Friday, May 22, 2020

पारिवारिक खर्चे की भरपाई के लिए शुरू किया बिज़नेस, आज है 1000 करोड़ के क्लब में शामिल !!



यह कहानी वास्तव में एक शिक्षक की है लेकिन अतिरिक्त खर्चों से निपटने के लिए उन्होंने व्यापार का विकल्प चुना। और कारोबारी जगत में घुसते हुए इन्होंने अजंता, ऑरपेट और ओरेवा जैसी नामचीन ब्रांडों की आधारशिला रखते हुए आज की युवा पीढ़ी के लिए एक आदर्श बन कर खड़े हैं। एक दिन इस शख्स की पत्नी ने इन्हें ताने देते हुए कहा कि आप अपने बचे समय में कुछ कारोबार क्यूँ नहीं करते? यदि मैं पुरुष होती तो अपने भाई के साथ मिलकर कोई कारोबार करती और पूरे शहर में प्रसिद्ध हो गई होती। यह बात इनके दिमाग में खटक गई और फिर इन्होंने कारोबारी जगत में कदम रखते हुए हमेशा के लिए अपना नाम बना लिए।

जी हाँ हम बात कर रहे हैं ऑरपेट, अजंता और ओरेवा जैसे ब्रांडों के निर्माता ओधावजी पटेल की सफलता के बारे में। आज शायद ही कोई घर होगा जहाँ इनके द्वारा बनाया गया सामान नहीं पहुँचा हो। ओधावजी मूल रूप से एक किसान परिवार से ताल्लुक रखते हैं। किसान परिवार से आने के बावजूद इन्होंने विज्ञान में स्नातक करने के बाद बी.एड की डिग्री हासिल की। इसके बाद इन्होंने वी सी स्कूल में विज्ञान और गणित के शिक्षक के रूप में तीस साल तक काम किया। इन्हें 150 रूपये प्रति महीने की पगार मिलती थी। किसी तरह पूरे परिवार का भरण-पोषण हो पाता था। लेकिन जब इनके बच्चे बड़े हुए तो परिवार पर आर्थिक दबाव बनने शुरू हो गये।




फिर अतिरिक्त आय के लिए इन्होंने कुछ व्यापार शुरू करने के बारे में सोचा। इनकी पत्नी ने भी इस काम के लिए इन्हें काफी प्रोत्साहित किया। काफी सोच-विचार करने के बाद इन्होंने मोरबी में एक कपड़े की दुकान खोली जो साल 1970 तक जारी रहा। इसी दौरान वर्ष 1960 के दौरान पानी की तीव्र कमी थी। यद्यपि प्रत्येक गांव में कुएं थे, लेकिन पानी खींचने के लिए एक आवश्यक तेल इंजन की आवश्यकता थी। ओधावजी ने इस क्षेत्र में बिज़नेस संभावना देखी और वसंत इंजीनियरिंग वर्क्स के बैनर तले तेल इंजन बनाने शुरू किये। इन्होंने तेल इंजन का नाम अपनी बेटी के नाम पर ‘जयश्री’ रखा।


यह यूनिट पांच साल तक जारी रहा। एक दिन लोगों के एक समूह ने इनके पास ट्रांजिस्टर घड़ी परियोजना से संबंधित आइडिया लेकर आए।ओधावजी को यह आइडिया अच्छा लगा और उन्होंने 1,65,000 की लागत से घड़ी बनाने के कारखाने को एक किराए के घर में 600 रुपये प्रति माह के किराए पर स्थापित किया और अजंता के रूप अपने ब्रांड की आधारशिला रखी।

शुरुआत में कंपनी को भारी नुकसान झेलना पड़ा लेकिन ओधावजी ने हार नहीं मानी और डटे रहे। बाज़ार में लोगों ने इनके उत्पाद में विश्वास दिखाने शुरू कर दिए और देखते-ही-देखते अजंता बाज़ार की सबसे लोकप्रिय और विश्वसनीय घड़ी ब्रांड बन गई। फिर उन्होंने समय के साथ अन्य क्षेत्रों में भी पैठ ज़माने के लिए ऑरपेट और ओरेवा जैसी दो नामचीन ब्रांड की पेशकश की।



 करीबन डेढ़ लाख रूपये की लागत से शुरू हुई कंपनी आज 1000 करोड़ के क्लब में शामिल है। इससे शानदार कारोबारी सफलता और क्या हो सकती। 




 आप अपनी प्रतिक्रिया नीचे कमेंट बॉक्स में दे सकते हैं और इस पोस्ट को शेयर अवश्य करें  



18 वर्षो से व्हीलचेयर पर हैं, लेकिन गरीब-वंचित को मुफ़्त शिक्षा देने का उनका संकल्प जारी है !!



स्वस्थ जीवन की चाह हर किसी की होती है, किन्तु जीवन पूर्णता अप्रत्याशित है। कब किस मोड़ पर क्या हो हम नहीं जानते ,लेकिन अगर हम मानसिक रूप से मजबूत है तो शारीरिक कमी भी हमें कमजोर नहीं बना सकती। सही मायने में सच्चा विजेता तो वही है जो अपने जीवन की हर कमी को भूल कर दूसरो की जिंदगियों को रोशन करने में अपना सर्वस्व त्याग देता है। फिर चाहे शारीरिक अक्षमता हो या विपरीत परिस्थितियां हर शब्द के अर्थ सूक्ष्म हो जाते हैं। ऐसा ही एक प्रेरणादायक उदहारण हमारे समक्ष प्रस्तुत हुआ है गोपाल खंडेलवाल का जोकि 18 वर्षो से व्हीलचेयर पर हैं। लेकिन निस्वार्थ भावना व जज़्बा  ऐसा की आज हज़ारो गरीब बच्चों को निशुल्क पढ़ा कर उन्हें समाज में एक सम्मानजनक स्थान दिलवा रहें हैं।




48 वर्षीय गोपाल खंडेलवाल बनारस के एक साधारण  परिवार से है। जब वे मात्र 27 वर्ष के थे तो एक  सड़क हादसे ने उनके शरीर के  निचले भाग को पैरालाइज़्ड कर दिया। तीन सालों तक  इनका इलाज BHU में चला लेकिन कोई सुधार न दिखने  पर गोपाल की हिम्मत टूटने लगी। माँ बाप थे नहीं ,दो भाई थे वो भी अपने जीवन में व्यस्त थे ,कोई देख रेख करने वाला  नहीं था। 

तब गोपाल के दोस्त डॉ अमित दत्ता ने इन्हे संभाला और इन्हे अपने साथ गॉव चलने की सलाह दी।फिर  डॉ अमित गोपाल को अपने साथ मिर्ज़ापुर जिला मुख्यालय से आठ किमी दूर कछवा ब्लॉक  के पत्तिकापुर गॉव ले आयें। वहां उनके लिए एक कमरा भी बनवा दिया।  गोपाल का गॉव में मन तो लगने लगा लेकिन खाली  बैठ कर समय काटना उनके लिए बहुत मुश्किल होने लगा। फिर उन्होंने बच्चों को निशुल्क पढ़ाने का मन  बनाया और एक  बगीचे में इन्होने बच्चों को पढ़ाना शुरू किया। पहले दिन सिर्फ एक ही  लड़की पढ़ने आयी लेकिन धीरे धीरे लोगों ने  विश्वास दिखाया और बच्चो की  संख्या में बढ़ोत्तरी होती चली गयी। 

आज इनकी पाठशाला में 67 बच्चें पढ़ते है। गोपाल बताते है की अब उनका जीवन ये बच्चे ही हैं। जो उनके साथ सुबह 5 बजे से शाम के 6 बजे तक रहते है। ये बच्चे ही  इन्हे सुबह चारपाई से उठाकर व्हीलचेयर पर बैठाते है व शाम को यही बच्चे इन्हे चारपाई पर वापस लेटा  देते है। अपनी पाठशाला का नाम गोपाल ने अपनी माँ के नाम पर 'नोवाल शिक्षा संस्थान 'रखा। इनकी पाठशाला में बीते 18 वर्षो में हज़ारो बच्चे पढ़ चुके हैं। ये वे बच्चे हैं जो मजदूरी या अन्य कामो की  वजह से स्कूल नहीं जा पाते  हैं।




गोपाल सिर्फ इन बच्चो को पढ़ा ही  नहीं रहें हैं बल्कि उन्हें जीवन जीने का सलीका भी सीखा रहें है। वे बच्चों को कपड़े पहनने से लेकर उठने बैठने  खाना खाने का  तरीका सीखा रहे हैं। ताकि वे समाज में अच्छा स्थान पा  सकें। गरीब बच्चो को बेहतर शिक्षा मिले इसके लिए गोपाल खुद तो मेहनत करते ही  है  किन्तु वो चाहते है कि इन बच्चो को अच्छे स्कूलों में एडमिशन भी मिले ,जिसमे काफी हद तक वे सफल भी  हो रहें हैं। इसके  लिए उन्हें सोशल साईट  काफी मदद मिल रही है। जो बच्चा गरीब किंतु पढ़ने की ललक रखता है उसकी फोटो या विडिओ बना गोपाल फेसबुक पर डालते हैंऔर फेसबुक के मित्रो से यह अपील करते है अगर मुमकिन हो सके तो वे उस बच्चे की पढाई का खर्चा उठायें।  वे  मित्रगण इनके  अकाउंट में फीस के पैसे भेजते हैं। फिर गोपाल उन बच्चो का अच्छे स्कूल में  एडमिशन  करवाते है। वर्तमान में 50 से अधिक बच्चे स्कूलों  में पढ़ने  जा रहें  हैं। गोपाल बच्चो को पढ़ाने के अलावा गॉव वालो का इलाज़ भी करते है। इनके दोस्त डॉ अमित इनको कई प्रकार  की दवाएं देते हैं जिन्हे ज़रुरत पड़ने पर वे  गॉव वालो को देते हैं।


गोपाल के जीवन में उनके  दोस्त डॉ अमित का विशेष स्थान है। गोपाल बताते है की वे अपने जीवन से हार मान चुके थे और जब उनके साथ कोई नहीं था तो अमित ने ही  उन्हें संभाला व् प्रत्येक पल जीवन के  प्रति सकारात्मक रवैया बनाये रखने पर बल दिया। गोपाल मानते है की आज वो जो कुछ भी कर पा रहे  है वो सिर्फ  उनके दोस्त  से ही मुमकिन हो पाया हैं। 

 गोपाल दो कदम भी चल पाने में समर्थ नहीं हैं किन्तु आज  उन्होंने हज़ारों बच्चों को समाज में खड़े होने के काबिल बनाया हैं। जिन्हे हमारे समाज में वंचित समुदाय के नाम से जाना जाता है। गोपाल की शारीरिक अक्षमता कभी भी उनके इरादों को डिगा न सकी।आज उनके क्षेत्र के लोग उनके हौंसलों  की मिसालें देते हैं।  

Wednesday, May 20, 2020

बस से सफ़र के दौरान उन्हें कुछ कमी दिखी, फिर शुरू किया स्टार्टअप, 600 करोड़ की हुई कमाई !!



आज-कल की नई पीढ़ी के युवाओं को कहीं पर थोरी कठिनाईयों का सामना क्या करना पड़ता, वो उसे दूर करने के साथ-साथ उसमें एक बड़ा बिज़नेस आइडिया ही खोज निकालते हैं। आज की यह कहानी एक ऐसे ही शख्स की है जिन्होंने एक दिन यात्रा के दौरान बस चूक जाने से हुई अपनी पीड़ा को आम लोगों की पीड़ा समझते हुए हमेशा के लिए मुक्ति देने के अभियान में बदल दिया। इतना ही नहीं ऑनलाइन बस टिकट बुकिंग के उनके बनाये पोर्टल रेड-बस ने उन्हें दिलाया आईबीबो से 600 करोड़ रुपयों का खड़ा सौदा।  

 आंध्र प्रदेश के एक छोटे से जिले निज़ामाबाद के फणीन्द्र समां ने कभी भी इंटरप्रेन्योरशिप के बारे में नहीं सोचा था। बिट्स पिलानी से इन्होंने इंजीनियरिंग की डिग्री ली और पोस्ट ग्रेजुएशन इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ साइंस से करने के बाद वे बेंगलुरु स्थित एक कंपनी में मज़े से काम करने लगे। परंतु एक बुरे अनुभव से रूबरू होने पर उन्होंने उसका समाधान खोजने का प्रयास किया ताकि दूसरों को इस अनुभव से न गुजरना पड़े। और फिर उन्होंने भारत की सबसे लोकप्रिय पोर्टलों में से एक के निर्माण के लिए योगदान दिया और इससे 600 करोड़ का साम्राज्य भी बनाया। 

 फणीन्द्र का जीवन ऐसे ही शांति पूर्वक चल रहा था और वे अक्सर ही अपने माता-पिता से मिलने हैदराबाद बस से जाया करते थे। 2005 में दीपावली का समय था, उनके सारे रूम-मेट्स छुट्टियाँ मनाने अपने-अपने घर जाने को तैयार थे। जब वह बस की टिकट लेने पहुंचे तब हैदराबाद जाने वाली बसों की सारी टिकट्स बिक चुकी थीं। दुर्भाग्यवश उन्हें टिकट नहीं मिली और वह हैदराबाद नहीं जा पाए। वह दो-तीन ट्रेवल एजेंट के पास भी गए पर उन्हें खाली हाथ ही लौटना पड़ा और वह बुरी तरह से निराश हो गए।  

 दुखी मन लेकर फणीन्द्र वापस अपने फ्लैट लौट आये और उन्होंने अपना पूरा सप्ताह नाराजगी में बिता दिया और सोच रहे थे कि क्यों नहीं इसके लिए कोई समाधान निकाला गया।

मेरे मन में बार-बार यह विचार आ रहा था कि क्यों वहाँ कोई ऎसी कंप्यूटर प्रणाली नहीं है जिसमें सभी बस ऑपरेटरों का उल्लेख हो और वे बता पाये कि कितनी बसें वहाँ से चलती है और कहीं जाने के लिए इस समय टिकट्स मिलने की क्या स्थिति है। और जब मैं पहले ट्रेवल एजेंट के पास जाऊँ तो वह सिस्टम लॉग ऑन करे और बस ऑपरेटर बताये कि सीट खाली है कि नहीं।

 फणीन्द्र ने पूरा सप्ताह ट्रेवल एजेंट के पास घूमते हुए बिताया और बस टिकट्स की बुकिंग की प्रक्रिया को समझने के लिए उन्होंने एजेंट से बहुत सारे सवाल भी पूछे और ढेर सारी जानकारियां इकठ्ठी की। उन्होंने ट्रेवल एजेंट और बस ऑपरेटर्स के काम को समझने की कोशिश की। कोई भी उन्हें इसके बारे में बताने के लिए ज्यादा रुची नहीं ले रहा था। उन्हें सफलता तब मिली जब एक युवा ट्रेवल एजेंट से मिले जो एक इंजीनियर भी था। और वे समझ पाए कि फणीन्द्र क्या चाहते हैं। वे बहुत खुश भी हुए कि बस टिकट्स बुकिंग के बारे में वह कुछ करना चाहते हैं।   





काम कैसे किया जायेगा यह सब सोचने के बाद समां ने अपने दोस्त के साथ मिलकर तय किया कि मुफ्त में ट्रेवल एजेंट के लिए खुला मंच बनाएंगे। फणीन्द्र इस प्रॉब्लम का हल ढूंढने के लिए उत्सुक थे जबकि उन्हें प्रोग्रामिंग नहीं आती थी। बुक्स पढ़कर उन्होंने कोडिंग और प्रोग्रामिंग सीखी और तब जाकर रेड-बस का जन्म हुआ।  


 शुरुआत में ट्रेवल एजेंट्स ने उनके द्वारा बनाये गए इस प्लैटफॉर्म का जब उपयोग किया तब उनके टिकटों की बिक्री में काफी सुधार हुआ। यह बहुत ही बड़ी सफलता थी रेडबस के लिए; जिसमें पढे -लिखे लोगों के अलावा वे भी वे भी इसका लाभ उठा पा रहे थे जिन्हें कंप्यूटर का उपयोग करना भी नहीं आता था। जब रेडबस को लॉन्च किया गया तब सोचा गया था कि पांच सालों में केवल 100 बस ऑपरेटर का ही रजिस्ट्रेशन होगा। परंतु इसकी सफलता इतनी तेजी से बढ़ी कि एक साल के भीतर ही 400 रजिस्ट्रेशन हुआ।   





जून 2014 में रेडबस को आईबीबो ने 600 करोड़ में अधिग्रहण कर लिया। फणीन्द्र के पास अब उनके बैंक अकाउंट में इतने रुपये इकट्ठे हो गए हैं कि वह अब सारी जिंदगी आराम से बिता सकते हैं। इस कहानी में सबसे अच्छी बात यह है कि फणीन्द्र ने पैसे कमाने के उद्देश्य से यह काम नहीं शुरू किया था वह केवल यह चाहते थे कि उस प्रॉब्लम का समाधान मिले और जो तकलीफ़ उन्होंने उठाई वह दूसरे को न मिले। 


 कुछ सालों में जो मेहनत फणीन्द्र और उनके दोस्तों ने किया है इस काम को करने के लिए, उसे ट्रेवल उद्योग में दशकों से काम कर रहे लोगों से उतनी सराहना नहीं मिली। परंतु उन्होंने कभी भी अपना धैर्य नहीं खोया और अपने आइडिया पर काम करते रहे, यही उनकी सफलता का राज है।   







आप अपनी प्रतिक्रिया नीचे कमेंट बॉक्स में दे सकते हैं और इस पोस्ट को शेयर अवश्य करें 


शहर की चकाचौंध छोड़ जैविक खेती के जरिये सफलता हासिल करने वाले दंपति की कहानी !!



आज के आधुनिक युग में जहाँ लोग आरामदायक और सुख-सुविधाओं भारी ज़िन्दगी जीने के लिए लालायित रहते हैं। ज्यादातर पति -पत्नी की चाहती होती है कि वे एक आधुनिक जीवन जीयें, जहां उन्हें सब कुछ उंगलियों के इशारे पर मिल जाये। शायद ही कुछ लोग होंगे जो अब भी गांव के जीवन को पसंद करते हैं और पारंपरिक जीवन बिताने की कल्पना करते हैं। गांव के पारंपरिक जीवन में जो शांति और सुद्धता है वह शहरों के भाग-दौड़ और प्रदूषण भारी ज़िन्दगी में कभी प्राप्त नहीं हो सकता है। 

 पर धीरे-धीरे कुछ युवाओं में शौकिया खेती की का क्रेज अब बढ़ने लगा है। लोग अब गांव के परिवेश में रहनें व प्राकृतिक जीवन जीने की पहल कर रहे हैं। बहुत सारे लोग हैं जो शहर के अव्यवस्था से तंग आकर , प्रकृति के करीब, ग्रामीण इलाको मे रहने के लिए इच्छुक हैं। और इस तरह के प्रयासों से दूसरों के लिए भी एक प्रेरणादायक उदाहरण पेश हो रहा है।  



आज हम एक ऐसे युगल की बात करने जा रहे हैं जिन्होंने शहरों की चकाचौंध भारी जिंदगी को अलविदा कह दिया और गांव में रहनें की ठानी है। इनका नाम है अंजलि रुद्राराजु करियप्पा और कबीर करियप्पा । इन दोनों नें अपनें शहर के जीवन को छोड़ गांव में रहनें व वहां रहकर ऑर्गेनिक व पारंपरिक खेती कर प्राकृतिक रूप से जीवन जीने की एक पहल शुरू की। दोनों मिलकर फिलहाल कर्नाटका के मैसूर शहर के निकट कोटे तालुका के हलासुरु गाँव में एक बहुत बड़े फार्म को स्थापित किया है। इस फार्म का नाम है "यररोवे फार्म"। एक तरह से देखा जाए तो उन्होंने सर्फ एक फार्म नहीं अपनें सपनों का एक पूरा प्राकृतिक संसार ही बस डाला है। यहीं से उपजने वाले शुद्ध अनाज न सब्जियों का वे सेवन करते हैं और अपना पूरा जीवन उन्होंने उस फार्म के लिए ही समर्पित कर दिया है।

अगर हम कबीर की बात करें तो, कबीर का बचपन खेतों में ही गुजर है। वे खतों में ही बड़े हुए। कबीर को हम दूसरी पीढ़ी का किसान कहें तो गलत नहीं होगा। उनके माता-पिता, जुली करियप्पा और विवेक करियप्पा करीब तीन दशकों से आर्गेनिक खेती का अभ्यास कर रहे थे। वहीं अपने माता-पिता द्वारा कबीर को भी घर में ही शिक्षा मिली। कबीर ने बचपन से ही सिर्फ ओर्गानिक खेती को ही देखा और उन्हें किसी दूसरे खेती के बारे में कभी पता भी नहीं चला। 

 दूसरी तरफ अगर अंजली की बात जी जाए तो अंजली शुरू से ही शहरी परिवेश में रहीं। उन्होनें हैदराबाद से प्रवंधन में ग्रेजुएशन किया और उसके बाद न्यूआर्क से मास्टर्स की डिग्री हासिल की है। इसके अलावा वे न्यूआर्क में ही करीब एक दसक तक फाइनासियल सर्विस के क्षेत्र में काम भी कर चुकी हैं। पर धीरे-धीरे उनका प्रकृति की ओर रुझान बढ़ता गया और कारपोरेट क्षेत्र को उन्होनें अलविदा कहने का मन बना लिया। 2010 में उन्होंने नौकरी छोड़ दी और देश वापस लौट आयीं। उन्होनें अपने परिवार के साथ एक छोटे पैमाने पर जैविक खेती की शुरुआत की। अंजली के लिए शुरूआत में यह कठिन था क्योंकि उन्हें इसका कोई अनुभव नहीं था। अंजलि पूरे भारत में  विशेष रूप से भारत के कई 'ग्रामीण' भागों में गई। वहां उन्होनें खुदको बहुत सहज व प्रसन्न महसूस किया।  

उसके बाद दोनों नें मिलकर इस फार्म की स्थापना की। एक शहर की तुलना में यहाँ रहने के लिए सुरक्षित व सम्पन्न वातावरण है। यहाँ उन्होनें गांव से लोगों को ओर्गानिक फार्मिंग सिखाई व ग्रामीणों को काम पर भी रखा। कबीर और अंजली ने लगभग सात अन्य लोगों की मदद से 50 एकड़ खेत का प्रबंधन किया है।यहाँ वे हर यह चीज़ विकसित करने की कोशिश करते हैं जो उन्हें चाहिए और रोजमर्रा के जीवन में वे उपभोग करते हैं। साथ ही वे कुछ ऐसे चीजें का भी उत्पादन करते हैं जिसकी बाजार में अच्छी डिमांड ही। ये सारे फसल सब्जियां वे पूर्ण रूप से प्राकृतिक वातावरण वे व आर्गेनिक तरिके से उगते हैं। जिसकी गुणवत्ता का कोई जवाब नहीं होता। 

 खेत में उगाई गई फसलों की में मुख्यरूप से गन्ना, कपास, तेल जिसमे सरसों, तिल,सूरजमुखी और मूंगफली शामिल हैं, इसके अलावा रागी, बाजरा, ज्वार, फोक्साटेल, चावल और गेहूं जैसे अनाज शामिल हैं। दालों में सभी प्रकार के दाल मूंग,मसूर,अरहर इत्यादि व मसालों में  हल्दी, अदरक, मिर्च, धनिया, मेथी, और सरसों जैसे मसाले शामिल हैं। इसके अलावा उनके फार्म में एक से एक ताजी व ऑर्गेनिक फलों-सब्जियों का उत्पादन होता है।  




उन्हें अपनें फार्म से सारी चीजें मुहैया हो जाती है जिसकी उन्हें जरूरत होती है। उन्हें बाजार से मात्र नमक, पास्ता, सर्फ-साबुन व ईंधन ही खरीदना पड़ता है। इसके अलावा उनके यररोवे फार्म से हर सप्ताह ताजी फल सब्जियों को पास के शहर मैसूर व बंगलुरु के बाज़ारों में भेजा जाता है।



कहानी पर आप अपनी प्रतिक्रिया नीचे कमेंट बॉक्स में अवश्य दें और इस पोस्ट को ज्यादा से ज्यादा शेयर करें

Tuesday, May 19, 2020

अपने ज़बरदस्त कारोबारी आइडिया से 2 साल में ही 100 करोड़ बनाने वाले तनुज और कनिका



पिछले कुछ वर्षों से रियल एस्टेट कारोबार में एक बड़ी कारोबारी संभावना दिखी है। और इसी वजह से निवेशकों ने कई मिलियन डॉलर का निवेश ऑनलाइन रियल एस्टेट कारोबार में किया है। सूचना प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल कर हमारे देश के कई युवाओं ने स्टार्टअप के लिए इस क्षेत्र को चुना है। हालांकि कुछ स्टार्टअप अपने उत्पादों और विपणन रणनीतियों के जरिए आम जनता का ध्यान आकर्षित करने में सफल रहे, वहीं एक बेहतर व्यापार मॉडल और स्थिर राजस्व पैदा करने में कई स्टार्टअप अब भी जूझ ही रही है।




निजी जिंदगी में आई परेशानियों को खत्म करने के लिए कुछ लोग ऐसे उपाय ढूंढ निकालते हैं जो औरों के लिए वरदान साबित हो जाता है। साल 2013 में तनुज शॉरी और कनिका गुप्ता ने अपनी खुद की समस्याओं को खत्म करने के उद्देश्य से ‘स्क्वायर यार्ड्स’ नामक एक रियल एस्टेट सलाहकार फर्म शुरू करने का फैसला किया जो भारतीय रियल एस्टेट में इच्छुक एनआरआई को निवेश करने के लिए प्रोत्साहित करती है। तीन लोगों के साथ एक छोटे से कमरे में शुरू हुई यह कंपनी 1000 से अधिक लोगों का संगठन बनते हुए 9 से अधिक देशों में विस्तार कर आज इस सेगमेंट में सबसे बड़ी कंपनी है।

आइडिया इतना दमदार था कि कंपनी एक साल के भीतर ही तीन बड़ी कंपनियों का अधिग्रहण करते हुए करोड़ों रूपये का सालाना टर्नओवर करनी शुरू कर दी। रेवेन्यू, मुनाफ़ा और बाजार हिस्सेदारी इन तीन चीजों पर फोकस करते हुए कंपनी 22 महीने में ही 100 करोड़ के क्लब में शामिल हो गई। इस क्षेत्र में भारत में अपार कारोबारी संभावना को देखते हुए तनुज और कनिका ने शीर्ष 10 भारतीय शहरों के रियल एस्टेट बाज़ार पर व्यापक शोध किया और फिर इसे एनआरआई समुदाय के साथ साझा करने का निश्चय किया। जब एनआरआई द्वारा मांग में वृद्धि को देखा, तो कंपनी ने शीर्ष मेट्रो शहरों में कार्यालयों की स्थापना कर देश के शीर्ष डेवलपर्स के साथ साझेदारी कर भारत में तेजी से विस्तार शुरू किया।

कंपनी अगले एक साल में 15 भारतीय शहरों और सिंगापुर, दुबई, लंदन जैसे शहरों में भी अपनी उपस्थिति स्थापित करने में सफल रही और एनआरआई के बीच अपनी पैठ जमा ली। 

 कंपनी ने टेक्नोलॉजी का सही इस्तेमाल कर वितरण प्लेटफार्मों की पेशकश करने के लिए तकनीकी क्षमताओं का भी निर्माण किया, जिससे खरीद-फरोख्त की प्रक्रिया बेहद आसान हो गई। आपको यह जानकर हैरानी होगी कि आज स्क्वायर यार्ड प्रति माह लगभग 1,000 से अधिक लेन-देन करता है, जिसका सालाना रेवेन्यू दर 25 मिलियन डॉलर के पार है। वर्तमान में कंपनी भारत के प्रमुख शहरों सहित 10 देशों के 32 शहरों में फैली हुई है।  


हालांकि इतने कम समय में एक स्टार्टअप को मल्टी मिलियन कंपनी में तब्दील करना आसान नहीं था तनुज बताते हैं कि कई डेवलपर्स जो जिनके साथ हमारी साझेदारी थी, समय पर निर्माण कार्य पूरा करने में विफल रहे और इस वजह से ग्राहकों के साथ विवाद भी हुए। इन मुद्दों को हल करने के लिए, हमने डेवलपर द्वारा पेनाल्टी देने जैसी चीजों को विकसित किया। इससे ग्राहकों का हमारे प्रति विश्वास बढ़ा और हम आज यहाँ खड़े हैं। 

 आज भी कंपनी मूल रूप से उद्यमशीलता की भावना और नवीन अवधारणाओं द्वारा संचालित है जो कि एक ठोस रेवेन्यू मॉडल को सबसे ज्यादा महत्वता देती है और हमेशा कुछ नया करते हुए इस क्षेत्र की अग्रणी कंपनियों में शुमार कर रहा है। 







 कहानी पर आप अपनी प्रतिक्रिया नीचे कमेंट बॉक्स में दे सकते हैं और इस पोस्ट को शेयर अवश्य करें  

Friday, May 15, 2020

चाय-नास्ता बेच कर करोड़ों रुपये बनाने वाले इस व्यक्ति ने साबित किया कोई आइडिया छोटा नहीं होता !

यह कहानी दिल्ली के एक ऐसे युवा की है जिसने सबसे अलग कुछ नया करने की कोशिश की। आपको यकीं नहीं होगा इस शख्स की एक मामूली सी सोच ने इन्हें आज करोड़ो रूपये की कंपनी का मालिक बना दिया। इनका आइडिया इतना दमदार था कि चार सालों के भीतर इनकी कंपनी ने दो लाख महीने की आमदनी से 50 लाख महीने की आमदनी तक का सफ़र तय कर लिया। 

 जी हाँ, नई दिल्ली के रॉबिन झा ने सचमुच अपनी कंपनी के ज़रिये एक प्याली चाय में तूफान सा समा कर रख दिया है। इनके कंपनी की चौंकाने वाली सफ़लता के पीछे उनका चाय और नाश्ते का कारोबार है।  



आप सोच रहे होंगे की यह सड़क के किनारे कोई चाय के ठेले चलाने वाले की बात हो रही है पर आप गलत सोच रहे हैं; क्योंकि यह कोई मामूली से चाय के व्यापारी नहीं हैं। रॉबिन झा टी-पॉट के सीईओ हैं, जिनकी स्टार्ट-अप श्रृंखला पूरे दिल्ली एनसीआर क्षेत्र में फैली हुई है।

पेशे से एक चार्टर्ड अकाउंटेंट और विलय व अधिग्रहण  कंपनी  ‘एर्न्स्ट एंड यंग’ के साथ काम करने वाले रॉबिन ने कभी नहीं सोचा था कि वह इस तरह का अनोखा और बढ़ने वाला काम करेंगे।


रॉबिन ने साल 2013 में अपने नौकरी से बचाये पूंजी के 20 लाख रुपये से इसकी शुरुआत करी। उन्होंने अपने दोस्त अतीत कुमार और असद खान, जो खुद भी चार्टर्ड अकाउंटेंट हैं, के साथ मिलकर दिल्ली के मालवीय नगर में एक चाय आउटलेट खोली। और कुछ ही दिनों में अप्रैल 2012 में अपने बिज़नेस को बड़ा करने के उद्येश से इन्होंने शिवंत एग्रो फूड्स नाम की एक प्राइवेट लिमिटेड कंपनी की स्थापना की। 



 अपने दोस्तों के साथ विचार मंथन के बाद अपने व्यापार के लिए उन्होंने चाय के साथ ही आगे बढ़ने का फैसला किया।इनके पिता नरेंद्र झा जो बैंक मैनेजर है और माँ रंजना दोनों ही इनके इस बिज़नेस के खिलाफ थे और इसकी सफलता के प्रति आशंकित भी थे, लेकिन रॉबिन की दृढ-इच्छाशक्ति के आगे उन्हें भी झुकना पड़ा।  

अपने आईडिया के साथ आगे बढ़ते हुए इन्होंने बहुत सारे कैफ़े मार्किट के बारे में जानकारी हासिल की और उनकी मांग और आपूर्ति के बारे में भी खोजबीन की शुरू कर दी। इससे यह पता चला कि 85-90 फीसदी भारतीय केवल चाय ही पीते हैं और यही उनके बिज़नेस का आधार बना। टीपॉट एक ऐसा चाय का प्याला है जिसके साथ बहुत तरीके के नाश्ते शामिल हैं। 

 अपने अनुभव का इस्तेमाल कर रॉबिन ने चाय बागानों और दिल्ली के विभिन्न कैफ़े में चाय के विशेषज्ञों को ढूंढा। और आखिर में टी पॉट का जन्म मालवीय नगर के मेन मार्किट में स्थित एक 800 स्क्वायर फ़ीट के शॉप में हुआ। शुरुआत में केवल 10 लोग काम करने वाले थे और 25 तरह की चाय और कुछ जलपान के विकल्प रखे गए।  


रॉबिन अपने आगे के प्लान को सुधारने के लिए उपभोक्ताओं के विचार टेबलेट और पेपर के जरिये लिया करते थे। यह काम इन्होंने मालवीय नगर के अपने आउटलेट में पहले के तीन महीनों में किया। निष्कर्षों से पता चला कि उनके यहाँ जो ग्राहक आते हैं वह 25 से 35 साल की आयु वाले ज्यादा होते हैं और ऑफिस में काम करने वाले। यह सब समझ में आने पर रॉबिन ने ऑफिस के आसपास ज्यादा ध्यान देना शुरू किया। इसी क्रम में उन्होंने अपना पहला ऑफिस आउटलेट 2014 में आईबीबो में खोला जो कि गुरुग्राम की एक बड़ी ऑनलाइन ट्रेवल कंपनी है। 

 आज टीपॉट के 21 आउटलेट हैं जिसमे आधे तो दिल्ली एनसीआर के ऑफिस एरिया में हैं जैसे वर्ल्ड ट्रेड टावर, नोएडा और के.जी.मार्ग में और बाकी  मार्किट, मेट्रो स्टेशन, इन्द्रा गाँधी इंटरनेशनल एयर पोर्ट में स्थित है। आज रॉबिन के टीपॉट में लगभग 6 दर्जन वर्गीकृत चाय की 100 से अधिक सारणी की सेवा दी जाती है। जैसे -ब्लैक टी, ओलोंग, ग्रीन, वाइट, हर्बल और फ्लेवर्ड।  

इतना ही नहीं टीपॉट ने आसाम और दार्जीलिंग के पांच चाय के बागानों से टाई -अप भी किया है। टीपॉट आज देश की एक अग्रणी चाय-नाश्ता की कंपनी है जिसमे थाई, इटालियन और कॉन्टिनेंटल नाश्ते परोसे जाते हैं। इसके साथ-साथ कुकीज़, मफिन्स, सँडविचेस, वडा-पाव, कीमा पाव, रैप्स आदि सर्व किये जाते हैं। 



 अपनी सफलता का राज बताते हुए रॉबिन कहते हैं हम अपने ग्राहकों को समझते हैं, अपनी गुणवत्ता पर हमेशा पूरा ध्यान रखते हैं और हमारा लॉन्ग टर्म विज़न है 

रॉबिन अपने टीपॉट की आईडिया के साथ साल 2020 तक 10 बड़े शहरों में लगभग 200 आउटलेट खोलने के लिए तैयार हैं। 

 रॉबिन के सफ़लता का सफ़र यह प्रेरणा देती है कि कोई भी आइडिया छोटा या बड़ा नहीं होता। बस हमें पूरी दृढ़ता के साथ अपने आइडिया पर काम करने की जरुरत है।





 इस कहानी पर आप अपनी प्रतिक्रिया नीचे कमेंट बॉक्स में दे सकते हैं और इस पोस्ट को शेयर अवश्य करें  

गरीबी के चलते नहीं बन पाए डॉक्टर, आज इनकी ₹25,000 करोड़ की फार्मा कंपनी में बड़े-बड़े डॉक्टर करते हैं काम



कहते हैं कि अगर व्यक्ति सच्चे मन से कुछ भी करने की ठान ले तो दुनिया की कोई भी ताकत उसे अपनी मंजिल तक पहुँचने से नहीं रोक सकती। आज हम एक ऐसे ही सफल व्यक्ति की कहानी लेकर आए हैं जिन्होंने देश के एक ऐसे राज्य से शुरुआत कर पूरी दुनिया में अपनी कामयाबी का डंका बजाया, जहाँ उस दौर में शिक्षा जैसी कई मूलभूत व्यवस्थाओं का अभाव था। एक किसान परिवार में जन्में इस व्यक्ति ने बचपन से ही डॉक्टर बनने का सपना देखा था लेकिन गरीबी और अभावों की वजह से इन्हें अपने सपने का त्याग करना पड़ा। पटना में एक छोटे से दवाई की दुकान से शुरुआत कर 30 से ज्यादा देशों में अपना कारोबार फैलाते हुए इस व्यक्ति की गिनती देश के दिग्गज उद्योगपति के रुप में हमेशा के लिए अमर हो गयी। 



संप्रदा सिंह आज हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनकी सफलता पीढ़ी-दर-पीढ़ी लिए प्रेरणा रहेगी। एल्केम लेबोरेटरीज नाम की एक बहुराष्ट्रीय फार्मा कंपनी की आधारशिला रखने वाले संप्रदा सिंह की गिनती देश के सबसे प्रभावशाली फार्मास्युटिकल उद्यमी के रूप में होती है। हममें से ज्यादातर लोग उन्हें भले ही नहीं जानते होंगे लेकिन आपकी जानकारी के लिए बताना चाहते हैं कि इनके अभूतपूर्व सफलता की खातिर इन्हें फार्मा उद्योग के आॅस्कर के समकक्ष एक्सप्रेस फार्मा एक्सीलेंस अवाॅर्ड से भी नवाजा गया है।

लेकिन हमेशा ऊँची सोच रखने वाले संप्रदा सिंह ने सोचा कि जब शून्य से शुरुआत कर एक सफल डिस्ट्रिब्यूशन फर्म बनाई जा सकती है तो फिर क्यों न हम अपनी ही एक फार्मा ब्रांड बाजार में उतारें। इसी सोच के साथ एक दवा निर्माता बनने का संकल्प लेकर उन्होंने मुंबई का रुख किया। मुंबई पहुँच साल 1973 में उन्होंने ‘एल्केम लेबोरेटरीज’ नाम से खुद की दवा बनाने वाली कंपनी खोली। शुरूआती पूंजी कम होने की वजह से प्रारंभिक पांच साल उन्हें बेहद संघर्ष करना पड़ा। साल 1989 में टर्निंग पाइंट आया, जब एल्केम लैब ने एक एंटी बायोटिक कंफोटेक्सिम का जेनेरिक वर्जन टैक्सिम बनाने में सफलता हासिल की। 

 दरअसल इसकी इन्वेंटर कंपनी मेरिओन रूसेल (अब सेनोफी एवेंटिस) ने एल्केम को बहुत छोटा प्रतिस्पर्धी मानकर गंभीरता से नहीं लिया था। फ्रेंच बहुराष्ट्रीय कंपनी से यह सबसे बड़ी चूक हुई और किफायती मूल्य के कारण टैक्सिम ने मार्केट में वर्चस्व कायम कर लिया। इस वर्चस्व ने फार्मा क्षेत्र में एल्केम लेबोरेटरीज को एक नई पहचान दिलाई।  


एल्केम लेबोरेटरीज आज फार्मास्युटिकल्स और न्यूट्रास्युटिकल्स बनाती है। 30 देशों में अपने कारोबार का विस्तार करते हुए आज विश्व के फार्मा सेक्टर में इसकी पहचान है। साल 2017 में फोर्ब्स इंडिया ने 100 टॉप भारतीय धनकुबेरों की सूची में संप्रदा सिंह को 52वां क्रम प्रदान किया था। इतना ही नहीं 2.8 बिलियन डाॅलर (करीबन ₹19,000 करोड़) निजी संपदा के धनी संप्रदा सिंह यह दर्जा हासिल करने वाले पहले बिहारी उद्यमी हैं।


साल 2019 में सम्प्रदा सिंह हमारे बीच नहीं रहे, लेकिन उन्होंने सफलता का जो साम्राज्य फैलाया वह वाक़ई में प्रेरणा से भरे हैं। वर्तमान में अल्केम की बागडोर उनके भाई और बेटे के हाथों में है।  



 संप्रदा सिंह की सफलता से यह सीख मिलती है कि जज़्बे के सामने उम्र को भी झुकना पड़ता है। यदि दृढ़-इच्छाशक्ति और मजबूत इरादों के साथ आगे बढ़ें तो सफलता एक-न-एक दिन अवश्य दस्तक देगी। 






 आप अपनी प्रतिक्रिया नीचे कमेंट बॉक्स में दे सकते हैं और इस पोस्ट को शेयर अवश्य करें