Wednesday, May 20, 2020

शहर की चकाचौंध छोड़ जैविक खेती के जरिये सफलता हासिल करने वाले दंपति की कहानी !!



आज के आधुनिक युग में जहाँ लोग आरामदायक और सुख-सुविधाओं भारी ज़िन्दगी जीने के लिए लालायित रहते हैं। ज्यादातर पति -पत्नी की चाहती होती है कि वे एक आधुनिक जीवन जीयें, जहां उन्हें सब कुछ उंगलियों के इशारे पर मिल जाये। शायद ही कुछ लोग होंगे जो अब भी गांव के जीवन को पसंद करते हैं और पारंपरिक जीवन बिताने की कल्पना करते हैं। गांव के पारंपरिक जीवन में जो शांति और सुद्धता है वह शहरों के भाग-दौड़ और प्रदूषण भारी ज़िन्दगी में कभी प्राप्त नहीं हो सकता है। 

 पर धीरे-धीरे कुछ युवाओं में शौकिया खेती की का क्रेज अब बढ़ने लगा है। लोग अब गांव के परिवेश में रहनें व प्राकृतिक जीवन जीने की पहल कर रहे हैं। बहुत सारे लोग हैं जो शहर के अव्यवस्था से तंग आकर , प्रकृति के करीब, ग्रामीण इलाको मे रहने के लिए इच्छुक हैं। और इस तरह के प्रयासों से दूसरों के लिए भी एक प्रेरणादायक उदाहरण पेश हो रहा है।  



आज हम एक ऐसे युगल की बात करने जा रहे हैं जिन्होंने शहरों की चकाचौंध भारी जिंदगी को अलविदा कह दिया और गांव में रहनें की ठानी है। इनका नाम है अंजलि रुद्राराजु करियप्पा और कबीर करियप्पा । इन दोनों नें अपनें शहर के जीवन को छोड़ गांव में रहनें व वहां रहकर ऑर्गेनिक व पारंपरिक खेती कर प्राकृतिक रूप से जीवन जीने की एक पहल शुरू की। दोनों मिलकर फिलहाल कर्नाटका के मैसूर शहर के निकट कोटे तालुका के हलासुरु गाँव में एक बहुत बड़े फार्म को स्थापित किया है। इस फार्म का नाम है "यररोवे फार्म"। एक तरह से देखा जाए तो उन्होंने सर्फ एक फार्म नहीं अपनें सपनों का एक पूरा प्राकृतिक संसार ही बस डाला है। यहीं से उपजने वाले शुद्ध अनाज न सब्जियों का वे सेवन करते हैं और अपना पूरा जीवन उन्होंने उस फार्म के लिए ही समर्पित कर दिया है।

अगर हम कबीर की बात करें तो, कबीर का बचपन खेतों में ही गुजर है। वे खतों में ही बड़े हुए। कबीर को हम दूसरी पीढ़ी का किसान कहें तो गलत नहीं होगा। उनके माता-पिता, जुली करियप्पा और विवेक करियप्पा करीब तीन दशकों से आर्गेनिक खेती का अभ्यास कर रहे थे। वहीं अपने माता-पिता द्वारा कबीर को भी घर में ही शिक्षा मिली। कबीर ने बचपन से ही सिर्फ ओर्गानिक खेती को ही देखा और उन्हें किसी दूसरे खेती के बारे में कभी पता भी नहीं चला। 

 दूसरी तरफ अगर अंजली की बात जी जाए तो अंजली शुरू से ही शहरी परिवेश में रहीं। उन्होनें हैदराबाद से प्रवंधन में ग्रेजुएशन किया और उसके बाद न्यूआर्क से मास्टर्स की डिग्री हासिल की है। इसके अलावा वे न्यूआर्क में ही करीब एक दसक तक फाइनासियल सर्विस के क्षेत्र में काम भी कर चुकी हैं। पर धीरे-धीरे उनका प्रकृति की ओर रुझान बढ़ता गया और कारपोरेट क्षेत्र को उन्होनें अलविदा कहने का मन बना लिया। 2010 में उन्होंने नौकरी छोड़ दी और देश वापस लौट आयीं। उन्होनें अपने परिवार के साथ एक छोटे पैमाने पर जैविक खेती की शुरुआत की। अंजली के लिए शुरूआत में यह कठिन था क्योंकि उन्हें इसका कोई अनुभव नहीं था। अंजलि पूरे भारत में  विशेष रूप से भारत के कई 'ग्रामीण' भागों में गई। वहां उन्होनें खुदको बहुत सहज व प्रसन्न महसूस किया।  

उसके बाद दोनों नें मिलकर इस फार्म की स्थापना की। एक शहर की तुलना में यहाँ रहने के लिए सुरक्षित व सम्पन्न वातावरण है। यहाँ उन्होनें गांव से लोगों को ओर्गानिक फार्मिंग सिखाई व ग्रामीणों को काम पर भी रखा। कबीर और अंजली ने लगभग सात अन्य लोगों की मदद से 50 एकड़ खेत का प्रबंधन किया है।यहाँ वे हर यह चीज़ विकसित करने की कोशिश करते हैं जो उन्हें चाहिए और रोजमर्रा के जीवन में वे उपभोग करते हैं। साथ ही वे कुछ ऐसे चीजें का भी उत्पादन करते हैं जिसकी बाजार में अच्छी डिमांड ही। ये सारे फसल सब्जियां वे पूर्ण रूप से प्राकृतिक वातावरण वे व आर्गेनिक तरिके से उगते हैं। जिसकी गुणवत्ता का कोई जवाब नहीं होता। 

 खेत में उगाई गई फसलों की में मुख्यरूप से गन्ना, कपास, तेल जिसमे सरसों, तिल,सूरजमुखी और मूंगफली शामिल हैं, इसके अलावा रागी, बाजरा, ज्वार, फोक्साटेल, चावल और गेहूं जैसे अनाज शामिल हैं। दालों में सभी प्रकार के दाल मूंग,मसूर,अरहर इत्यादि व मसालों में  हल्दी, अदरक, मिर्च, धनिया, मेथी, और सरसों जैसे मसाले शामिल हैं। इसके अलावा उनके फार्म में एक से एक ताजी व ऑर्गेनिक फलों-सब्जियों का उत्पादन होता है।  




उन्हें अपनें फार्म से सारी चीजें मुहैया हो जाती है जिसकी उन्हें जरूरत होती है। उन्हें बाजार से मात्र नमक, पास्ता, सर्फ-साबुन व ईंधन ही खरीदना पड़ता है। इसके अलावा उनके यररोवे फार्म से हर सप्ताह ताजी फल सब्जियों को पास के शहर मैसूर व बंगलुरु के बाज़ारों में भेजा जाता है।



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Tuesday, May 19, 2020

अपने ज़बरदस्त कारोबारी आइडिया से 2 साल में ही 100 करोड़ बनाने वाले तनुज और कनिका



पिछले कुछ वर्षों से रियल एस्टेट कारोबार में एक बड़ी कारोबारी संभावना दिखी है। और इसी वजह से निवेशकों ने कई मिलियन डॉलर का निवेश ऑनलाइन रियल एस्टेट कारोबार में किया है। सूचना प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल कर हमारे देश के कई युवाओं ने स्टार्टअप के लिए इस क्षेत्र को चुना है। हालांकि कुछ स्टार्टअप अपने उत्पादों और विपणन रणनीतियों के जरिए आम जनता का ध्यान आकर्षित करने में सफल रहे, वहीं एक बेहतर व्यापार मॉडल और स्थिर राजस्व पैदा करने में कई स्टार्टअप अब भी जूझ ही रही है।




निजी जिंदगी में आई परेशानियों को खत्म करने के लिए कुछ लोग ऐसे उपाय ढूंढ निकालते हैं जो औरों के लिए वरदान साबित हो जाता है। साल 2013 में तनुज शॉरी और कनिका गुप्ता ने अपनी खुद की समस्याओं को खत्म करने के उद्देश्य से ‘स्क्वायर यार्ड्स’ नामक एक रियल एस्टेट सलाहकार फर्म शुरू करने का फैसला किया जो भारतीय रियल एस्टेट में इच्छुक एनआरआई को निवेश करने के लिए प्रोत्साहित करती है। तीन लोगों के साथ एक छोटे से कमरे में शुरू हुई यह कंपनी 1000 से अधिक लोगों का संगठन बनते हुए 9 से अधिक देशों में विस्तार कर आज इस सेगमेंट में सबसे बड़ी कंपनी है।

आइडिया इतना दमदार था कि कंपनी एक साल के भीतर ही तीन बड़ी कंपनियों का अधिग्रहण करते हुए करोड़ों रूपये का सालाना टर्नओवर करनी शुरू कर दी। रेवेन्यू, मुनाफ़ा और बाजार हिस्सेदारी इन तीन चीजों पर फोकस करते हुए कंपनी 22 महीने में ही 100 करोड़ के क्लब में शामिल हो गई। इस क्षेत्र में भारत में अपार कारोबारी संभावना को देखते हुए तनुज और कनिका ने शीर्ष 10 भारतीय शहरों के रियल एस्टेट बाज़ार पर व्यापक शोध किया और फिर इसे एनआरआई समुदाय के साथ साझा करने का निश्चय किया। जब एनआरआई द्वारा मांग में वृद्धि को देखा, तो कंपनी ने शीर्ष मेट्रो शहरों में कार्यालयों की स्थापना कर देश के शीर्ष डेवलपर्स के साथ साझेदारी कर भारत में तेजी से विस्तार शुरू किया।

कंपनी अगले एक साल में 15 भारतीय शहरों और सिंगापुर, दुबई, लंदन जैसे शहरों में भी अपनी उपस्थिति स्थापित करने में सफल रही और एनआरआई के बीच अपनी पैठ जमा ली। 

 कंपनी ने टेक्नोलॉजी का सही इस्तेमाल कर वितरण प्लेटफार्मों की पेशकश करने के लिए तकनीकी क्षमताओं का भी निर्माण किया, जिससे खरीद-फरोख्त की प्रक्रिया बेहद आसान हो गई। आपको यह जानकर हैरानी होगी कि आज स्क्वायर यार्ड प्रति माह लगभग 1,000 से अधिक लेन-देन करता है, जिसका सालाना रेवेन्यू दर 25 मिलियन डॉलर के पार है। वर्तमान में कंपनी भारत के प्रमुख शहरों सहित 10 देशों के 32 शहरों में फैली हुई है।  


हालांकि इतने कम समय में एक स्टार्टअप को मल्टी मिलियन कंपनी में तब्दील करना आसान नहीं था तनुज बताते हैं कि कई डेवलपर्स जो जिनके साथ हमारी साझेदारी थी, समय पर निर्माण कार्य पूरा करने में विफल रहे और इस वजह से ग्राहकों के साथ विवाद भी हुए। इन मुद्दों को हल करने के लिए, हमने डेवलपर द्वारा पेनाल्टी देने जैसी चीजों को विकसित किया। इससे ग्राहकों का हमारे प्रति विश्वास बढ़ा और हम आज यहाँ खड़े हैं। 

 आज भी कंपनी मूल रूप से उद्यमशीलता की भावना और नवीन अवधारणाओं द्वारा संचालित है जो कि एक ठोस रेवेन्यू मॉडल को सबसे ज्यादा महत्वता देती है और हमेशा कुछ नया करते हुए इस क्षेत्र की अग्रणी कंपनियों में शुमार कर रहा है। 







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Friday, May 15, 2020

चाय-नास्ता बेच कर करोड़ों रुपये बनाने वाले इस व्यक्ति ने साबित किया कोई आइडिया छोटा नहीं होता !

यह कहानी दिल्ली के एक ऐसे युवा की है जिसने सबसे अलग कुछ नया करने की कोशिश की। आपको यकीं नहीं होगा इस शख्स की एक मामूली सी सोच ने इन्हें आज करोड़ो रूपये की कंपनी का मालिक बना दिया। इनका आइडिया इतना दमदार था कि चार सालों के भीतर इनकी कंपनी ने दो लाख महीने की आमदनी से 50 लाख महीने की आमदनी तक का सफ़र तय कर लिया। 

 जी हाँ, नई दिल्ली के रॉबिन झा ने सचमुच अपनी कंपनी के ज़रिये एक प्याली चाय में तूफान सा समा कर रख दिया है। इनके कंपनी की चौंकाने वाली सफ़लता के पीछे उनका चाय और नाश्ते का कारोबार है।  



आप सोच रहे होंगे की यह सड़क के किनारे कोई चाय के ठेले चलाने वाले की बात हो रही है पर आप गलत सोच रहे हैं; क्योंकि यह कोई मामूली से चाय के व्यापारी नहीं हैं। रॉबिन झा टी-पॉट के सीईओ हैं, जिनकी स्टार्ट-अप श्रृंखला पूरे दिल्ली एनसीआर क्षेत्र में फैली हुई है।

पेशे से एक चार्टर्ड अकाउंटेंट और विलय व अधिग्रहण  कंपनी  ‘एर्न्स्ट एंड यंग’ के साथ काम करने वाले रॉबिन ने कभी नहीं सोचा था कि वह इस तरह का अनोखा और बढ़ने वाला काम करेंगे।


रॉबिन ने साल 2013 में अपने नौकरी से बचाये पूंजी के 20 लाख रुपये से इसकी शुरुआत करी। उन्होंने अपने दोस्त अतीत कुमार और असद खान, जो खुद भी चार्टर्ड अकाउंटेंट हैं, के साथ मिलकर दिल्ली के मालवीय नगर में एक चाय आउटलेट खोली। और कुछ ही दिनों में अप्रैल 2012 में अपने बिज़नेस को बड़ा करने के उद्येश से इन्होंने शिवंत एग्रो फूड्स नाम की एक प्राइवेट लिमिटेड कंपनी की स्थापना की। 



 अपने दोस्तों के साथ विचार मंथन के बाद अपने व्यापार के लिए उन्होंने चाय के साथ ही आगे बढ़ने का फैसला किया।इनके पिता नरेंद्र झा जो बैंक मैनेजर है और माँ रंजना दोनों ही इनके इस बिज़नेस के खिलाफ थे और इसकी सफलता के प्रति आशंकित भी थे, लेकिन रॉबिन की दृढ-इच्छाशक्ति के आगे उन्हें भी झुकना पड़ा।  

अपने आईडिया के साथ आगे बढ़ते हुए इन्होंने बहुत सारे कैफ़े मार्किट के बारे में जानकारी हासिल की और उनकी मांग और आपूर्ति के बारे में भी खोजबीन की शुरू कर दी। इससे यह पता चला कि 85-90 फीसदी भारतीय केवल चाय ही पीते हैं और यही उनके बिज़नेस का आधार बना। टीपॉट एक ऐसा चाय का प्याला है जिसके साथ बहुत तरीके के नाश्ते शामिल हैं। 

 अपने अनुभव का इस्तेमाल कर रॉबिन ने चाय बागानों और दिल्ली के विभिन्न कैफ़े में चाय के विशेषज्ञों को ढूंढा। और आखिर में टी पॉट का जन्म मालवीय नगर के मेन मार्किट में स्थित एक 800 स्क्वायर फ़ीट के शॉप में हुआ। शुरुआत में केवल 10 लोग काम करने वाले थे और 25 तरह की चाय और कुछ जलपान के विकल्प रखे गए।  


रॉबिन अपने आगे के प्लान को सुधारने के लिए उपभोक्ताओं के विचार टेबलेट और पेपर के जरिये लिया करते थे। यह काम इन्होंने मालवीय नगर के अपने आउटलेट में पहले के तीन महीनों में किया। निष्कर्षों से पता चला कि उनके यहाँ जो ग्राहक आते हैं वह 25 से 35 साल की आयु वाले ज्यादा होते हैं और ऑफिस में काम करने वाले। यह सब समझ में आने पर रॉबिन ने ऑफिस के आसपास ज्यादा ध्यान देना शुरू किया। इसी क्रम में उन्होंने अपना पहला ऑफिस आउटलेट 2014 में आईबीबो में खोला जो कि गुरुग्राम की एक बड़ी ऑनलाइन ट्रेवल कंपनी है। 

 आज टीपॉट के 21 आउटलेट हैं जिसमे आधे तो दिल्ली एनसीआर के ऑफिस एरिया में हैं जैसे वर्ल्ड ट्रेड टावर, नोएडा और के.जी.मार्ग में और बाकी  मार्किट, मेट्रो स्टेशन, इन्द्रा गाँधी इंटरनेशनल एयर पोर्ट में स्थित है। आज रॉबिन के टीपॉट में लगभग 6 दर्जन वर्गीकृत चाय की 100 से अधिक सारणी की सेवा दी जाती है। जैसे -ब्लैक टी, ओलोंग, ग्रीन, वाइट, हर्बल और फ्लेवर्ड।  

इतना ही नहीं टीपॉट ने आसाम और दार्जीलिंग के पांच चाय के बागानों से टाई -अप भी किया है। टीपॉट आज देश की एक अग्रणी चाय-नाश्ता की कंपनी है जिसमे थाई, इटालियन और कॉन्टिनेंटल नाश्ते परोसे जाते हैं। इसके साथ-साथ कुकीज़, मफिन्स, सँडविचेस, वडा-पाव, कीमा पाव, रैप्स आदि सर्व किये जाते हैं। 



 अपनी सफलता का राज बताते हुए रॉबिन कहते हैं हम अपने ग्राहकों को समझते हैं, अपनी गुणवत्ता पर हमेशा पूरा ध्यान रखते हैं और हमारा लॉन्ग टर्म विज़न है 

रॉबिन अपने टीपॉट की आईडिया के साथ साल 2020 तक 10 बड़े शहरों में लगभग 200 आउटलेट खोलने के लिए तैयार हैं। 

 रॉबिन के सफ़लता का सफ़र यह प्रेरणा देती है कि कोई भी आइडिया छोटा या बड़ा नहीं होता। बस हमें पूरी दृढ़ता के साथ अपने आइडिया पर काम करने की जरुरत है।





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गरीबी के चलते नहीं बन पाए डॉक्टर, आज इनकी ₹25,000 करोड़ की फार्मा कंपनी में बड़े-बड़े डॉक्टर करते हैं काम



कहते हैं कि अगर व्यक्ति सच्चे मन से कुछ भी करने की ठान ले तो दुनिया की कोई भी ताकत उसे अपनी मंजिल तक पहुँचने से नहीं रोक सकती। आज हम एक ऐसे ही सफल व्यक्ति की कहानी लेकर आए हैं जिन्होंने देश के एक ऐसे राज्य से शुरुआत कर पूरी दुनिया में अपनी कामयाबी का डंका बजाया, जहाँ उस दौर में शिक्षा जैसी कई मूलभूत व्यवस्थाओं का अभाव था। एक किसान परिवार में जन्में इस व्यक्ति ने बचपन से ही डॉक्टर बनने का सपना देखा था लेकिन गरीबी और अभावों की वजह से इन्हें अपने सपने का त्याग करना पड़ा। पटना में एक छोटे से दवाई की दुकान से शुरुआत कर 30 से ज्यादा देशों में अपना कारोबार फैलाते हुए इस व्यक्ति की गिनती देश के दिग्गज उद्योगपति के रुप में हमेशा के लिए अमर हो गयी। 



संप्रदा सिंह आज हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनकी सफलता पीढ़ी-दर-पीढ़ी लिए प्रेरणा रहेगी। एल्केम लेबोरेटरीज नाम की एक बहुराष्ट्रीय फार्मा कंपनी की आधारशिला रखने वाले संप्रदा सिंह की गिनती देश के सबसे प्रभावशाली फार्मास्युटिकल उद्यमी के रूप में होती है। हममें से ज्यादातर लोग उन्हें भले ही नहीं जानते होंगे लेकिन आपकी जानकारी के लिए बताना चाहते हैं कि इनके अभूतपूर्व सफलता की खातिर इन्हें फार्मा उद्योग के आॅस्कर के समकक्ष एक्सप्रेस फार्मा एक्सीलेंस अवाॅर्ड से भी नवाजा गया है।

लेकिन हमेशा ऊँची सोच रखने वाले संप्रदा सिंह ने सोचा कि जब शून्य से शुरुआत कर एक सफल डिस्ट्रिब्यूशन फर्म बनाई जा सकती है तो फिर क्यों न हम अपनी ही एक फार्मा ब्रांड बाजार में उतारें। इसी सोच के साथ एक दवा निर्माता बनने का संकल्प लेकर उन्होंने मुंबई का रुख किया। मुंबई पहुँच साल 1973 में उन्होंने ‘एल्केम लेबोरेटरीज’ नाम से खुद की दवा बनाने वाली कंपनी खोली। शुरूआती पूंजी कम होने की वजह से प्रारंभिक पांच साल उन्हें बेहद संघर्ष करना पड़ा। साल 1989 में टर्निंग पाइंट आया, जब एल्केम लैब ने एक एंटी बायोटिक कंफोटेक्सिम का जेनेरिक वर्जन टैक्सिम बनाने में सफलता हासिल की। 

 दरअसल इसकी इन्वेंटर कंपनी मेरिओन रूसेल (अब सेनोफी एवेंटिस) ने एल्केम को बहुत छोटा प्रतिस्पर्धी मानकर गंभीरता से नहीं लिया था। फ्रेंच बहुराष्ट्रीय कंपनी से यह सबसे बड़ी चूक हुई और किफायती मूल्य के कारण टैक्सिम ने मार्केट में वर्चस्व कायम कर लिया। इस वर्चस्व ने फार्मा क्षेत्र में एल्केम लेबोरेटरीज को एक नई पहचान दिलाई।  


एल्केम लेबोरेटरीज आज फार्मास्युटिकल्स और न्यूट्रास्युटिकल्स बनाती है। 30 देशों में अपने कारोबार का विस्तार करते हुए आज विश्व के फार्मा सेक्टर में इसकी पहचान है। साल 2017 में फोर्ब्स इंडिया ने 100 टॉप भारतीय धनकुबेरों की सूची में संप्रदा सिंह को 52वां क्रम प्रदान किया था। इतना ही नहीं 2.8 बिलियन डाॅलर (करीबन ₹19,000 करोड़) निजी संपदा के धनी संप्रदा सिंह यह दर्जा हासिल करने वाले पहले बिहारी उद्यमी हैं।


साल 2019 में सम्प्रदा सिंह हमारे बीच नहीं रहे, लेकिन उन्होंने सफलता का जो साम्राज्य फैलाया वह वाक़ई में प्रेरणा से भरे हैं। वर्तमान में अल्केम की बागडोर उनके भाई और बेटे के हाथों में है।  



 संप्रदा सिंह की सफलता से यह सीख मिलती है कि जज़्बे के सामने उम्र को भी झुकना पड़ता है। यदि दृढ़-इच्छाशक्ति और मजबूत इरादों के साथ आगे बढ़ें तो सफलता एक-न-एक दिन अवश्य दस्तक देगी। 






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मात्र 5 हज़ार रुपये, लेकिन आइडिया कमाल का था, सालाना 360 करोड़ की हो रही है कमाई


गम हो या खुशी के पल हो फूल हर अंदाज को बयां करने का सबसे आसान और खुबसूरत जरिया होते हैं। ताजे फूलों में खुशी को दोगुना और गम को हल्का करने की ताकत होती है। इन्हीं फूलों के छोटे से गुलदस्ते में कारोबारी संभावनाओं को देखा बिहार के विकास गुटगुटिया ने। महज 5 हज़ार रुपये की रकम से शुरुआत कर देश के फ्लोरिकल्चर इंडस्ट्री में क्रांति लाते हुए अंतराष्ट्रीय स्तर की एक नामचीन ब्रांड स्थापित करने वाले विकास आज हजारों लोगों के लिए प्रेरणास्रोत हैं। 



 कायदे से देखें तो भारत की फ्लोरिकल्चर इंडस्ट्री की सालाना कुल ग्रोथ 30 फीसदी की रफ्तार से भी तेज हो रही है। वहीं इंडस्ट्री बॉडी एसोचैम की माने तो आने वाले कुछ वर्षों में इस इंडस्ट्री का मार्केट कैप 10,000 करोड़ रुपये तक पहुंच जाएगी। ऐसे स्थिति में इस क्षेत्र में कारोबार की बड़ी संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता।  

आज हम बात कर रहे हैं एक छोटे फ्लोरिस्ट से अंतरराष्ट्रीय बाजार में  पहचान बना चुके बड़े ब्रांड फर्न्स एन पेटल्स की आधारशिला रखने वाले विकास गुटगुटिया की सफलता के बारे में। पूर्वी बिहार के एक छोटे से गांव विद्यासागर में एक मध्यम-वर्गीय परिवार में जन्मे विकास ने स्कूली शिक्षा प्राप्त करने के बाद ग्रेजुएशन की पढ़ाई पश्चिम बंगाल से की। पढ़ाई के दौरान विकास अपने चाचा के फूलों की दुकान पर मदद भी किया करते थे और यहीं से उन्होंने व्यापार करने की बारीकियों को सीखा।

 पढ़ाई खत्म होने के बाद दो साल उन्होंने मुंबई व दिल्ली में रोजगार व व्यापार की संभावना खोजी और फिर साल 1994 में 5 हजार रूपये की शुरूआती पूंजी से साउथ एक्सटेंशन दिल्ली में पहली बार फूलों की एयर कंडीशन शॉप खोली। हालांकि उस दौर में देश के भीतर फूलों से संबंधित व्यापार में ज्यादा तरक्की के आसार नहीं थे लेकिन फिर भी विकास ने अपना सफ़र जारी रखा। संयोग से उन्हें एक भागीदार मिल गया जिसने इस बिजनेस में 2.5 लाख रुपए निवेश किए। भागीदारी लंबी नहीं चली और 9 साल तक उन्हें मुनाफ़े का इंतजार करना पड़ा। इस दौरान फूलों का निर्यात करके उन्होंने रिटेलिंग को किसी तरह जारी रखी।

  इस असंगठित सेक्टर में जितने भी फ्लोरिस्ट मौजूद थे उनसे हटकर बेहतर सर्विस, फूलों की वेराइटी और आकर्षक फूलों की सजावट पर विकास ने जोर दिया। और विकास का गुणवत्ता पर ज्यादा ध्यान देने की उनकी कोशिश कामयाब हुई। इसी दौरान ताज पैलेस होटल में एक भव्य शादी के लिए उन्हें फूलों की सप्लाय का ऑर्डर मिला और इस तरह बिज़नेस के एक नए रास्ते खुले। साथ ही विकास ने कारोबार में नयापन लाने हेतु फुलों के गुलदस्ते के अलावा फुलों के साथ चॉकलेट्स, सॉफ्ट टॉइज, केक्स, गिफ्ट हैंपर्स जैसे प्रोडक्ट के साथ अपनी रेंज बढ़ाते गये।

करीबन 7 साल तक कारोबार को चलाने के बाद उन्होंने अपने रिटेल व्यापार को देशव्यापी बनाने की योजना बनाई और फर्न्स एन पेटल्स बुटीक्स की फ्रेंचाइजी देना शुरू किया। फ्रेंचाइजी के लिए उन्होंने 10-12 लाख रुपये के निवेश और शोरूम के लिए 200-300 वर्गफीट की जगह का न्यूनतम मापदंड रखा। इस निवेश में कंपनी ब्रैंड नेम, इंफ्रास्ट्रक्चरल सपोर्ट, डिजाइन और तकनीकी जानकारियां, फूलों के सजावट की ट्रेनिंग के साथ स्टोर चलाने के लिए लगने वाली इंवेटरीज जैसे फूल, एक्सेसरीज और गिफ्ट आइटम मुहैया करवाती है।



आज फर्न्स एन पेटल्स की चेन्नई, बैंगलोर, दिल्ली, मुंबई, कोयंबटूर, आगरा, इलाहाबाद सहित देश के 93 शहरों में 240 फ्रेंचाइज स्टोर फैली हुई है। इतना ही नहीं फर्न्स एन पेटल्स आज भारत में सबसे बड़ा फूल और उपहार खरीदने वाली श्रृंखला है जिसका सालाना टर्नओवर 360 करोड़ के पार है। आज यह सिर्फ भारत में ही कारोबार नहीं कर रही बल्कि एक वैश्विक ब्रांड बन चुकी है।   

 फूलों के संगठित रिटेल व्यापार में सबसे बड़े उद्यमी के रूप में जाना जाने वाले विकास की सफलता से हमें काफी कुछ सीखने को मिलता है। विकास जब फूलों का कारोबार शुरू किये थे तो उन्होंने कभी नहीं सोचा था कि एक दिन वे देश के सफल कारोबारियों की सूची में शुमार करेंगें। अपने आइडिया के साथ आगे बढ़ते हुए उन्होंने हमेशा कुछ नया करने को सोचा और सफल हुए।  





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20 हजार रूपये से शुरुआत कर 8,800 करोड़ के एक प्रसिद्ध ब्रांड को बनाने वाले दो दोस्तों की कहानी


आमतौर पर पैसे की बर्बादी और किसी के बहकने के लिए दोस्ती को ही जिम्मेदार ठहराया जाता रहा है। लेकिन यह एक ऐसी दोस्ती की कहानी है, जो आज औरों के लिए मिसाल बन चुकी है। यह दो पहली पीढ़ी के उद्यमियों की कहानी है, जिन्होंने अपनी दोस्ती को बखूबी निभाते हुए अनोखा कीर्तिमान स्थापित किया है।  बचपन से दोस्ती में जो एक-दूसरे का हाथ उन्होंने थामा था, 8,800 करोड़  साम्राज्य खड़ा होने के बाद भी वह साथ क़ायम है। एक सा ही नाम लिए ये दो लड़के स्कूल में जिगरी दोस्त बने, साथ-साथ पढ़ाई की, खेल में भी उत्कृष्ट प्रदर्शन किया और बाद में बिज़नेस में भी एक साथ ऊँची छलांग लगाई।


नाम के साथ-साथ इनकी सोच और सपने भी एक से ही थे। राधे श्याम अग्रवाल और राधे श्याम गोयनका ने कॉसमेटिक मार्किट को अपना पहला बिज़नेस बनाया। दोनों कॉलेज अटेंड करने के साथ-साथ अपना बहुत सारा समय कास्मेटिक के केमिकल फार्मूला जानने के लिए सेकंड हैण्ड बुक की शॉप में गुजारा करते थे। इसके साथ वे दोनों सस्ते गोंद और कार्डबोर्ड से बोर्ड गेम बनाते, ईसबगोल और टूथब्रश की रिपैकेजिंग करते और कोलकाता के बड़ा-बाजार में दुकान-दुकान जाकर बेचा करते थे।



  तीन सालों की लगातार कोशिशों के बावजूद इन्हें कास्मेटिक बिज़नेस में सफलता नहीं मिल पा रही थी। इन दोनों के संघर्ष को देखकर गोयनका के पिता ने इन्हें 20,000 रुपये हाथ में दिए और दोनों दोस्तों ने यह तय किया कि बिज़नेस में 50-50 की भागीदारी रहेगी। तब उन्होंने केमको केमिकल्स की शुरुआत की पर उन्हें यहाँ भी सफलता नहीं मिली।

 उनके अपने निजी जीवन में एक बड़ा बदलाव आया। अग्रवाल और गोयनका की शादी हो गई। अब उनके ऊपर आर्थिक दबाव और जिम्मेदारी और भी बढ़ गई और दोनों बिज़नेस के नए अवसर तलाशने लगे। इसी बीच उन्हें बिरला ग्रुप में अच्छी आमदनी पर नौकरी लग गई। पांच सालों तक उन्होंने वहाँ नौकरी की और बिज़नेस के गुर सीखे। तजुर्बे हासिल करने के बाद इन्होंने नौकरी छोड़ने का निश्चय किया।




भारतीय मध्यम वर्ग को नजर में रखकर इन्होंने इमामी नाम की वैनिशिंग क्रीम बाजार में उतारा। इमामी नाम का कोई मतलब नहीं था पर सुनने में यह इटालियन साउंड करता था। उन्होंने सोचा की इससे भारतीय ग्राहक प्रभावित होंगे और ऐसा हुआ भी। उन्होंने बाजार की बहुत जानकारी ली और जाना कि जो टेलकम पाउडर टिन के बॉक्स में मिलता है वह बहुत ही साधारण लगता है तब इन्होंने एक बहुत बड़ा दांव खेला। टेलकम पाउडर को एक प्लास्टिक के कंटेनर में बहुत ही खूबसूरती से पैक कर और उसमें गोल्डन लेबलिंग कर एक पॉश और विदेशी लुक दिया।

 और फिर इस उत्पाद ने उड़ान भरना शुरू कर दिया। इसकी मांग दिनों-दिन बढ़ती चली गई और इसमें पाउडर इंडस्ट्री के शहंशाह पोंड्स को भी पीछे छोड़ दिया। सफलता का यह पहला स्वाद अग्रवाल और गोयनका ने चखा था। उनके नए-नए प्रयोग और ग्राहकों के साथ सीधे संपर्क उनकी ताकत बन गई थी।  



अपने अगले कदम में इन्होंने एक मल्टीपर्पस एंटीसेप्टिक ब्यूटी क्रीम बोरोप्लस को 1984 में बाजार में लाया। और इसने इन्हें बाजार का लीडर बना दिया और यह लगभग 500 करोड़ का ब्रांड बन गया। इमामी ब्रांडिंग में जोरों के साथ खर्च कर रहा था। 1983 में राजेश खन्ना अभिनीत फिल्म “अगर तुम न होते” में राजेश खन्ना को इमामी का मैनेजिंग डाइरेक्टर की भूमिका में दिखाया गया था। और इसके लिए रेखा ने मॉडलिंग की थी। यह रणनीति भारतीयों के मन में इमामी को एक नए मक़ाम पर ला कर रख दिया। इसके बाद इन्होंने ठंडा और आयुर्वेदिक नवरत्न तेल मार्केट में लेकर आये जिसने तीन साल के भीतर ही 600 करोड़ का प्रॉफिट दिला दिया। फिर उनका अगला कदम पुरुषों के लिए पहली बार फेयरनेस क्रीम का था जो बहुत ही सफल रहा।


बहुत से अभिनेता जैसे अमिताभ बच्चन, श्रीदेवी, शाहरुख खान, ज़ीनत अमान, करीना कपूर, कंगना रनौत और बहुत से खिलाड़ी  जैसे सानिया मिर्जा, सुशील कुमार, मिल्खा सिंह, मैरी कॉम और सौरभ गांगुली ने इनके उत्पाद का प्रचार किया है। अग्रवाल और गोयनका को पता था कि सेलिब्रटी के समर्थन से वह पूरे देश भर में एक घरेलू नाम बन जाएंगे।




 यह उनकी लगन और सफलता की प्यास ही है जो आज इमामी का टर्न-ओवर 8,800 करोड़ से भी ज्यादा का है।अग्रवाल और गोयनका की दोस्ती आज के युग के लिए एक मिसाल की तरह पेश है। उनकी दोस्ती भरोसे, हिम्मत और बुलंद हौसलों की आंच में तप कर इमामी के रूप में कुंदन हो गई है। यह दोस्ताना दोनों परिवारों के बीच दूसरी पीढ़ी के बीच भी क़ायम है।  




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घर-घर सामान डिलीवरी के आइडिया ने इन्हें बना दिया 7000 करोड़ की कंपनी का मालिक


प्रत्येक व्यक्ति की अभिलाषा होती है कि वह जो भी कार्य करे वह उसकी रुचि के अनुरूप हो तथा उसमें उसे सफलता मिले। हाल के कुछ वर्षों में भारत के युवा पीढ़ी से कई उद्यमी उभर कर आये हैं। इन युवाओं ने किसी कंपनी में काम करने की बजाय, खुद की कंपनी शुरू कर औरों के लिए रोजगार मुहैया में दिलचस्पी दिखाते हुए सफलता की नई कहानियां लिख डाली। आज की कहानी भी एक ऐसे ही युवा उद्यमी की है, जिन्होंने अमेरिका में मोटी तनख्वाह की नौकरी छोड़ स्वदेश लौटने का निश्चय किया और तकनीक का इस्तेमाल कर एक ऐसे कंपनी की आधारशिला रखी जिसकी सच में जरुरत थी। और आज ये देश के एक सफल आईटी कारोबारी हैं जिनका बिज़नेस कई करोड़ों में है। 

यह कहानी है देश की प्रमुख डिलिवरी स्टार्टअप ग्रोफर्स डॉट कॉम के संस्थापक अलबिंदर ढींढसा की। पंजाब के पटियाला में एक मध्यम-वर्गीय परिवार में पले-बढ़े अलबिंदर ने अपनी स्कूली शिक्षा प्राप्त करने के बाद आईआईटी की परीक्षा पास की। सफलतापूर्वक आईआईटी दिल्ली से इंजीनियरिंग की डिग्री लेने के बाद इन्होंने अपने कैरियर की शुरुआत करते हुए 2005 में अमेरिका के यूआरएस कॉर्पोरेशन में ट्रांसपोर्टेशन एनालिस्ट के तौर पर नौकरी कर ली। कुछ समय तक नौकरी करने के बाद उन्होंने एमबीए की पढ़ाई कर भारत लौट आये। यहां उन्होंने जोमैटो डॉट कॉम के साथ करियर की नई शुरुआत की। कॉलेज के दिनों से ही अपना खुद का स्टार्टअप शुरू करने में विश्वास रखने वाले अलबिंदर ने नौकरी के साथ-साथ बिज़नेस की संभावनाएं भी तलाश रहे थे। अमेरिका में नौकरी करते हुए उन्होंने डिलिवरी इंडस्ट्री में एक बड़े गैप को भांपा। उन्होंने देखा कि हाइपर-लोकल स्पेस में खरीददार और दुकानदार के बीच होने वाला लेन-देन बहुत ही जटिल और अव्यवस्थित था। उन्हें इस क्षेत्र में एक बड़े बिज़नेस का अवसर दिखा।

इसी दौरान उनकी मुलाकात उनके एक मित्र सौरभ कुमार से हुई। उन्होंने इस गैप की चर्चा सौरभ से की तो दोनों को महसूस हुआ कि इसमें बिजनेस का एक बड़ा अवसर है जिसे हाथ से नहीं जाने देना चाहिए। दोनों ने मिलकर इस आइडिया के पीछे रिसर्च करने शुरू कर दिए। इसी कड़ी में इन्होंने स्थानीय फार्मेसी कारोबारी से बातचीत के दौरान पाया कि वे तीन से चार किलोमीटर के क्षेत्र में राेजाना 50-60 होम डिलिवरी करते हैं।
आधारिक संरचना के अभाव में डिलीवरी सिस्टम उस वक़्त एक बड़ी समस्या के रूप में उभर रही थी। इन्होंने बिना कोई वक़्त गवायें एक ऐसा प्लेटफॉर्म बनाने का निर्णय लिया जो दुकानदार के साथ-साथ खरीददार के लिए भी फायदेमंद हो और मार्केट के गैप को भी कम कर सके। और इसी सोच के साथ ‘वन नंबर’ की शुरुआत हुई।

 इन्होंने घर के नजदीकी इलाके में स्थित फार्मेसी, ग्रोसरी और रेस्टोरेंट से कस्टमर के लिए ऑन-डिमांड पिक-अप और ड्रॉप की सेवा प्रदान करते हुए शुरुआत की। कुछ महीनों तक काम करने के दौरान इन्होंने पाया कि कुल ऑडर्स का 90 प्रतिशत हिस्सा ग्रोसरी और फार्मेसी से आ रहा था। फिर इन्होंने इन्ही दो सेक्टर्स पर फोकस करते हुए अपने मॉडल में बदलाव किया तथा कंपनी को ग्रोफर्स के नाम से रीब्रांड भी किया।   

ग्रोफर्स आज वेबसाइट और मोबाइल एप के जरिए ग्राहकों को ऑनलाइन आर्डर करने की सुविधा प्रदान करती है। इतना ही नहीं प्रतिदिन के रोजमर्रा की चीजों को महज़ कुछ ही घंटों में उनके घर पर डिलीवरी करवा देती। बेंगलुरु, चेन्नई, दिल्ली, कोलकाता समेत सभी बड़े शहरों में यह प्रतिदिन बीस हज़ार से भी ज्यादा ग्राहकों को सेवा प्रदान करते हुए देश की सबसे बड़ी डिलीवरी स्टार्टअप है। 



इतना ही नहीं आज कंपनी की वैल्यूएशन 1 बिलियन डॉलर अर्थात 7000 करोड़ के पार है। 1000 से ज्यादा लोगों को रोजगार के अवसर प्रदान कर अलबिंदर ने नई पीढ़ी के युवाओं के लिए मिसाल पेश की है। इस सफलता को देख हमें यह सीख मिलती है कि किसी के यहाँ रोजगार करने के बजाय खुद के आइडिया पर काम करते हुए यदि आगे बढ़े तो आने वाले वक़्त में हम भी दूसरे को रोजगार के अवसर प्रदान कर सकेंगे।  



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