Saturday, March 13, 2021

हर रोज सोने से पहले दूध में सौंफ मिलाकर पिएंगे तो मिलेंगे ये गजब के फायदे

 

सौंफ में फाइबर और भी कई पोषक तत्व पाए जाते हैं जो पेट के लिए काफी फायदेमंद होते हैं। आपको बता दें कि दूध के साथ सौंफ लेने से शरीर को कई फायदे पहुंचते हैं। इसी बीच आज हम आपको दूध के साथ सौंफ लेने के फायदे बताने जा रहे हैं।

हर भारतीय घर में सौंफ पाया जाता है। इसे खाने में तो यूज किया जाता ही है। इसके साथ ही यह दवा के रूप में भी इस्तेमाल किया जाता है। आपको बता दें कि सौंफ में फाइबर और भी कई पोषक तत्व पाए जाते हैं जो पेट के लिए काफी फायदेमंद होते हैं। आपको बता दें कि दूध के साथ सौंफ लेने से शरीर को कई फायदे पहुंचते हैं। इसी बीच आज हम आपको दूध के साथ सौंफ लेने के फायदे बताने जा रहे हैं। तो आइए जानते हैं इसके फायदे के बारे में।

यह हैं फायदे

- सौंफ में एस्ट्रैगल और एनेथोल की वजह से पेट से जुड़ी बीमारियों से छुटकारा दिलवाने में मदद करते हैं। मसालेदार खाने से होने वाली एस‍िड‍िटी और सूजन को कम करने में सौंफ प्रभावी रूप से काम करती है।

सौंफ में फाइबर काफी ज्यादा होता है। ऐसे में इसके सेवन से आपको भूख नहीं लगती है। यह आपके मेटाबॉलिज्म को बढ़ाता है। इसे खाने से आपकी भूख कंट्रोल में रहती है।

सौंफ में एसेंशियल ऑयल और फाइबर जैसे पोषक तत्व मौजूद होते हैं, जो बॉडी से विषाक्त पदार्थों को बाहर निकालने में मदद करते हैं, जो ब्लड प्यूरीफायर में भी मददगार साबित होते हैं।

आंखों की रोशनी बढ़ाने में मदद करता है। इसके सेवन से कमजोर या धुंधली आंख की समस्या दूर होती है। सौंफ के नियमित रूप से सेवन करने से आंखों की रोशनी तेज होती है।


Thursday, October 8, 2020

हर महीने 6700 करोड़ की कमाई कर रहे हैं यह शख़्स, एक प्रोडक्ट ने बदल दी इनकी जिंदगी

 सभी नए इंटरप्रेन्योर यह प्रयास करते हैं कि उद्यम पूँजी के द्वारा ही अपनी ताकत को बढ़ाये और आगे की सफलता  सुनिश्चित करे। पर कुछ ऐसे भी होते हैं जिनकी सोच बिलकुल भिन्न होती है और आगे बढ़ने के लिए वे एक अलग ही रास्ता चुनते हैं। जमीं से ऊपर उठकर सबसे तेजी से बढ़ने वाली, बिलियन डॉलर कंपनी का गठन भी कर लेते हैं वो भी बिना किसी पूँजी निवेश के।


हम बात कर रहे हैं श्रीधर वेम्बू की, जो फाउंडर और सीईओ हैं एडवेंट नेट के। आज यह कंपनी प्रति माह 1 मिलियन डॉलर अर्थात् 6700 करोड़ का प्रॉफिट दे रही है। एडवेंट नेट ने अभी हाल में ही एक नया प्रोडक्टिविटी सुइट शुरू किया है जिसका नाम जोहो है और यह सॉफ्टवेयर इंडस्ट्री में एक क्रांतिकारी शुरुआत है।


श्रीधर वेम्बू का  बचपन चेन्नई के एक मामूली से मध्यम-वर्गीय परिवार में बीता। उन्होंने अपनी शुरुआत की पढ़ाई तमिल मीडियम गवर्नमेंट स्कूल से किया। वे पढ़ाई में बहुत ही अच्छे थे, और बाद में उन्होंने आई.आई.टी मद्रास से अपनी पढ़ाई पूरी की। उनकी इच्छा इलेक्ट्रॉनिक्स में पढ़ाई करने की थी पर उन्होंने कंप्यूटर साइंस से पढ़ाई पूरी की।



वेम्बू अपने इंस्टिट्यूट में पी एच डी के लिए योग्य नहीं थे इसलिए उन्होंने 1989 में  प्रिंसटन यूनिवर्सिटी से इलेक्ट्रिकल इंजिनीरिंग में अपनी डॉक्टरेट की पढ़ाई पूरी की। पीएचडी की पढ़ाई के बाद अपने यूएस बेस्ड भाई के साथ भारत लौट आये और यहाँ उन्होंने सॉफ्टवेयर वेंचर एडवेंट नेट की शुरुआत की। कुछ महीनों बाद ही उनके 150 कस्टमर बन गए, परंतु साल 2000 में उनके सामने बहुत सारी परेशानियां आई और उन्होंने यह तय किया कि अब कुछ नया और क्रांतिकारी बदलाव लाना है।

उनके इसी क्रांतिकारी बदलाव के तहत जोहो का जन्म हुआ। जोहो इंटरनेट के जरिये जोहो ऑफिस सुइट बेच रही है। जिनसे उन्हें 500 मिलियन डॉलर का राजस्व प्राप्त हुआ। जोहो अपनी सफलता से सेल्सफोर्स की कस्टमर रिलेशन मैनेजमेंट सॉफ्टवेयर और गूगल डॉक्स को टक्कर देने शुरु कर दिए।

जोहो अभी एक लाख से ज्यादा सफल कारोबारियों को अपनी सेवाएं दे रही है और इसके 18 मिलियन उपयोग करने वाले हैं। इतना ही नहीं जोहो छोटी कंपनियों को कस्टमर रिलेशनशिप मैनेजमेंट की सेवा मुफ्त में प्रदान कर रही है और बड़ी कंपनियों के लिए भी इसके लिए महीने में केवल 10 डॉलर का ही खर्च आता है।

इस भारतीय इंटरप्रेन्योर ने बहुत ही कम समय में इतनी कीर्ति और सफलता हासिल कर ली है, परंतु उन्हें सेल्सफोर्स के फाउंडर मार्क बेनिऑफ, जो एक जाने माने अमेरिकन इंटरप्रेन्योर हैं, ने धमकाया और जोहो को खरीदने की कोशिश की; पर वे सफल नहीं हो सके।



“मार्क ने कहा कि गूगल एक दानव और  इसके साथ आप मुकाबला भी नहीं कर सकते  है। तब मैंने कहा कि उसे गूगल से डरने की जरुरत है,  मुझे तो जिन्दा रहने के लिए सिर्फ सेल्सफोर्स से अच्छा करने की जरूरत है”।


वेम्बू का यह विचार है कि सभी स्टार्टअप को बिना किसी फंडिंग के अपना बिज़नेस करना चाहिए। वे कहते हैं कि सभी को सीखना चाहिए कि कैसे बेहतर सर्विस दिया जाए कि कस्टमर्स दाम चुकाने पर विवश हो जाये। मुग़ल माइक मोरिट्ज़ जैसी बहुत बड़ी-बड़ी कंपनियों ने उनके फर्म में इन्वेस्ट करने की पेशकश की, परंतु यह वेम्बू को इसे स्वीकार नहीं था। इसके अलावा वेम्बू ने अपनी कंपनी के लिए हायर डिग्री वाले जैसे आईआईटी या आईआईएम के लोगों को जॉब नहीं दी बल्कि वे हमेशा ऐसे नवयुवक पेशेवरों को चुना करते थे जिन्हें दूसरों ने रिजेक्ट कर दिया।


हम कॉलेज की डिग्री या ग्रेड नहीं देखते। क्योंकि भारत के सभी व्यक्ति ऊँचे आर्थिक स्तर से नहीं आते और न ही उन्हें टॉप रैंक के इंजीनियरिंग कॉलेज में पढ़ने का मौका मिल पाता है। परन्तु कुछ सच में बहुत क्षमतावान होते हैं।”


श्रीधर वेम्बू आज जिस स्थिति में हैं, नए इंटरप्रेन्योर के लिए वह सपना सा है। उनकी असाधारण उपलब्धियां सभी के लिए प्रेरणा देने वाली है। श्रीधर वेम्बू उत्कृष्ठता का जीता-जागता उदाहरण हैं जो पैसे के पीछे नहीं भागते पैसा ही उनके पीछे भागता है।   

उन्होंने एक ऐसे क्षेत्र में कामयाबी का झंडा गाड़ा, जहाँ सिर्फ और सिर्फ विदेशी कंपनियों का बोलबाला था। वैश्विक मंच पर कांटे की टक्कर देते हुए एक नामचीन ब्रांड बनाने वाले इन व्यक्तिओं में ही भारत को आर्थिक महाशक्ति बनाने की असली ताकत है।


Wednesday, May 27, 2020

सब्जी बेच कर शिक्षा पूरी करने वाले यह व्यक्ति आज चला रहे हैं 500 करोड़ टर्नओवर की कंपनी !!



यह कहानी एक ऐसे इंसान की है जिसे बचपन से ही अत्यंत गरीबी का सामना करना पड़ा। आर्थिक तंगी के चलते इस शख्स ने सब्जी बेचकर व कई जगह मजदूरी करके काफी मुश्किल से रुपए जुटाए। जिंदगी में गरीबी और अभाव से ही प्रेरणा लेते हुए इस शख्स ने अपने अंदर कुछ बड़ा करने की चाह पैदा की और अपने पढ़ाई को जारी रखा। इनकी मेहनत सफल हुई और आज ये 500 करोड़ रूपये की सलाना टर्न ओवर करने वाली कंपनी के मालिक हैं। 

 गुजरात के अहमद नगर जिले के एक छोटे से गांव अकोला में एक बेहद ही गरीब परिवार में पैदा लिए नितिन गोडसे की कारोबारी सफ़लता बेहद प्रेरणादायक है। नितिन के पिता एक प्राइवेट कंपनी में सेल्समैन थे और उनकी मासिक आय काफी कम थी। किसी तरह घर का दाना-पानी चल रहा था।

तीन भाई-बहन में सबसे बड़े होने की वजह से परिवार पर हो रहे आर्थिक दबाव को कम करने के लिए इन्होनें एक स्थानीय दुकान पर सेल्समैन के रूप में काम करना शुरू कर दिया। साथ ही साथ अपनी पढ़ाई भी जारी रखा। 

 अपनी स्कूली शिक्षा पूरी करने के बाद, उनकी वित्तीय स्थिति ने उन्हें इंजीनियरिंग का अध्ययन करने की अनुमति नहीं दी, तो अंत में उन्होंने बीएससी करने का फैसला किया और 1992 में पुणे विश्वविद्यालय में दाखिला लिया। ग्रेजुएशन करने के बाद उन्हें एक कंपनी में सुपरवाइजर की नौकरी मिली।


हालांकि, कुछ दिन काम करने के बाद नितिन ने आगे के विकास के लिए एक अच्छी शिक्षा की जरूरत महसूस की। समय की एक छोटी सी अवधि में शीर्ष प्रबंधकीय पद को प्राप्त करने के उद्येश्य से उन्होंने एमबीए करने का फैसला किया। एमबीए के बाद उन्हें एक एग्रो बेस्ड कंपनी में जॉब मिली। यह कंपनी ताजी सब्जियों को साफ-सुथरे ढंग से पैक करके बाजार में बेचती थी। एक किसान परिवार से आने वाले नितिन इस तरह के व्यापार के प्रति आकर्षित हुए और अंत में ख़ुद का एक ऐसा ही कारोबार शुरू करने का निर्णय लिया। 

 एक दोस्त से 5 लाख रुपये उधार लेकर नितिन ने सब्जियों का बिजनेस शुरू किया।नितिन प्रतिदिन सुबह 3.30 बजे उठ जाते और सब्जियों से भरे ठेले को बाज़ार ले जाकर बेचा करते। लेकिन इस व्यवसाय से उन्हें कुछ खास लाभ नहीं प्राप्त हो सके और मजबूरन इसे बंद करना पड़ा। उसके बाद ख़ुद के पेट भरने के लिए एक गैस कंपनी में मार्केटिंग मैनेजर की नौकरी करने लगे।


फिर नितिन ने तीन साल काम करके फंड इकट्ठा किया और 1996 में गैस हैंडलिंग सिस्टम, सिलेंडर ट्रॉली, गैस कैबिनेट बनाने की कंपनी शुरू की। अपने इस भावी प्रोजेक्ट को नितिन ने नाम दिया “एक्सेल गैस और उपकरण प्राइवेट लिमिटेड”। 



 यूँ कहे तो नाममात्र के निवेश से शुरू की गई यह कंपनी आज लगभग 500 करोड़ रुपये का सलाना टर्न ओवर कर रही है। इतना ही नहीं आज इस कंपनी में करीब 150 से ज्यादा स्थायी कर्मचारी है, जबकि बार्क, सिपला, आईआईएसआर व रिलायंस जैसी कंपनियां इनकी ग्राहक हैं।



 दिल से एक किसान नितिन ने जिंदगी में तमाम मुश्किलों के बावजूद अपने अंदर मानव मूल्यों और तेजी से विकास होने की एक स्थिर गति को बनाए रखा। फलस्वरूप उन्हें इतनी शानदार कामयाबी मिली।   









आप अपनी प्रतिक्रिया नीचे कमेंट बॉक्स में दे सकते हैं और इस पोस्ट को शेयर अवश्य करें

40 रुपये महीने की कमाई से 32 करोड़ का बिज़नेस-एम्पायर खड़ा करने वाले कृष्ण कुमार की कहानी !!



पिता की मृत्यु के बाद इस सत्रह वर्षीय लड़के के लिए जीने का ही प्रश्न उठ खड़ा हो गया था। उनके पास केवल उनकी माता की मौजूदगी का मानसिक संबल ही था और ऊपर थी बड़ी जिम्मेदारी। दो वक्त का खाना और घर के किराये के लिए उन्हें अपने हाई स्कूल की पढ़ाई बीच में ही छोड़नी पड़ी। उनकी शुरुआत शून्य से हुई और आज उनकी कंपनी का वार्षिक टर्न-ओवर 32 करोड़ रूपये का है। आज वे BMW  गाड़ियों में बैठते हैं और आलीशान बंगले में रहते हैं। यह उस व्यक्ति की अविश्वसनीय कहानी है जिन्होंने अपना करियर मात्र चालीस रूपये प्रति महीने की पगार से शुरू किया और अपने कभी हार न मानने वाले रवैये की वजह से धीरे-धीरे सफलता की सीढ़ी चढ़ने लगे। 



चेन्नई के कृष्ण कुमार ने बहुत ही छोटी सी नौकरी से शुरुआत करने के बाद बहुत सारी अलग-अलग छोटी-छोटी नौकरियां भी की। उन्हें 40 रुपये महीने की तनख्वाह वाली एक पार्ट-टाइम टाइपिस्ट की नौकरी मिली पर यह उनके घर के किराये के लिए भी पर्याप्त नहीं था। उस नौकरी को उन्होंने जल्द ही छोड़ दिया। बिना कॉलेज डिग्री के उन्हें आगे का जीवन कठिन लगने लगा। अपनी माता के साथ घर चलाने के लिए उन्होंने एक अकॉउंटेंट की नौकरी की और साथ ही साथ एक हॉस्पिटल में पार्ट टाइम नौकरी भी करने लगे। 

कृष्ण कुमार ने बताया था कि;  
“एक नौकरी में मंगलवार को छुट्टी मिलती थी और दूसरी में रविवार को। इसलिए मैं वास्तव में बिना किसी छुट्टी के हफ्ते और महीने काम करता रहता था।”


घर का खर्च उठाने के लिए वे एक लेदर एक्सपोर्ट कंपनी में 300 रुपये की तनख्वाह पर काम करने लगे और इसके साथ हॉस्पिटल में भी काम कर रहे थे। उसके बाद उन्होंने चार साल तक भारतीय रेलवे में काम किया और फिर एक कोल्ड ड्रिंक कंपनी में भी। अंत में उन्होंने ब्लू-डार्ट में 900 रूपये की तनख्वाह पर भी काम किया और यहीं से उन्हें लॉजिस्टिक बिज़नेस के गुर सीखने के मौके मिले। 


 कृष्ण कुमार ने कंपनी के लिए सब कुछ किया और 1990 में उन्हें नौकरी के एक साल बाद ही सेल्स मैनेजर के रूप में पदोन्नति मिल गई। शादी और बच्चों के बाद उनकी जिम्मेदारी और भी बढ़ गई। कड़ी मेहनत और बिज़नेस स्किल की बदौलत अपनी सारी पूंजी लगा कर इन्होंने अपनी खुद की कंपनी खोल ली। परन्तु उनके भाग्य ने उनका साथ नहीं दिया और हर्षद मेहता स्कैम के कारण सारा मार्केट क्रैश हो गया। उनकी स्थिति और भी ख़राब हो गई। एक बार वे कॉफ़ी पीने एक रेस्टोरेंट गए, वहाँ उन्हें एक कप कॉफ़ी के लिए छह रूपये अदा करनी थी। और उनके पास देने के लिए सिर्फ पांच ही रूपये थे। असफलताओं के एक के बाद एक झटकों के बावजूद भी उन्होंने अपने जज़्बे को टूटने नहीं दिया।  


अपने बचत के 8,000 रुपये से उन्होंने एक लॉजिस्टिक कंपनी खोली जिसका नाम एवन सोलूशन्स एंड लॉजिस्टिक प्राइवेट लिमिटेड रखा। ब्लू स्टार के एमडी ने जब कृष्ण कुमार के बारे में सुना तब उन्होंने कुमार को दो कॉन्ट्रैक्ट दिया। सिर्फ चार कर्मचारी के साथ मिलकर कुमार ने शून्य से यह बिज़नेस खड़ा किया। चेन्नई में उनका बिज़नेस चारों तरफ फ़ैल चुका था। आज उनके कर्मचारियों की संख्या 1000 से अधिक है और उनकी कंपनी का वार्षिक टर्न-ओवर लगभग 32 करोड़ रूपये का है। उनका मानना है कि ऑटोमेशन और टेक्नोलॉजी के द्वारा उनके बिज़नेस को बढ़ावा मिला है और उनकी कंपनी को प्रतिष्ठा। वे आज बीएमडब्लू में घूमते हैं, उनके पास बहुत सारी लक्ज़री कारें हैं और चेन्नई में बहुत सारे आलीशान घर भी।




बरसों पहले उनका सपना एक रूम का घर ख़रीद लेने की उपलब्धि पर जाकर ही ख़त्म हो जाता था। परन्तु अपने अथक श्रम और संघर्ष के चलते उन्होंने अपने लिए एक स्वप्न का सा वैभव पूर्ण संसार रच लिया।







  कहानी पर आप अपनी प्रतिक्रिया नीचे कमेंट बॉक्स में दे सकते हैं तथा इस पोस्ट को शेयर अवश्य करें  




Friday, May 22, 2020

पारिवारिक खर्चे की भरपाई के लिए शुरू किया बिज़नेस, आज है 1000 करोड़ के क्लब में शामिल !!



यह कहानी वास्तव में एक शिक्षक की है लेकिन अतिरिक्त खर्चों से निपटने के लिए उन्होंने व्यापार का विकल्प चुना। और कारोबारी जगत में घुसते हुए इन्होंने अजंता, ऑरपेट और ओरेवा जैसी नामचीन ब्रांडों की आधारशिला रखते हुए आज की युवा पीढ़ी के लिए एक आदर्श बन कर खड़े हैं। एक दिन इस शख्स की पत्नी ने इन्हें ताने देते हुए कहा कि आप अपने बचे समय में कुछ कारोबार क्यूँ नहीं करते? यदि मैं पुरुष होती तो अपने भाई के साथ मिलकर कोई कारोबार करती और पूरे शहर में प्रसिद्ध हो गई होती। यह बात इनके दिमाग में खटक गई और फिर इन्होंने कारोबारी जगत में कदम रखते हुए हमेशा के लिए अपना नाम बना लिए।

जी हाँ हम बात कर रहे हैं ऑरपेट, अजंता और ओरेवा जैसे ब्रांडों के निर्माता ओधावजी पटेल की सफलता के बारे में। आज शायद ही कोई घर होगा जहाँ इनके द्वारा बनाया गया सामान नहीं पहुँचा हो। ओधावजी मूल रूप से एक किसान परिवार से ताल्लुक रखते हैं। किसान परिवार से आने के बावजूद इन्होंने विज्ञान में स्नातक करने के बाद बी.एड की डिग्री हासिल की। इसके बाद इन्होंने वी सी स्कूल में विज्ञान और गणित के शिक्षक के रूप में तीस साल तक काम किया। इन्हें 150 रूपये प्रति महीने की पगार मिलती थी। किसी तरह पूरे परिवार का भरण-पोषण हो पाता था। लेकिन जब इनके बच्चे बड़े हुए तो परिवार पर आर्थिक दबाव बनने शुरू हो गये।




फिर अतिरिक्त आय के लिए इन्होंने कुछ व्यापार शुरू करने के बारे में सोचा। इनकी पत्नी ने भी इस काम के लिए इन्हें काफी प्रोत्साहित किया। काफी सोच-विचार करने के बाद इन्होंने मोरबी में एक कपड़े की दुकान खोली जो साल 1970 तक जारी रहा। इसी दौरान वर्ष 1960 के दौरान पानी की तीव्र कमी थी। यद्यपि प्रत्येक गांव में कुएं थे, लेकिन पानी खींचने के लिए एक आवश्यक तेल इंजन की आवश्यकता थी। ओधावजी ने इस क्षेत्र में बिज़नेस संभावना देखी और वसंत इंजीनियरिंग वर्क्स के बैनर तले तेल इंजन बनाने शुरू किये। इन्होंने तेल इंजन का नाम अपनी बेटी के नाम पर ‘जयश्री’ रखा।


यह यूनिट पांच साल तक जारी रहा। एक दिन लोगों के एक समूह ने इनके पास ट्रांजिस्टर घड़ी परियोजना से संबंधित आइडिया लेकर आए।ओधावजी को यह आइडिया अच्छा लगा और उन्होंने 1,65,000 की लागत से घड़ी बनाने के कारखाने को एक किराए के घर में 600 रुपये प्रति माह के किराए पर स्थापित किया और अजंता के रूप अपने ब्रांड की आधारशिला रखी।

शुरुआत में कंपनी को भारी नुकसान झेलना पड़ा लेकिन ओधावजी ने हार नहीं मानी और डटे रहे। बाज़ार में लोगों ने इनके उत्पाद में विश्वास दिखाने शुरू कर दिए और देखते-ही-देखते अजंता बाज़ार की सबसे लोकप्रिय और विश्वसनीय घड़ी ब्रांड बन गई। फिर उन्होंने समय के साथ अन्य क्षेत्रों में भी पैठ ज़माने के लिए ऑरपेट और ओरेवा जैसी दो नामचीन ब्रांड की पेशकश की।



 करीबन डेढ़ लाख रूपये की लागत से शुरू हुई कंपनी आज 1000 करोड़ के क्लब में शामिल है। इससे शानदार कारोबारी सफलता और क्या हो सकती। 




 आप अपनी प्रतिक्रिया नीचे कमेंट बॉक्स में दे सकते हैं और इस पोस्ट को शेयर अवश्य करें  



18 वर्षो से व्हीलचेयर पर हैं, लेकिन गरीब-वंचित को मुफ़्त शिक्षा देने का उनका संकल्प जारी है !!



स्वस्थ जीवन की चाह हर किसी की होती है, किन्तु जीवन पूर्णता अप्रत्याशित है। कब किस मोड़ पर क्या हो हम नहीं जानते ,लेकिन अगर हम मानसिक रूप से मजबूत है तो शारीरिक कमी भी हमें कमजोर नहीं बना सकती। सही मायने में सच्चा विजेता तो वही है जो अपने जीवन की हर कमी को भूल कर दूसरो की जिंदगियों को रोशन करने में अपना सर्वस्व त्याग देता है। फिर चाहे शारीरिक अक्षमता हो या विपरीत परिस्थितियां हर शब्द के अर्थ सूक्ष्म हो जाते हैं। ऐसा ही एक प्रेरणादायक उदहारण हमारे समक्ष प्रस्तुत हुआ है गोपाल खंडेलवाल का जोकि 18 वर्षो से व्हीलचेयर पर हैं। लेकिन निस्वार्थ भावना व जज़्बा  ऐसा की आज हज़ारो गरीब बच्चों को निशुल्क पढ़ा कर उन्हें समाज में एक सम्मानजनक स्थान दिलवा रहें हैं।




48 वर्षीय गोपाल खंडेलवाल बनारस के एक साधारण  परिवार से है। जब वे मात्र 27 वर्ष के थे तो एक  सड़क हादसे ने उनके शरीर के  निचले भाग को पैरालाइज़्ड कर दिया। तीन सालों तक  इनका इलाज BHU में चला लेकिन कोई सुधार न दिखने  पर गोपाल की हिम्मत टूटने लगी। माँ बाप थे नहीं ,दो भाई थे वो भी अपने जीवन में व्यस्त थे ,कोई देख रेख करने वाला  नहीं था। 

तब गोपाल के दोस्त डॉ अमित दत्ता ने इन्हे संभाला और इन्हे अपने साथ गॉव चलने की सलाह दी।फिर  डॉ अमित गोपाल को अपने साथ मिर्ज़ापुर जिला मुख्यालय से आठ किमी दूर कछवा ब्लॉक  के पत्तिकापुर गॉव ले आयें। वहां उनके लिए एक कमरा भी बनवा दिया।  गोपाल का गॉव में मन तो लगने लगा लेकिन खाली  बैठ कर समय काटना उनके लिए बहुत मुश्किल होने लगा। फिर उन्होंने बच्चों को निशुल्क पढ़ाने का मन  बनाया और एक  बगीचे में इन्होने बच्चों को पढ़ाना शुरू किया। पहले दिन सिर्फ एक ही  लड़की पढ़ने आयी लेकिन धीरे धीरे लोगों ने  विश्वास दिखाया और बच्चो की  संख्या में बढ़ोत्तरी होती चली गयी। 

आज इनकी पाठशाला में 67 बच्चें पढ़ते है। गोपाल बताते है की अब उनका जीवन ये बच्चे ही हैं। जो उनके साथ सुबह 5 बजे से शाम के 6 बजे तक रहते है। ये बच्चे ही  इन्हे सुबह चारपाई से उठाकर व्हीलचेयर पर बैठाते है व शाम को यही बच्चे इन्हे चारपाई पर वापस लेटा  देते है। अपनी पाठशाला का नाम गोपाल ने अपनी माँ के नाम पर 'नोवाल शिक्षा संस्थान 'रखा। इनकी पाठशाला में बीते 18 वर्षो में हज़ारो बच्चे पढ़ चुके हैं। ये वे बच्चे हैं जो मजदूरी या अन्य कामो की  वजह से स्कूल नहीं जा पाते  हैं।




गोपाल सिर्फ इन बच्चो को पढ़ा ही  नहीं रहें हैं बल्कि उन्हें जीवन जीने का सलीका भी सीखा रहें है। वे बच्चों को कपड़े पहनने से लेकर उठने बैठने  खाना खाने का  तरीका सीखा रहे हैं। ताकि वे समाज में अच्छा स्थान पा  सकें। गरीब बच्चो को बेहतर शिक्षा मिले इसके लिए गोपाल खुद तो मेहनत करते ही  है  किन्तु वो चाहते है कि इन बच्चो को अच्छे स्कूलों में एडमिशन भी मिले ,जिसमे काफी हद तक वे सफल भी  हो रहें हैं। इसके  लिए उन्हें सोशल साईट  काफी मदद मिल रही है। जो बच्चा गरीब किंतु पढ़ने की ललक रखता है उसकी फोटो या विडिओ बना गोपाल फेसबुक पर डालते हैंऔर फेसबुक के मित्रो से यह अपील करते है अगर मुमकिन हो सके तो वे उस बच्चे की पढाई का खर्चा उठायें।  वे  मित्रगण इनके  अकाउंट में फीस के पैसे भेजते हैं। फिर गोपाल उन बच्चो का अच्छे स्कूल में  एडमिशन  करवाते है। वर्तमान में 50 से अधिक बच्चे स्कूलों  में पढ़ने  जा रहें  हैं। गोपाल बच्चो को पढ़ाने के अलावा गॉव वालो का इलाज़ भी करते है। इनके दोस्त डॉ अमित इनको कई प्रकार  की दवाएं देते हैं जिन्हे ज़रुरत पड़ने पर वे  गॉव वालो को देते हैं।


गोपाल के जीवन में उनके  दोस्त डॉ अमित का विशेष स्थान है। गोपाल बताते है की वे अपने जीवन से हार मान चुके थे और जब उनके साथ कोई नहीं था तो अमित ने ही  उन्हें संभाला व् प्रत्येक पल जीवन के  प्रति सकारात्मक रवैया बनाये रखने पर बल दिया। गोपाल मानते है की आज वो जो कुछ भी कर पा रहे  है वो सिर्फ  उनके दोस्त  से ही मुमकिन हो पाया हैं। 

 गोपाल दो कदम भी चल पाने में समर्थ नहीं हैं किन्तु आज  उन्होंने हज़ारों बच्चों को समाज में खड़े होने के काबिल बनाया हैं। जिन्हे हमारे समाज में वंचित समुदाय के नाम से जाना जाता है। गोपाल की शारीरिक अक्षमता कभी भी उनके इरादों को डिगा न सकी।आज उनके क्षेत्र के लोग उनके हौंसलों  की मिसालें देते हैं।  

Wednesday, May 20, 2020

बस से सफ़र के दौरान उन्हें कुछ कमी दिखी, फिर शुरू किया स्टार्टअप, 600 करोड़ की हुई कमाई !!



आज-कल की नई पीढ़ी के युवाओं को कहीं पर थोरी कठिनाईयों का सामना क्या करना पड़ता, वो उसे दूर करने के साथ-साथ उसमें एक बड़ा बिज़नेस आइडिया ही खोज निकालते हैं। आज की यह कहानी एक ऐसे ही शख्स की है जिन्होंने एक दिन यात्रा के दौरान बस चूक जाने से हुई अपनी पीड़ा को आम लोगों की पीड़ा समझते हुए हमेशा के लिए मुक्ति देने के अभियान में बदल दिया। इतना ही नहीं ऑनलाइन बस टिकट बुकिंग के उनके बनाये पोर्टल रेड-बस ने उन्हें दिलाया आईबीबो से 600 करोड़ रुपयों का खड़ा सौदा।  

 आंध्र प्रदेश के एक छोटे से जिले निज़ामाबाद के फणीन्द्र समां ने कभी भी इंटरप्रेन्योरशिप के बारे में नहीं सोचा था। बिट्स पिलानी से इन्होंने इंजीनियरिंग की डिग्री ली और पोस्ट ग्रेजुएशन इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ साइंस से करने के बाद वे बेंगलुरु स्थित एक कंपनी में मज़े से काम करने लगे। परंतु एक बुरे अनुभव से रूबरू होने पर उन्होंने उसका समाधान खोजने का प्रयास किया ताकि दूसरों को इस अनुभव से न गुजरना पड़े। और फिर उन्होंने भारत की सबसे लोकप्रिय पोर्टलों में से एक के निर्माण के लिए योगदान दिया और इससे 600 करोड़ का साम्राज्य भी बनाया। 

 फणीन्द्र का जीवन ऐसे ही शांति पूर्वक चल रहा था और वे अक्सर ही अपने माता-पिता से मिलने हैदराबाद बस से जाया करते थे। 2005 में दीपावली का समय था, उनके सारे रूम-मेट्स छुट्टियाँ मनाने अपने-अपने घर जाने को तैयार थे। जब वह बस की टिकट लेने पहुंचे तब हैदराबाद जाने वाली बसों की सारी टिकट्स बिक चुकी थीं। दुर्भाग्यवश उन्हें टिकट नहीं मिली और वह हैदराबाद नहीं जा पाए। वह दो-तीन ट्रेवल एजेंट के पास भी गए पर उन्हें खाली हाथ ही लौटना पड़ा और वह बुरी तरह से निराश हो गए।  

 दुखी मन लेकर फणीन्द्र वापस अपने फ्लैट लौट आये और उन्होंने अपना पूरा सप्ताह नाराजगी में बिता दिया और सोच रहे थे कि क्यों नहीं इसके लिए कोई समाधान निकाला गया।

मेरे मन में बार-बार यह विचार आ रहा था कि क्यों वहाँ कोई ऎसी कंप्यूटर प्रणाली नहीं है जिसमें सभी बस ऑपरेटरों का उल्लेख हो और वे बता पाये कि कितनी बसें वहाँ से चलती है और कहीं जाने के लिए इस समय टिकट्स मिलने की क्या स्थिति है। और जब मैं पहले ट्रेवल एजेंट के पास जाऊँ तो वह सिस्टम लॉग ऑन करे और बस ऑपरेटर बताये कि सीट खाली है कि नहीं।

 फणीन्द्र ने पूरा सप्ताह ट्रेवल एजेंट के पास घूमते हुए बिताया और बस टिकट्स की बुकिंग की प्रक्रिया को समझने के लिए उन्होंने एजेंट से बहुत सारे सवाल भी पूछे और ढेर सारी जानकारियां इकठ्ठी की। उन्होंने ट्रेवल एजेंट और बस ऑपरेटर्स के काम को समझने की कोशिश की। कोई भी उन्हें इसके बारे में बताने के लिए ज्यादा रुची नहीं ले रहा था। उन्हें सफलता तब मिली जब एक युवा ट्रेवल एजेंट से मिले जो एक इंजीनियर भी था। और वे समझ पाए कि फणीन्द्र क्या चाहते हैं। वे बहुत खुश भी हुए कि बस टिकट्स बुकिंग के बारे में वह कुछ करना चाहते हैं।   





काम कैसे किया जायेगा यह सब सोचने के बाद समां ने अपने दोस्त के साथ मिलकर तय किया कि मुफ्त में ट्रेवल एजेंट के लिए खुला मंच बनाएंगे। फणीन्द्र इस प्रॉब्लम का हल ढूंढने के लिए उत्सुक थे जबकि उन्हें प्रोग्रामिंग नहीं आती थी। बुक्स पढ़कर उन्होंने कोडिंग और प्रोग्रामिंग सीखी और तब जाकर रेड-बस का जन्म हुआ।  


 शुरुआत में ट्रेवल एजेंट्स ने उनके द्वारा बनाये गए इस प्लैटफॉर्म का जब उपयोग किया तब उनके टिकटों की बिक्री में काफी सुधार हुआ। यह बहुत ही बड़ी सफलता थी रेडबस के लिए; जिसमें पढे -लिखे लोगों के अलावा वे भी वे भी इसका लाभ उठा पा रहे थे जिन्हें कंप्यूटर का उपयोग करना भी नहीं आता था। जब रेडबस को लॉन्च किया गया तब सोचा गया था कि पांच सालों में केवल 100 बस ऑपरेटर का ही रजिस्ट्रेशन होगा। परंतु इसकी सफलता इतनी तेजी से बढ़ी कि एक साल के भीतर ही 400 रजिस्ट्रेशन हुआ।   





जून 2014 में रेडबस को आईबीबो ने 600 करोड़ में अधिग्रहण कर लिया। फणीन्द्र के पास अब उनके बैंक अकाउंट में इतने रुपये इकट्ठे हो गए हैं कि वह अब सारी जिंदगी आराम से बिता सकते हैं। इस कहानी में सबसे अच्छी बात यह है कि फणीन्द्र ने पैसे कमाने के उद्देश्य से यह काम नहीं शुरू किया था वह केवल यह चाहते थे कि उस प्रॉब्लम का समाधान मिले और जो तकलीफ़ उन्होंने उठाई वह दूसरे को न मिले। 


 कुछ सालों में जो मेहनत फणीन्द्र और उनके दोस्तों ने किया है इस काम को करने के लिए, उसे ट्रेवल उद्योग में दशकों से काम कर रहे लोगों से उतनी सराहना नहीं मिली। परंतु उन्होंने कभी भी अपना धैर्य नहीं खोया और अपने आइडिया पर काम करते रहे, यही उनकी सफलता का राज है।   







आप अपनी प्रतिक्रिया नीचे कमेंट बॉक्स में दे सकते हैं और इस पोस्ट को शेयर अवश्य करें