी निभाते हुए अनोखा कीर्तिमान स्थापित किया है।  बचपन से दोस्ती में जो एक-दूसरे का हाथ उन्होंने थामा था, 8,800 करोड़  साम्राज्य खड़ा होने के बाद भी वह साथ क़ायम है। एक सा ही नाम लिए ये दो लड़के स्कूल में जिगरी दोस्त बने, साथ-साथ पढ़ाई की, खेल में भी उत्कृष्ट प्रदर्शन किया और बाद में बिज़नेस में भी एक साथ ऊँची छलांग लगाई।


नाम के साथ-साथ इनकी सोच और सपने भी एक से ही थे। राधे श्याम अग्रवाल और राधे श्याम गोयनका ने कॉसमेटिक मार्किट को अपना पहला बिज़नेस बनाया। दोनों कॉलेज अटेंड करने के साथ-साथ अपना बहुत सारा समय कास्मेटिक के केमिकल फार्मूला जानने के लिए सेकंड हैण्ड बुक की शॉप में गुजारा करते थे। इसके साथ वे दोनों सस्ते गोंद और कार्डबोर्ड से बोर्ड गेम बनाते, ईसबगोल और टूथब्रश की रिपैकेजिंग करते और कोलकाता के बड़ा-बाजार में दुकान-दुकान जाकर बेचा करते थे।



  तीन सालों की लगातार कोशिशों के बावजूद इन्हें कास्मेटिक बिज़नेस में सफलता नहीं मिल पा रही थी। इन दोनों के संघर्ष को देखकर गोयनका के पिता ने इन्हें 20,000 रुपये हाथ में दिए और दोनों दोस्तों ने यह तय किया कि बिज़नेस में 50-50 की भागीदारी रहेगी। तब उन्होंने केमको केमिकल्स की शुरुआत की पर उन्हें यहाँ भी सफलता नहीं मिली।

 उनके अपने निजी जीवन में एक बड़ा बदलाव आया। अग्रवाल और गोयनका की शादी हो गई। अब उनके ऊपर आर्थिक दबाव और जिम्मेदारी और भी बढ़ गई और दोनों बिज़नेस के नए अवसर तलाशने लगे। इसी बीच उन्हें बिरला ग्रुप में अच्छी आमदनी पर नौकरी लग गई। पांच सालों तक उन्होंने वहाँ नौकरी की और बिज़नेस के गुर सीखे। तजुर्बे हासिल करने के बाद इन्होंने नौकरी छोड़ने का निश्चय किया।




भारतीय मध्यम वर्ग को नजर में रखकर इन्होंने इमामी नाम की वैनिशिंग क्रीम बाजार में उतारा। इमामी नाम का कोई मतलब नहीं था पर सुनने में यह इटालियन साउंड करता था। उन्होंने सोचा की इससे भारतीय ग्राहक प्रभावित होंगे और ऐसा हुआ भी। उन्होंने बाजार की बहुत जानकारी ली और जाना कि जो टेलकम पाउडर टिन के बॉक्स में मिलता है वह बहुत ही साधारण लगता है तब इन्होंने एक बहुत बड़ा दांव खेला। टेलकम पाउडर को एक प्लास्टिक के कंटेनर में बहुत ही खूबसूरती से पैक कर और उसमें गोल्डन लेबलिंग कर एक पॉश और विदेशी लुक दिया।

 और फिर इस उत्पाद ने उड़ान भरना शुरू कर दिया। इसकी मांग दिनों-दिन बढ़ती चली गई और इसमें पाउडर इंडस्ट्री के शहंशाह पोंड्स को भी पीछे छोड़ दिया। सफलता का यह पहला स्वाद अग्रवाल और गोयनका ने चखा था। उनके नए-नए प्रयोग और ग्राहकों के साथ सीधे संपर्क उनकी ताकत बन गई थी।  



अपने अगले कदम में इन्होंने एक मल्टीपर्पस एंटीसेप्टिक ब्यूटी क्रीम बोरोप्लस को 1984 में बाजार में लाया। और इसने इन्हें बाजार का लीडर बना दिया और यह लगभग 500 करोड़ का ब्रांड बन गया। इमामी ब्रांडिंग में जोरों के साथ खर्च कर रहा था। 1983 में राजेश खन्ना अभिनीत फिल्म “अगर तुम न होते” में राजेश खन्ना को इमामी का मैनेजिंग डाइरेक्टर की भूमिका में दिखाया गया था। और इसके लिए रेखा ने मॉडलिंग की थी। यह रणनीति भारतीयों के मन में इमामी को एक नए मक़ाम पर ला कर रख दिया। इसके बाद इन्होंने ठंडा और आयुर्वेदिक नवरत्न तेल मार्केट में लेकर आये जिसने तीन साल के भीतर ही 600 करोड़ का प्रॉफिट दिला दिया। फिर उनका अगला कदम पुरुषों के लिए पहली बार फेयरनेस क्रीम का था जो बहुत ही सफल रहा।


बहुत से अभिनेता जैसे अमिताभ बच्चन, श्रीदेवी, शाहरुख खान, ज़ीनत अमान, करीना कपूर, कंगना रनौत और बहुत से खिलाड़ी  जैसे सानिया मिर्जा, सुशील कुमार, मिल्खा सिंह, मैरी कॉम और सौरभ गांगुली ने इनके उत्पाद का प्रचार किया है। अग्रवाल और गोयनका को पता था कि सेलिब्रटी के समर्थन से वह पूरे देश भर में एक घरेलू नाम बन जाएंगे।




 यह उनकी लगन और सफलता की प्यास ही है जो आज इमामी का टर्न-ओवर 8,800 करोड़ से भी ज्यादा का है।अग्रवाल और गोयनका की दोस्ती आज के युग के लिए एक मिसाल की तरह पेश है। उनकी दोस्ती भरोसे, हिम्मत और बुलंद हौसलों की आंच में तप कर इमामी के रूप में कुंदन हो गई है। यह दोस्ताना दोनों परिवारों के बीच दूसरी पीढ़ी के बीच भी क़ायम है।  




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घर-घर सामान डिलीवरी के आइडिया ने इन्हें बना दिया 7000 करोड़ की कंपनी का मालिक


प्रत्येक व्यक्ति की अभिलाषा होती है कि वह जो भी कार्य करे वह उसकी रुचि के अनुरूप हो तथा उसमें उसे सफलता मिले। हाल के कुछ वर्षों में भारत के युवा पीढ़ी से कई उद्यमी उभर कर आये हैं। इन युवाओं ने किसी कंपनी में काम करने की बजाय, खुद की कंपनी शुरू कर औरों के लिए रोजगार मुहैया में दिलचस्पी दिखाते हुए सफलता की नई कहानियां लिख डाली। आज की कहानी भी एक ऐसे ही युवा उद्यमी की है, जिन्होंने अमेरिका में मोटी तनख्वाह की नौकरी छोड़ स्वदेश लौटने का निश्चय किया और तकनीक का इस्तेमाल कर एक ऐसे कंपनी की आधारशिला रखी जिसकी सच में जरुरत थी। और आज ये देश के एक सफल आईटी कारोबारी हैं जिनका बिज़नेस कई करोड़ों में है। 

यह कहानी है देश की प्रमुख डिलिवरी स्टार्टअप ग्रोफर्स डॉट कॉम के संस्थापक अलबिंदर ढींढसा की। पंजाब के पटियाला में एक मध्यम-वर्गीय परिवार में पले-बढ़े अलबिंदर ने अपनी स्कूली शिक्षा प्राप्त करने के बाद आईआईटी की परीक्षा पास की। सफलतापूर्वक आईआईटी दिल्ली से इंजीनियरिंग की डिग्री लेने के बाद इन्होंने अपने कैरियर की शुरुआत करते हुए 2005 में अमेरिका के यूआरएस कॉर्पोरेशन में ट्रांसपोर्टेशन एनालिस्ट के तौर पर नौकरी कर ली। कुछ समय तक नौकरी करने के बाद उन्होंने एमबीए की पढ़ाई कर भारत लौट आये। यहां उन्होंने जोमैटो डॉट कॉम के साथ करियर की नई शुरुआत की। कॉलेज के दिनों से ही अपना खुद का स्टार्टअप शुरू करने में विश्वास रखने वाले अलबिंदर ने नौकरी के साथ-साथ बिज़नेस की संभावनाएं भी तलाश रहे थे। अमेरिका में नौकरी करते हुए उन्होंने डिलिवरी इंडस्ट्री में एक बड़े गैप को भांपा। उन्होंने देखा कि हाइपर-लोकल स्पेस में खरीददार और दुकानदार के बीच होने वाला लेन-देन बहुत ही जटिल और अव्यवस्थित था। उन्हें इस क्षेत्र में एक बड़े बिज़नेस का अवसर दिखा।

इसी दौरान उनकी मुलाकात उनके एक मित्र सौरभ कुमार से हुई। उन्होंने इस गैप की चर्चा सौरभ से की तो दोनों को महसूस हुआ कि इसमें बिजनेस का एक बड़ा अवसर है जिसे हाथ से नहीं जाने देना चाहिए। दोनों ने मिलकर इस आइडिया के पीछे रिसर्च करने शुरू कर दिए। इसी कड़ी में इन्होंने स्थानीय फार्मेसी कारोबारी से बातचीत के दौरान पाया कि वे तीन से चार किलोमीटर के क्षेत्र में राेजाना 50-60 होम डिलिवरी करते हैं।
आधारिक संरचना के अभाव में डिलीवरी सिस्टम उस वक़्त एक बड़ी समस्या के रूप में उभर रही थी। इन्होंने बिना कोई वक़्त गवायें एक ऐसा प्लेटफॉर्म बनाने का निर्णय लिया जो दुकानदार के साथ-साथ खरीददार के लिए भी फायदेमंद हो और मार्केट के गैप को भी कम कर सके। और इसी सोच के साथ ‘वन नंबर’ की शुरुआत हुई।

 इन्होंने घर के नजदीकी इलाके में स्थित फार्मेसी, ग्रोसरी और रेस्टोरेंट से कस्टमर के लिए ऑन-डिमांड पिक-अप और ड्रॉप की सेवा प्रदान करते हुए शुरुआत की। कुछ महीनों तक काम करने के दौरान इन्होंने पाया कि कुल ऑडर्स का 90 प्रतिशत हिस्सा ग्रोसरी और फार्मेसी से आ रहा था। फिर इन्होंने इन्ही दो सेक्टर्स पर फोकस करते हुए अपने मॉडल में बदलाव किया तथा कंपनी को ग्रोफर्स के नाम से रीब्रांड भी किया।   

ग्रोफर्स आज वेबसाइट और मोबाइल एप के जरिए ग्राहकों को ऑनलाइन आर्डर करने की सुविधा प्रदान करती है। इतना ही नहीं प्रतिदिन के रोजमर्रा की चीजों को महज़ कुछ ही घंटों में उनके घर पर डिलीवरी करवा देती। बेंगलुरु, चेन्नई, दिल्ली, कोलकाता समेत सभी बड़े शहरों में यह प्रतिदिन बीस हज़ार से भी ज्यादा ग्राहकों को सेवा प्रदान करते हुए देश की सबसे बड़ी डिलीवरी स्टार्टअप है। 



इतना ही नहीं आज कंपनी की वैल्यूएशन 1 बिलियन डॉलर अर्थात 7000 करोड़ के पार है। 1000 से ज्यादा लोगों को रोजगार के अवसर प्रदान कर अलबिंदर ने नई पीढ़ी के युवाओं के लिए मिसाल पेश की है। इस सफलता को देख हमें यह सीख मिलती है कि किसी के यहाँ रोजगार करने के बजाय खुद के आइडिया पर काम करते हुए यदि आगे बढ़े तो आने वाले वक़्त में हम भी दूसरे को रोजगार के अवसर प्रदान कर सकेंगे।  



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6 लाख के लोन से 4 करोड़ टर्नओवर तक का सफ़र, जिंदगी से हार चुकी एक महिला की प्रेरक कहानी


आपके भीतर ही तमाम शक्तियां मौजूद हैं और आप कुछ भी और सब कुछ कर सकते हैं l शक्ति एक ऐसी ताकत है जिससे आप बुरे वक़्त में भी सर उठा कर चल सकते हैं l एक औरत जो पति द्वारा बेरहमी से की गयी पिटाई  के कारण अस्पताल में भर्ती थी और अपने बच्चों के लिए प्यार के सहारे वह अपनी जिंदगी को एक मौका दे रही थीl एक छोटी सी आशा की किरण थी जो एक मरते हुए औरत की ताक़त बन गई l आज उनकी हथेली में करोड़ों रुपयों का साम्राज्य है और बेख़ौफ़  जिंदगी जी रही हैं l 

 मुम्बई के भिवांडी के एक मध्यम वर्गीय परिवार में भारती सुमेरिया का जन्म हुआ था l उनके रूढ़िवादी पिता ने उन्हें दसवीं के बाद पढ़ाने से इंकार कर दिया और उनकी शादी कर दी ताकि वह ख़ुशी से अपना जीवन गुजार सके l उनके पिता थोड़ा-थोड़ा यह जानते थे कि जिसे उन्होंने अपनी बेटी के लिए चुना है वह व्यक्ति उनके लिए एक बुरा सपना बन सकता है l   


शादी के बाद जल्द ही भारती ने एक लड़की को जन्म दिया और कुछ सालों बाद उनके दो जुड़वे बेटे हुए l पति बेरोज़गार थे और अपने पिता की पूरी प्रॉपर्टी घर का किराया देने में ही गवा रहे थे l उनके पति संजय, भारती को बिना बात ही पीटा करते थे और जैसे-जैसे समय बीतता गया उनका वहशीपन बढ़ता ही चला गया l यह हर रोज होने वाली घटना बन गई और इसके चलते उन्हें कई बार हॉस्पिटल में एडमिट होना पड़ता l 

 भारती अपनी इस डरावनी जिंदगी से पलायन कर अपने माता-पिता के घर चली आयीं l वह जानतीं थीं कि उन्हें वापस अपने पति के पास ही जाना पड़ेगा l उनका हर एक पल अपने पति के डर के साये में बीतता था l एक महीने तक वह घर से बाहर भी नहीं निकली थी और उनकी लोगों के साथ बिलकुल भी बातचीत नहीं थी l   

यह एक ऐसा समय था जब वह पूरे अँधेरे में थी, उनके बच्चे ही उनकी आशा के  किरण थे l उनके बच्चे हमेशा उनका हौसला बढ़ाते कुछ नया सीखने को, लोकल कॉम्पिटिशन में भाग लेने को और अपने डिप्रेशन के दायरे से बाहर निकलने के लिए कहते थेl भारती के भाई ने बच्चों के ख़ातिर उन्हें नौकरी करने को कहा l  

 2005 में भारती ने एक छोटी सी फैक्ट्री खोली जिसमें छोटे-छोटे सामान जैसे टूथब्रश, बॉक्सेस, टिफ़िन बॉक्सेस आदि बनाये जाते थे l उनके पिता ने भारती की मदद के लिए छह लाख का लोन लिया और मुलुंड में उन्होंने दो कर्मचारियों के साथ मिलकर काम शुरू किया l पैसे कमाने से ज्यादा भारती के काम करने से उनका डिप्रेशन पूरी तरह से खत्म हो गया l   

पति की ज्यादतियां अभी भी  ख़त्म नहीं हुई थी l उनके पति घर में और लोगों के सामने भी भारती को मारते थेl केनफ़ोलिओज को बताते हुए भारती कहती हैं कि “पुलिस के पास जाने पर उनसे भी मदद नहीं मिलती थी क्योंकि मेरे पति की पहचान पुलिस डिपार्टमेंट के लोगों से थी”l

तीन-चार साल बाद भारती ने एक कदम आगे बढ़ाया और पीईटी नामक एक फैक्ट्री खोली जिसमे प्लास्टिक बॉटल्स बनाया जाता है l अपने ग्राहकों  के संतोष के लिए वह खुद ही सामान की गुणवत्ता की जाँच करती थी l इन सब से उन्हें प्रतिष्ठा मिली और जल्द ही सिप्ला, बिसलेरी जैसे बड़े ब्रांड से भी आर्डर मिलने लगे l 

 तीन साल बाद 2014 में उनके पति संजय ने फिर से उनपर हाथ उठाया , इस समय उनके पति ने फैक्ट्री के कर्मचारियों के सामने ही भारती को मारना शुरू कर दिया l यह उनके बच्चों के सहन शक्ति से बाहर था और बच्चों ने अपने पिता से कह दिया कि वह वापस कभी लौटकर न आये l


 आज भारती ने अपना बिज़नेस बढ़ाकर चार फैक्ट्री में तब्दील कर दिया है जिसका वार्षिक टर्न-ओवर लगभग चार करोड़ है l इस तरह भारती ने घुप अँधेरे जीवन में  भी एक रौशनी का झरोखा सा खोल दिया और स्वयं और अपने बच्चों का जीवन खुशियों से भर दिया l 




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शून्य से की थी शुरुआत, दो दिन में 6100 करोड़ कमा कर अंबानी, बिरला जैसों को दी थी पटखनी



यदि देश में सफल कारोबारी की चर्चा होती है तो लोगों की जुबान पर टाटा, अंबानी और बिरला जैसे कुछ चंद नाम सबसे पहले आते। इन कारोबारी दिग्गजों को हर जुबान पर जगह बनाने में कई दशक लगे। लेकिन वक़्त के साथ और भी कई लोग इन दिग्गज उद्योगपतियों की सूचि में अपनी जगह बनाए। इनमें कई ऐसे शख्स हैं जिन्होंने कठिन मेहनत और परिश्रम की बदौलत शून्य से शुरुआत कर इस मुकाम तक पहुंचे कि आज अंबानी और बिरला से कंधों-से-कंधा मिलाकर चलते हैं। और ताज्जुब की बात यह है कि हम ऐसे कई लोगों को जानते तक नहीं।

आज हम ऐसे ही एक सफल कारोबारी की कहानी लेकर आए हैं जिन्होंने अपने करियर की शुरुआत पिता के बियरिंग बिजनेस से की थी। धंधा बंद होने के बाद भी इन्होंने हार नहीं मानी और काम करते रहे। आज देश के रिटेल कारोबार में इनकी तूती बोलती है। इतना ही नहीं इन्होंने रिटेल बिजनेस में रिलायंस और बिरला जैसी बड़ी कंपनियों को भी पीछे छोड़ दिया।

हम बात कर रहे हैं एवेन्यू सुपरमार्ट लिमिटेड के मालिक राधाकृष्ण दमानी की सफलता के बारे में। आज दमानी देश के शीर्ष अमीरों की सूची में शामिल हैं। हाल ही में इनकी कंपनी ने आईपीओ (शेयर) जारी किया जो कि 299 रुपए शेयर के हिसाब से बेचा गया था जब बाजार में उसकी लिस्टिंग हुई तो वह तमाम रिकार्ड तोड़ते हुए 641 रुपए तक जा पहुंचा। जिस डीमार्ट की सफलता के चर्चे आज हर तरफ हो रहे हैं वास्तव में वो 15 साल लंबे इंतजार का फल है।

दमानी पिता के बियरिंग बिजनेस के साथ अपने कारोबारी कैरियर की शुरुआत की। लेकिन दुर्भाग्यवश पिता के देहांत के बाद बिजनेस बंद हो गया। इस बुरे वक्त में उनके भाई राजेंद्र दमानी ने इनका साथ दिया। फिर दमानी भाइयों ने स्टॉक ब्रोकिंग के बिजनेस में कदम रखा। शुरुआत में दमानी को तनिक भी समझ नहीं थी कि यहां धंधा कैसे किया जाता है? उन्होंने काफी समय तक बाजार की समझ अपने से बुजुर्ग ब्रोकर से जानकारी हासिल कर बनाई। और फिर इन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। इन्होंने अपनी सूझ-बुझ और दूरदर्शिता की बदौलत रेजर बनाने वाली जिलेट जैसी कंपनियों में पैसे लगाते हुए करोड़पति बन गये।

दमानी शुरू से ही अपना खुद का कारोबार खरा करना चाहते थे लेकिन पैसे की कमी हमेशा बाधा बनती थी। स्टॉक मार्केट से अच्छे पैसे बनाने के बाद इन्होंने साल 2000 में खुदरा बाजार में घुसने का मन बनाया और इसकी तैयारी में जुट गए। छोटे कारोबारियों और दुकानदारों से बातचीत करने के बाद इन्होंने छोटे शहरों पर ध्यान केंद्रित करते हुए डी-मार्ट के बैनर तले खुदरा बाज़ार में कदम रखा।

 आज देश के 45 शहरों में डी-मार्ट के लगभग 118 स्टोर हैं। डी-मार्ट ने अपने स्टोर के लिए कभी कोई जगह किराए पर नहीं ली। जब जहां स्टोर खोला इसके लिए अपनी जगह खरीद ली। इससे कंपनी को ज्यादा प्रॉफिट करने में सहोलियत हुई क्योंकि किराए में एक बड़ी रकम चली जाती। इतना ही नहीं इस पैसे की मदद से इन्होंने अपने स्टोर पर मौजूद सामान को कम दाम में भी देने में सक्षम बने। आपको यह जानकर हैरानी होगी कि आज इनकी रिटेल समूह मुनाफे में रिलायंस रिटेल व फ्यूचर रिटेल को काफी पीछे छोड़ चुकी है।  


दरअसल कंपनी द्वारा आईपीओ जारी करने के बाद सिर्फ दमानी व उनके परिवार की ही लाटरी नहीं निकली बल्कि उनके तमाम अफसर व कर्मचारी भी रातों-रात लखपति, करोड़पति बन गए। इनमें डी-मार्ट के प्रबंध निदेशक नेविल नरोना भी है जिनके शेयरों की कीमत 900 करोड़ रुपए हो गई है। नरोना एक दशक पहले हिंदुस्तान यूनीलिवर कंपनी छोड़कर दमानी के साथ जाने का जोखिम लिया था। उनके वित्तीय सलाहकार 200 करोड़ के मालिक हो गए हैं जबकि लखपति बनने वालों की तादाद हजारों में है। कंपनी की वैल्यूएशन 40,000 हजार करोड़ के पार है। 

 आमतौर पर सुर्ख़ियों से दूर रहने वाले दमानी हमेशा साधारण जीवन जीने में यकीन रखते हैं। दमानी का हमेशा से यही मानना रहा है कि आनन-फानन में आकर पूरे देशभर में कारोबार फैलाने से बेहतर पहले जिन एरिया में सर्विस मौजूद है उन्हीं को सुधारने पर ध्यान लगाया जाए तो इससे बिज़नेस में काफी तेजी से प्रगति देखने को मिलती है। और इसका जीता-जागता उदाहरण हैं राधाकृष्ण दमानी जिन्होंने एक ही झटके में अनिल अंबानी, अजय पीरामल, राहुल बजाज जैसे देश के दिग्गज को पीछे छोड़ दिया। 



 इनकी सफलता को देखकर हमें यह सीख मिलती है कि कठिन परिश्रम और दृढ इच्छाशक्ति से असंभव को भी संभव बनाया जा सकता है।  

50 रुपये की छोटी रक़म से 10,000 करोड़ का साम्राज्य स्थापित करना आसान नहीं था, लेकिन इन्होंने कर दिखाया



जब लोग किसी काम में असफल हो जाते हैं तो वे परिस्थितियों को, दूसरों से न मिलने वाली मदद को और भाग्य पर दोष मढ़ने लगते हैं। आज हम जिस व्यक्ति की बात कर रहे हैं उनका जीवन ऐसे ही तमाम परिस्थितिओं से गुजरा। बचपन में बहुत ही उन्होंने विषम से विषम परिस्थितियों का सामना किया। 

 परिवार और समाज से कोई सहायता न मिलने के बावजूद वे औपचारिक प्रशिक्षण से सिविल इंजीनियरिंग में पारंगत हो गए। कड़ी मेहनत के बाद जब उन्हें कुछ अवसर तो मिले तो कमबख़्त पूंजी के नाम पर उनके पास केवल 50 रुपये ही थे।  



भारत के दिग्गज कारोबारी पी.एन.सी मेनन आज किसी परिचय के मोहताज़ नहीं हैं। मेनन जब दस वर्ष के थे तब उनके पिता का देहांत हो गया था। पिता के बाद उनके परिवार को बहुत सारी सामाजिक और आर्थिक दुश्वारियों का सामना करना पड़ा। घर की स्थिति धीरे-धीरे और नीचे जा रही थी और फीस के लिए भी पैसे निकलना मुश्किल हो रहा था। जैसे-तैसे इन्होंने अपने स्कूल की शिक्षा पूरी की और बी.कॉम करने के लिए त्रिसूर के एक लोकल कॉलेज में दाखिला ले लिया।

इधर घर की स्थिति दयनीय थी कि कॉलेज की फीस देना भी असंभव था। अंत में उन्हें कॉलेज की पढ़ाई बीच में ही छोड़नी पड़ी। पैसे कमाना उनकी जरुरत और मज़बूरी दोनों बन गयी थी। घर में चूल्हा जलाने के लिए इन्होंने छोटे-मोटे काम करना शुरू कर दिया। बिना किसी औपचारिक शिक्षा के इन्होंने छोटे स्तर पर डिज़ाइनिंग का काम शुरू कर दिया था। अपने समर्पण के बल पर इन्होंने अपनी क्षमताओं को विकसित कर उच्च-स्तरीय इंटीरियर डेकोरेटर और सिविल का काम शुरू कर दिया। उनकी क्षमता और कड़ी मेहनत के बावजूद उन्हें कोई संतोषजनक कॉन्ट्रैक्ट नहीं मिल रहा था। सभी बाधाओं को चुनौती देते हुए उन्होंने इस उद्योग के बारे में और विस्तार से सीखना जारी रखा। 
 कहा भी गया है कि भाग्य हमेशा बहादुरों का साथ देती है और यह मेनन के साथ भी हुआ। एक दिन उन्हें किसी ने भारत के बाहर अवसर तलाशने की सलाह दी। लेकिन ओमान का सपना इतना आसान नहीं था। ओमान जाने के टिकट के पैसों का इंतज़ाम उनके औकात से बाहर की बात थी। 

 सफलता की यात्रा में बहुत सारी मुश्किलें आती हैं और उनके लिए सबसे बड़ी चुनौती थी कुछ पैसे इकठ्ठे करने की। एक तरफ का टिकट और हाथ में 50 रूपये लेकर ओमान जाना किसी ख़ुदकुशी से कम नहीं था। पर कहते हैं न कि जिनकी इच्छा असामान्य उपलब्धियां को हासिल करना है, वे असामान्य चुनौतियों का सामना करने को हमेशा तैयार रहते हैं। मेनन वैसे ही लोगों में से थे। 

 सभी अनिश्चितताओं के बीच सिर्फ अपने साहस और विश्वास के औज़ार को लेकर मेनन ओमान पहुँच गए। उनके लिए ओमान एक सर्कस से कम नहीं था। अनजान संस्कृति, पराई भाषा और एक अपेक्षाकृत विकसित समाज की तिकड़ी उनके लिए बड़ी मानसिक चुनौती के रूप में खड़ी थी। ओमान का तापमान और भोजन शैली भी उन्हें शारीरिक रूप से तोड़नी शुरू कर दी थी। सफल लोगों में चुनौतियों को अवसर में बदलने की क्षमता पहले से ही होती है। ओमान एक विकसित देश है पर वहां की जलवायु लोगों की कार्यक्षमता कम कर देती है। मेनन ने इस कमजोरी को मात देते हुए असामान्य रूप से कम समय में काम पूरा करने की पेशकश की। लोगों को उनका यह तरीका बेहद पसंद आया और जल्द ही उनके बहुत सारे बिज़नेस कांटेक्ट बन गए।

मेनन ने बैंक से लोन लेकर एक-एक पैसे का सदुपयोग करने की सोची और उन्होंने सड़क के किनारे एक छोटे स्तर पर इंटीरियर्स और फिट-आउट्स की एक दुकान खोल ली। मेनन हमेशा से ही परफेक्शनिस्ट थे और धीरे-धीरे उनके काम की गुणवत्ता की चर्चा होने लगी और उनके ग्राहक बनने शुरू हो गए।



“मैं स्वभाव से चैन से न बैठने वाला व्यक्ति हूँ। इसलिए मैंने कभी भी वीकेंड्स पर छुट्टी नहीं ली। जो व्यक्ति अपने तरीकों से काम करके ऊँचे उठते है वे प्रायः जो हासिल कर चुके हैं; उसके लिए असुरक्षित महसूस करते हैं” — मेनन



वह समय मेनन का संघर्षों से भरा था और वह पैसे कमाने के प्रयास में लगे रहे। जहाँ दूसरे ठेकेदार एयर कंडिशन्ड कार लेकर शान-ओ-शौकत का जीवन जी रहे थे, वही मेनन इस ओमान की गर्मी में सामान्य सी गाड़ी में सफर करते थे। उन्होंने लगभग 175000 किलोमीटर की दूरी ऐसे ही अ-वातानुकूलित कारों में सफर करते हुए तय किया था।

यह कठिन दौर महीने से सालों में तब्दील होते गए। पूरे आठ सालों बाद बिज़नेस में उन्हें एक हाई-पेइंग ग्राहक से कॉन्ट्रैक्ट मिला। मेनन की यह खासियत थी कि वह अच्छी गुणवत्ता के साथ और समय पर अपना काम पूरा करते है और इसी गुण से उन्हें एक अलग पहचान मिली। अपने इस फर्म का नाम उन्होंने अपनी पत्नी के नाम पर शोभा लिमिटेड रखा। यह कठिन दौर महीने से सालों में तब्दील होते गए। पूरे आठ सालों बाद बिज़नेस में उन्हें एक हाई-पेइंग ग्राहक से कॉन्ट्रैक्ट मिला। मेनन की यह खासियत थी कि वह अच्छी गुणवत्ता के साथ और समय पर अपना काम पूरा करते है और इसी गुण से उन्हें एक अलग पहचान मिली। अपने इस फर्म का नाम उन्होंने अपनी पत्नी के नाम पर शोभा लिमिटेड रखा।



 फ़ोर्ब्स की गणना में मेनन की संपत्ति 10,801 करोड़ आंकी गई है। मेनन खुद से बने हुए इंट्रेप्रेनेयर हैं जो विश्वास करते हैं, असाधारण गुणवत्ता और कठिन परिश्रम पर। बहुत सालों के संघर्ष के बाद उन्होंने न केवल एक बड़ा साम्राज्य खड़ा किया बल्कि एक सम्मानीय व्यक्ति के रूप में भी खुद को स्थापित किया है। 2013 में वे अपनी संपत्ति का आधा हिस्सा बिल गेट्स की चैरिटी को दान कर चुके हैं। 



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Wednesday, May 13, 2020

दो दोस्तों ने शुरू किया अनूठा स्टार्टअप, 25 लाख घरों से कूड़ा बटोर कर रहे करोड़ों की कमाई


आज हमारे देश में जनसंख्या बढ़ने और तेज़ आर्थिक विकास के कारण कचरे की समस्या एक विकराल रूप लेती जा रही है। देश में पैदा होने वाला 80 फीसदी कचरा कार्बनिक उत्पादों, गंदगी और धूल का मिश्रण होता है, जो हमारे स्वास्थ्य एवं पर्यावरण के लिए एक गंभीर खतरा है। आज हमारे सामने पर्यावरण को बचाये रखने का महत्वपूर्ण दायित्व है। यह कचरा प्रबंधन की दिशा में उठाया गया एक बेहतरीन कदम है। इसके तहत कचरे को रीसाइकिल करने की प्रक्रिया को अंजाम दिया जाता है, ताकि इसे दोबारा किसी दूसरे रूप में प्रयोग किया जा सके।
 ऐसा ही एक बेहतरीन प्रयास कर रही हैं “रिकार्ट” नाम की कंपनी, जिसकी आधारशिला का श्रेय जाता है अनुराग तिवारी को। इनकी कंपनी दिल्ली म्युनिसिपल कारपोरेशन के साथ मिलकर 25 लाख लोगों के घरों से कूड़ा बटोर कर उसे रिसाइकिल कर रही है।  



अनुराग तिवारी कुरुक्षेत्र के रहने वाले हैं और फाइनेंस में पोस्ट ग्रेजुएट करने के बाद इन्होंने 2 साल भारती एयरटेल में काम किया। लेकिन वो हमेशा से कुछ अपना करना चाहते थे। इसी विचार के साथ उन्होंने अपने फरीदाबाद निवासी दोस्त ऋषभ भाटिया के साथ मिलकर एडवरटाइजिंग कंपनी खोली, जिसका सालाना टर्नओवर 5 -10 करोड़ हो रहा था। लेकिन अनुराग एक ऐसे क्षेत्र में काम करना चाहते थे जहाँ उनकी कंपनी 100 करोड़ का टर्नओवर कर सके। एक दिन अनुराग फरीदाबाद गुडगाँव मार्ग से गुजर रहे थे. जहाँ उन्होंने कूड़े का एक बड़ा सा ढेर देखा जिसमे अधिकतर सामान रिसाइकिल होने वाला था परन्तु उसे बेकार में डम्प किया जा रहा था। बस फिर क्या था, तुरंत अनुराग के मन में यह विचार आया क्यों न ऐसा काम किया जाए जिससे शहर से कूड़े का ढेर भी हटा कर साफ़ सुथरा किया जा सके व साथ ही कूड़ा रिसाइकिल भी हो सके।


इसी विचार के साथ उन्होंने अपनी एडवरटाइजिंग कंपनी को बंद कर अपने दो दोस्तों ऋषभ व वेंकटेश के साथ मिलकर “रिकार्ट” नामक स्टार्टअप खोला और दिल्ली और गुडगाँव के घरों से कूड़ा उठवाने का काम शुरू किया। आज इनकी कंपनी में 11 से अधिक कर्मचारी पेरोल पर काम कर रहे हैं और सालाना 15 करोड़ से अधिक का टर्नओवर है। वर्तमान में इनकी कंपनी गुडगाँव के 50 अपार्टमेंट व दिल्ली के 25 लाख लोगों के घर से कूड़ा उठा रही है।



अनुराग अपनी कंपनी के द्वारा कचरा उठाने वालों व कबाड़ियों के जीवन में भी काफी सुधार लाए हैं। जिन कूड़ा उठाने वालों को 100 से 200 रूपए मिलते थे, अब उन्हें 500 से 700 रूपए मेहनताना मिलता है। इसके साथ ही 100 से अधिक कबाड़ी वालों के जीवन स्तर में काफी सुधार आया है। अनुराग बताते हैं कि वह सूखे कूड़े का कलेक्शन, ट्रांसपोर्टेशन व रिसाइकिल करने का ही काम करते है। जिसमे प्लास्टिक, गत्ता, रद्दी, धातु व बॉयोमैट्रिक कचरे को अलग-अलग कर विभिन्न रिसाइक्लिंग प्लांट को बेचते हैं। ग्राहकों को बस एक मोबाइल से मिस काल देना होता है फिर रिकार्ट के लोग उनसे संपर्क कर घर से बेकार समान उठा कर ले जाते हैं।

अपनी भविष्य की योजनाओं के बारे में जानकारी देते हुए अनुराग बताते हैं कि “अगले वर्ष तक वे 50 नई म्युनिसिपैलिटीयों के साथ काम करेंगे और आने वाले 3 सालों में आईपीओ प्लान कर रहे हैं। साथ ही वह बताते हैं कि भारत में कोई कचरा प्रबंधन के क्षेत्र में बड़ी कंपनी नहीं है इसलिये वे आने वाले कुछ वर्षों में इंटरनेशनल वेस्ट मैनेजमेंट एंड रीसाइक्लिंग कम्पनीज के साथ जॉइंट वेंचर के लिये प्लान तैयार कर रहे हैं।

अपने श्रेष्‍ठ कार्यो के लिये अनुराग को भारत सरकार के द्वारा इंडो जर्मन ट्रैंनिंग प्रोग्राम के लिए 1 महीने की बिज़नेस विजिट के लिए जर्मनी भेजा गया है, जिसे अनुराग अपने जीवन की एक बहुत बड़ी उपलब्धि मानते हैं और वह चाहते हैं कि देश स्वच्छ एवं कूड़ा रहित बन सके और वह इसके लिये हर मुमकिन प्रयास करेंगे।