Wednesday, May 13, 2020

छोटे से किराने की दुकान से हुई शुरुआत, आज 100 करोड़ की नामचीन कंपनी बन चुकी है !



यह कहानी ऐसे ही एक शख्स की सफलता को लेकर है। उन्होंने अपने बचपन की शुरुआत कोलकत्ता में एक छोटे से किराने की दुकान पर अपने पिता के साथ काम करते हुए व्यतीत किया और आज भारत के सबसे बड़े क्षेत्रीय खाद्य ब्रांड के कर्ता-धर्ता हैं। ऐसा कर इस शख्स ने सिद्ध कर दिया कि जो लोग बड़ा सोचते हैं और उसे साकार करना जानते हैं उनके लिए कुछ भी असंभव नहीं है।

यह कहानी भारतीय फ़ूड ब्रांड प्रिया फ़ूड प्रोडक्ट्स लिमिटेड की आधारशिला रखने वाले कारोबारी गणेश प्रसाद अग्रवाल की है। सिर्फ तीन दशकों में ही अग्रवाल कंपनी विकसित होकर पूर्वी भारत के सबसे बड़े ब्रांड के रूप में उभरा है। आज इनका सालाना टर्न-ओवर 100 करोड़ रूपयों का है। बर्तमान में कंपनी के नौ प्लांट्स हैं और 100 टन का इनका रोज़ का उत्पादन है। इनके द्वारा बनाये 36 प्रकार के बिसकिट्स और पंद्रह तरीके के स्नैक्स आइटम पश्चिम बंगाल, बिहार, झारखण्ड और ओडिशा के बाज़ारों में उपलब्ध है।

कोलकाता से बीस किलोमीटर दूर एक मध्यमवर्गीय परिवार में जन्में गणेश के पिता किराने की दूकान चलाते थे। घर की माली हालात ठीक नहीं रहने पर भी उनके पिता हमेशा शिक्षा के महत्त्व पर जोर देते थे।

 अग्रवाल अपने पिता के साथ दुकान में बैठते थे और कुछ प्राइवेट ट्यूशन्स करते थे, पर उनके पिता उन्हें अपनी पढ़ाई पर ज्यादा ध्यान देने को कहते थे। अपना स्नातक नार्थ कोलकत्ता के सिटी कॉलेज से पूरा करने के बाद वे अपने पिता की दुकान में मदद करने लगे क्योंकि सात लोगो के परिवार को चलाने के लिए इसकी सख्त जरुरत थी। लगभग 14 सालों तक इन्होंने यह काम जारी रखा।  

आखिर में कुछ अलग करने की उनकी सोच ने उन्हें आज इस मक़ाम पर खड़ा कर दिया। किराने की दुकान पर काम करने से उन्हें यह बात तो समझ में आ गई कि खाने के सामान में कभी भी मंदी नहीं आती। सितंबर 1986 में इन्होंने एक बिस्कुट बनाने की फैक्ट्री शुरू करने का निश्चय किया। पूंजी जुटाना उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती थी लेकिन इन्होंने अपने हिस्से की प्रॉपर्टी को गिरवी रखकर और दोस्तों से कुछ उधार लेकर पूंजी जुटाई। अपने दोस्तों से और बैंक से इन्होंने 25 लाख रुपये उधार लिए और अपने बिज़नेस की आधारशिला रखी। 

 बिस्कुट के उद्योग में जरुरी उपकरण,ओवन और बहुत सारे काम करने वाले चाहिए होते है अग्रवाल हमेशा बड़ा सोचते थे, इसलिए इन्होंने दो एकड़ जमीन अपने घर पानीहाटी के पास ली और 50 बिस्कुट बनाने वाले कारीगर नौकरी पर रखे। और इस तरह भारत के मशहूर बिस्कुट ब्रांड प्रिया का जन्म हुआ।  


अग्रवाल अपने संघर्ष के दिनों को याद करते हुए बताते हैं “अधिक से अधिक काम मैं स्वयं ही करता था। और दिन भर ऑफिस से फैक्ट्री घूमता रहता था। कभी-कभी मेरा काम सात बजे सुबह से लेकर रात के एक बजे तक चलता था। वह समय मेरे लिए बहुत ही कठिन था।”

बिस्कुट का बिज़नेस आसान नहीं था क्योंकि बाजार में पहले से ही पारले-जी और ब्रिटानिया का दबदबा था। उन्होंने यह महसूस किया कि अगर मार्केटिंग बहुत अच्छी होगी तभी लोगों के मन में इस ब्रांड के लिए सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा।

गणेश ने बिना वक़्त गवायें तुरंत ही पांच लोगों की टीम बनाई जो घर-घर जाकर प्रिया के प्रोडक्ट के बारे में लोगों को जानकारी देने शुरू कर दिए। इन्होंने पहले ग्लुकोस और नारियल के बिस्कुट बनाए। बहुत ही कम दाम में अच्छी क्वालिटी के बिस्कुट मुहैया करना इनके बिज़नेस की रणनीति थी और यह सफल भी हुई। इसके बाद अग्रवाल ने दूसरे क्षेत्रों में भी हाथ आजमाए। 
 2005 में इन्होंने रिलायबल नाम का एक प्लांट शुरू किया जिसमें आलू के चिप्स और स्नैक्स तैयार किये जाते थे। 2012 में इन्होंने सोया नगेट्स का प्लांट डाला। आज उनके दोनों बेटे इनकी कंपनी के डायरेक्टर है।  


गणेश प्रसाद अग्रवाल जिन्होंने अपनी ऊँची सोच और कड़ी मेहनत के बल पर आज इस मक़ाम पर पहुंचे। उनके सफलता की यह यात्रा युवा उद्यमीयों के लिए बेहद प्रेरणादायक है।



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गांव में मवेशी चराने से लेकर एक प्रतिष्ठित IAS ऑफिसर बनने तक का सफ़र तय करने वाली लड़की !


यूपीएससी के परिणाम आने के पहले वनमती ने कंप्यूटर एप्लीकेशन में पोस्ट ग्रेजुएशन किया और एक प्राइवेट बैंक में नौकरी कर रही थी। आज वे न केवल अपने माता-पिता की देखभाल कर रही हैं बल्कि पूरे समाज और अपने देश को उसी दृढ़ता से सेवा दे रही हैं। इसलिए कहा गया है कि अगर हौसले बुलंद हो तो कठिन से कठिन राह भी आसान हो जाती है।




सी. वनमती का जीवन प्रेरणा का सबसे अच्छा उदाहरण है जिन्होंने हमेशा आशा का दामन थाम कर रखा। वनमती केरल के इरोड जिले के सत्यमंगलम कॉलेज में पढ़ने वाली एक साधारण लड़की थी। अपने पिता के साथ रहती थीं, पढ़ाई में मेहनती थीं और कॉलेज से लौटकर अपने पशुओं को चराने के लिए लेकर जाने में उन्हें बड़ा संतोष मिलता था। परन्तु यह सब कुछ बदल गया जब उन्होंने सिविल सर्विसेस की परीक्षा देने का मन बनाया।

ऐसा नहीं है कि उन्हें एक ही बार में सफलता मिली। तीन बार असफल होने के बाद भी उन्होंने हार नहीं मानी। 2015 की यूपीएससी के परिणाम की अंतिम सूची में 1236 लोगों में से एक नाम उनका था। इस समय वे अपने पिता के साथ हॉस्पिटल में थीं। उनके पिता का कोयम्बटूर के एक हॉस्पिटल में इलाज चल रहा था। उनके पिता टी.एन. चेन्नियपन को स्पाइन में चोट लगी थी। यह घटना तब हुई जब वनमती के इंटरव्यू के सिर्फ दो दिन बचे थे। उनके पिता का सारा दर्द खुशियों में तब बदल गया जब उन्हें पता चला कि उनकी बेटी ने यूपीएससी की परीक्षा में 152 वां स्थान प्राप्त किया है। उनकी ख़ुशी की कोई सीमा नहीं थी।


सामान्य परिवार में वनमती का जन्म हुआ। उनके माता-पिता बहुत पढ़े-लिखे नहीं थे और इरोड में इनका परिवार पशु-पालन करता था और पिता ड्राइवर थे। वनमती का बचपन भैसों के ऊपर बैठकर और जानवरों को चराते हुए बीता था। पर वे हमेशा से अपने आप को एक कलेक्टर के रूप में ही देखती थीं। जब उन्होंने बारहवीं की पढ़ाई पूरी कर ली तब उनके सम्बन्धी उनके माता-पिता को उनकी शादी के लिए सलाह दे रहे थे। उनके समुदाय में यह सामान्य सी बात थी परन्तु वनमती की अपनी अलग सोच थी। इस बात के लिए उनके माता-पिता से उन्हें हमेशा सहारा मिला।


“मैंने बारहवीं पास की तो रिश्तेदारों ने शादी के लिए दबाव डालना शुरू कर दिया, लेकिन मैं अपने परिवार और समाज की स्थिति सुधारने के लिए आगे पढ़ना चाहती थी।” — सी. वनमती

वनमती ने बताया कि उन्हें एक ‘गंगा जमुना सरस्वती’ नामक सीरियल की नायिका से प्रेरणा मिली। इस सीरियल में नायिका एक आईएएस ऑफिसर थी। उनकी दूसरी प्रेरणा उन्हें जिले के कलेक्टर से मिली। जब वे वनमती के स्कूल आये थे तब उस वक्त उनको मिले आदर और सम्मान ने भी उन्हें कलेक्टर जैसा बनने को प्रेरित किया और उन्होंने सिविल सर्विसेस की पढ़ाई करने का निश्चय किया।




अन्तः-प्रेरणा अपने आप में चमत्कारिक होता है। यह एक मजबूत ताकत की तरह हमारा साथ देता है और हमें अपने सपनों से भटकने नहीं देता। हमने बहुत सारी ऐसी कहानियां सुनी है जिसमें लोग दूसरों के द्वारा चले रास्तों को उदाहरण मानकर उन रास्तों पर चल पड़ते हैं। खासकर विद्यार्थी वर्ग बिना उलझन और दुविधा में पड़े उन कहानियों की मदद से अपना रास्ता खोज निकालते हैं।

कभी रेलवे पटरी की मरम्मत करने वाले गैंगमैन से एक IPS अफसर बनने तक का सफ़र


कहते हैं कठिन मेहनत और कभी न हार मानने वाले जज़्बे से इस दुनिया की कोई भी मंज़िल फ़तह की जा सकती है। मंज़िल जितनी ऊँची होगी, संघर्ष भी उतना ही बड़ा करना होगा। हमारी आज की कहानी एक ऐसे शख्स की है, जिन्होंने न सिर्फ अभूतपूर्व सफलता हासिल की है बल्कि औरों के लिए भी प्रेरणा के एक मज़बूत प्रतीक बने हैं। एक किसान के बेटे ने ग्रामीण परिदृश्य में अनगिनत संघर्षों का डटकर मुकाबला करते हुए उस मुक़ाम तक पहुँचा है, जहाँ प्रयाप्त संसाधनों के बावजूद भी लोग नहीं पहुँच पाते।

राजस्थान के प्रह्लाद मीणा एक ग़रीब किसान परिवार में पैदा लिए। उनके माता-पिता जमींदारों के घर काम किया करते थे। वो जिस परिवेश से आते हैं, वहां शिक्षा का बिलकुल महत्व नहीं था। लेकिन शुरुआत  पढ़ाई में दिलचस्पी रखने वाले मीणा के माता-पिता भी नहीं चाहते थे कि उनके बच्चे भी मजदूरी कर अपना जीवन-यापन करें। उन्होंने गांव के सरकारी स्कूल से ही 10वीं तक की पढ़ाई पूरी की। 

संघर्ष के दिनों को याद करते हुए वो कहते हैं "10 वीं कक्षा का परिणाम आया तो मुझे स्कूल में पहला स्थान मिला। फिर लोगों ने मुझे साइंस विषय लेने के सुझाव दिए। सपना इंजीनियर बनने का था। लेकिन परिवार वालों की स्थिति ऐसी नहीं थी कि वह मुझे पढ़ा सके।"

दुर्भाग्य से साइंस विषय में आगे की पढ़ाई के लिए उनके गाँव के के आस-पास कोई स्कूल भी नहीं था। अपने सपनों को भुला कर उन्होंने मानविकी विषयों के साथ आगे की पढ़ाई करने का निश्चय किया। समय के साथ उन्होंने जीवन में अपनी प्राथमिकताओं को बदल दिया। अभी भी उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती आर्थिक हालात थे। 

वे बताते हैं कि जब वे बारहवीं कक्षा में थे, तब उनके गांव से एक लड़के का चयन भारतीय रेलवे में ग्रुप डी (गैंगमैन) में हुआ था। उसी समय उन्होंने अपना लक्ष्य गैंगमैन बनने का बना लिया और तैयारी में लग गए। बीए द्वितीय वर्ष में उनका चयन भारतीय रेलवे के भुवनेश्वर बोर्ड में गैंगमैन के पद पर हो गया है। यहां जॉब के दौरान ही उन्होंने कर्मचारी चयन आयोग द्वारा आयोजित होने वाली संयुक्त स्नातक स्तरीय परीक्षा में बैठने का फैसला किया और उन्हें रेल मंत्रालय के सहायक अनुभाग अधिकारी के पद पर नियुक्ति मिली। 


वे बताते हैं कि अब दिल्ली से मैं घर की सभी जिम्मेदारियों को बखूबी निभा रहा था और साथ ही मैंने सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी भी शुरू कर दी।



यूपीएससी परीक्षा में सफलता का परचम लहराना कोई साधारण काम नहीं था। उन्हें कई बार असफल होना पड़ा लेकिन हार न मानते हुए उन्होंने संघर्ष को जारी रखा। उन्हें वर्ष 2013 और 2014 में मुख्य परीक्षा देने का अवसर मिला। 2015 में प्रिलिमनरी परीक्षा में सफलता नहीं मिली तो उस वर्ष उन्होंने वैकल्पिक विषय हिंदी साहित्य को अच्छे से तैयार किया और 2016 के प्रयास में सिविल सेवा परीक्षा में सफलता प्राप्त की। वर्तमान में वे भारतीय पुलिस सेवा- IPS में ओडिशा कैडर के 2017 बैच के अधिकारी हैं।


 उनका मानना है कि उनकी सफलता ग्रामीण क्षेत्र से आने वाले बच्चों में भी आत्मविश्वास का संचार करेगा। यक़ीनन उनकी सफलता देश के करोड़ों नौजवानों के लिए प्रेरणादायक है जो परिस्थितियों के तले दबकर सपनों का त्याग कर देते हैं।  

प्रेरणादायक: सड़क किनारे चूड़ी बेचने वाला कैसे बना देश का एक शीर्ष IAS अफ़सर



राष्ट्रकवि दिनकर की एक प्रसिद्ध पंक्ति है ‘मानव जब जोड़ लगाता है पत्थर पानी बन जाता है।’ कहीं ना कहीं इस पंक्ति को चरितार्थ कर दिखाया है महाराष्ट्र के एक छोटे से गांव के रहने वाले इस चूड़ी बेचनेवाले बालक ने। 10 साल की उम्र तक मां के साथ चूड़ी बेचने वाले इस बच्चे ने वाकई कमाल कर दिखाया। आज इस बालक की पहचान देश के एक शीर्ष IAS अधिकारी के रूप में है लेकिन इनके यहाँ तक पहुँचने का सफ़र संघर्षों से भरा है।

माँ-बेटे पूरे दिन चूड़ियाँ बेचते, जो कमाई होती उसे पिता शराब में उड़ा देते। दो जून की रोटी के लिए ललायित इस बालक ने अपना संघर्ष जारी रखा।


महाराष्ट्र के सोलापुर जिला के वारसी तहसील स्थित एक छोटे से गांव महागांव में जन्मे रमेश घोलप आज भारतीय प्रशासनिक सेवा का एक जाना-माना चेहरा हैं। रमेश का बचपन अभावों और संघर्षों में बीता। दो जून की रोटी के लिए माँ-बेटे दिनभर चूड़ी बेचते लेकिन इससे जो पैसे इकट्ठे होते उससे इनके पिता शराब पी जाते। पिता की एक छोटी सी साइकिल रिपेयर की दूकान थी, मुश्किल से एक समय का खाना मिल पाता था। न खाने के लिए खाना, न रहने के लिए घर और न पढ़ने के लिए पैसे, इससे अधिक संघर्ष की और क्या दास्तान हो सकती? 

रमेश अपने माँ संग मौसी के इंदिरा आवास में ही रहते थे। संघर्ष का यह सिलसिला यूँ ही चलता रहा। मैट्रिक परीक्षा से एक माह पूर्व उनके पिता का निधन हो गया। इस सदमे ने रमेश को पूरी तरह झकझोर कर रख दिया, लेकिन हार ना मानते हुए इन हालातों में भी उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा दी और 88.50% अंक हासिल किया। माँ ने भी बेटे की पढ़ाई को जारी रखने के लिए सरकारी ऋण योजना के तहत गाय खरीदने के उद्देश से 18 हज़ार रुपये ऋण लिया। 


माँ से कुछ पैसे लेकर रमेश IAS बनने के सपने संजोए पुणे पहुंचे। यहाँ उन्होंने कड़ी मेहनत शुरू की। दिन-भर काम करते, उससे पैसे जुटाते और फिर रात-भर पढ़ाई करते। पैसे जुटाने के लिए वो दीवारों पर नेताओं की घोषणाओं, दुकानों का प्रचार, शादी की पेंटिंग इत्यादि किया करते। पहले प्रयास में उन्हें बिफलता हाथ लगी, पर वे डटे रहे। साल 2011 में पुन: यूपीएससी की परीक्षा दी और 287वां स्थान प्राप्त किये। इतना ही नहीं उन्होंने राज्य सर्विस की परीक्षा में पहला स्थान प्राप्त किया। 

उन्होंने प्रतिज्ञा की थी वो गांव तभी जायेंगे जब उन्हें अपने लक्ष्य की प्राप्ति में सफलता मिलेगी।



4 मई 2012 को अफसर बनकर पहली बार जब उन्होंने उन्ही गलियों में कदम रखा जहाँ कभी चूड़ियाँ बेचा करते थे, गांववासियों ने उनका जोरदार स्वागत किया। पिछले साल उन्होंने सफलतापूर्वक अपना प्रशिक्षण एसडीओ बेरमो के रूप में प्राप्त किया। हाल ही में उनकी नियुक्ति झारखण्ड के ऊर्जा मंत्रालय में संयुक्त सचिव के रूप में हुई है।


रमेश अपने बुरे वक्तों को याद करते हुए बताते हैं कि जब कभी भी आज वो किसी निःसहाय की मदद करते तो उन्हें अपनी माँ के उस स्थिति की याद आती जब वो अपने पेंशन के लिए अधिकारीयों के दरवाज़े पर गिरगिराती रहती। अपने बुरे वक़्तों को कभी ना भूलते हुए रमेश हमेशा जरूरतमंदों की सेवा में तत्पर रहते। इतना ही नहीं रमेश अबतक 300 से ज्यादा सेमीनार कर युवाओं को प्रशासनिक परीक्षाओं में सफल होने के टिप्स भी दे चुके हैं। 




 रमेश की कहानी उन लाखों युवाओं के लिए एक मज़बूत प्रेरणा बन सकती है जो सिविल सर्विसेज में भर्ती होकर देश और समाज की सेवा करना चाहते हैं।  


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पिता नहीं चाहते थे कि बेटा पढ़ाई करे, लेकिन उसने महज 21 की उम्र में IAS बन कर रच दिया कीर्तिमान


कठिनाइयां कितनी भी हो, जब लक्ष्य को पाने की चाहत प्रबल हो तो दुनिया की कोई भी ताकत आपको आपके मंज़िल तक पहुँचने से नहीं रोक सकता। यह सिर्फ कहने की बात नहीं है बल्कि एक सच्चाई है। हमारे समाज में ऐसे कई उदाहरण हैं जहाँ आर्थिक, सामाजिक और पारिवारिक चुनौतियों का सामना करते हुए लोग सफलता की कहानी लिखे हैं। हमारी आज की कहानी भी एक ऐसे ही शख्स के इर्द-गिर्द घूम रही है, जिन्होंने बचपन से ही चुनौतियों का सामना किया और हार ना मानते हुए अपने-आप को इसका मुकाबला करने के काबिल बनाया। आज वह शख्स हमारे बीच एक सफल प्रशासनिक ऑफिसर के रूप में विराजमान हैं। 

मराठवाड़ा के शेलगांव में पैदा लिए अंसार शेख देश के सबसे युवा आईएएस ऑफिसर में से एक हैं लेकिन उनके संघर्ष की कहानी बेहद प्रेरणादायक है। उनके पिता ऑटो रिक्शा चलाते और माँ खेतिहर मजदूर थी। बचपन से ही दो जून की रोटी के लिए संघर्ष करते हुए वे बड़े हुए। एक सूखाग्रस्त इलाका होने की वजह से यहाँ खेती भी सही से नहीं हो पाती थी। गाँव के ज्यादातर लोग शराब की शिकार में डूब चुके थे। अंसार के पिता भी हर दिन शराब पीकर आधी रात को घर आते और गाली-गलौज करते। इन सब के बीच पले-बढ़े अंसार ने छोटी उम्र में शिक्षा की अहमियत को पहचान चुके थे। दिनों-दिन चरमराती आर्थिक स्थिति को देखते हुए लोगों ने उनके पिता ने उनकी पढ़ाई छुड़वा देने के लिए कहा।

 उस दौर को याद करते हुए अंसार कहते हैं कि "जब मैं चौथी कक्षा में था, तब मेरे रिश्तेदारों ने पिता पर मेरी पढ़ाई छुड़वा देने का दबाव डाला।"

अंसार बचपन से ही एक मेधावी छात्र थे। जब उनके पिता ने उनकी पढ़ाई बंद करवाने के लिए शिक्षक से संपर्क किया तो, सबने उनके पिता को बहुत समझाया कि यह बच्चा होनहार है और इसमें आपके परिवार की परिस्थिति तक बदलने की ताकत है। उसके बाद पिता ने उन्हें कभी पढ़ाई-लिखाई के बारे में कुछ नहीं कहा। इससे अंसार को अपने लक्ष्य को प्राप्त करने की दिशा में और मज़बूती मिली।


मराठी माध्यम से पढ़ाई करने और पिछड़े माहौल में रहने के कारण अंसार की सबसे बड़ी कमजोरी उनकी अंग्रेजी थी। फिर भी उन्होंने हार नहीं मानी। घरवालों की सहायता से उन्होंने पुणे के नामचीन फर्गुसन कॉलेज में दाखिला लिया। उनके पिता हर महीने आय का एक छोटा हिस्सा उन्हें भेजते, उसी से उनका गुजारा चलता था। 

कॉलेज के पहले वर्ष ही उन्हें यूपीएससी परीक्षा के बारे में जानकारी मिली और फिर क्या था उन्होंने इसे ही अपना लक्ष्य बना लिया। उन्होंने भरपूर मेहनत की और साल 2015 में रिजल्ट घोषित हुए तो उनकी मेहनत का साक्षी हर कोई था। उन्होंने 21 वर्ष की उम्र में अपने पहले प्रयास में ही सफलता हासिल कर ली और देश के करोड़ों युवाओं के सामने मिसाल पेश की। 



 परिस्थितियों का हवाला देकर जो लोग अपने लक्ष्य का त्याग कर देते हैं, अंसार शेख की सफलता उनके लिए एक मिसाल के तौर पर है। यदि पूरी दृढ़ इच्छाशक्ति के साथ आगे बढ़ें तो सफलता अवश्य हासिल होगी।  

प्रेरणादायक: कभी पढ़ाई पूरी करने के लिए करनी पड़ी थी मजदूरी, आज हैं देश के एक प्रतिष्ठित IAS ऑफिसर

यह सच है कि अगर इंसान किसी चीज़ को दिल से चाहे तो दुनिया की सारी ताकतें उसे उस चीज़ को हासिल करने में मदद करती। यह कहानी ऐसे ही एक बुलंद हौसले और मजबूत इरादों से संपन्न शख़्स को समर्पित है। इस शख़्स की जिंदगी में बचपन से ही गरीबी और अभावों ने दस्तक दे चुके थे। लेकिन फिर भी उन्होंने हार नहीं मानी और कामयाबी की अनोखी कहानी लिखी। 

 आपको यह जानकर हैरानी होगी कि इस शख़्स को अपनी पढ़ाई पूरी करने के लिए मजदूरी तक करनी पड़ी थी। आज यह हमारे बीच एक प्रतिष्ठित प्रशासनिक ऑफिसर के रूप में उपस्थित हैं।



आज हम बात कर रहें हैं आईएएस अफसर विनोद कुमार सुमन की सफलता के बारे में जो युवाओं के लिए बेहद प्रेरणादायक है। उत्तर प्रदेश के भदोही के पास जखांऊ गांव में एक बेहद ही गरीब किसान परिवार में पैदा लिए सुमन की जिंदगी किसी संघर्ष से कम नहीं रही। घर में आय का एकमात्र स्रोत खेती ही था। जमीन भी ज्यादा बड़ी नहीं थी कि अनाज बेचकर भी अच्छे से घर का गुजारा हो सकता था। पुरे परिवार को कम-से-कम दो जून की रोटी की खातिर सुमन के पिता खेती के साथ-साथ कालीन बुनने का भी काम करते थे।

गांव से ही प्रारंभिक शिक्षा पूरी करने के बाद सुमन पिता का हाथ बंटाना आरंभ कर दिए। सुमन बतातें हैं कि “पांच भाई और दो बहनों में मैं सबसे बड़ा था। जाहिर है परिवार की जिम्मेदारी में पिता का हाथ बंटाना मेरा फर्ज भी था।” लेकिन सुमन किसी भी हाल में अपनी पढ़ाई भी नहीं छोड़ना चाहतें थे। किसी तरह उन्होंने इंटर पास किया पर आगे की पढ़ाई के लिए आर्थिक समस्या खड़ी हो गई।


अपने ही दम पर मंजिल पाने के जुनून में सुमन ने अपने माता-पिता को छोड़कर घर से शहर की ओर चल पड़े। उनके पास सिर्फ शरीर के कपड़ों के अलावा कुछ नहीं था। आर्थिक हालातों से टूट चुके सुमन ने इतनी दूर निकलने का मन बना लिया जहां उन्हें कोई पहचान ही न सके। उन्होंने श्रीनगर गढ़वाल जाने का निश्चय किया। वहां पहुँचते-पहुँचते उनके पास एक फूटी कौड़ी तक नहीं बची। अंत में उन्होंने वहां एक मंदिर में पहुंचे और पुजारी से शरण मांगी। अगले दिन वह काम की तलाश में निकले। उन दिनों श्रीनगर में एक सुलभ शौचालय का निर्माण चल रहा था। ठेकेदार से मिन्नत के बाद वह वहां मजूदरी करने लगे। मजदूरी के तौर पर उन्हें 25 रुपये रोज मिलते थे।


संघर्ष के दिनों को याद करते हुए सुमन बताते हैं कि “करीब एक माह तक वे एक चादर और बोरे के सहारे मंदिर के बरामदे में रातें बिताई। इस दौरान मजदूरी से मिले पैसों से कुछ भी खा लेते थे।”


कुछ महीनों तक ऐसा चलने के बाद उन्होंने उसी शहर के विश्वविद्यालय में दाखिला लेने का निश्चय किया। उन्होंने श्रीनगर गढ़वाल विवि में बीए प्रथम वर्ष में प्रवेश ले लिया और गणित, सांख्यिकी और इतिहास विषय लिए। सुमन की गणित अच्छी थी। इसलिए उन्होंने रात में ट्यूशन पढ़ाने का निश्चय किया। पूरे दिन मजदूरी करते और रात को ट्यूशन पढ़ाते। धीरे-धीरे उनकी आर्थिक हालात कुछ ठीक हुए तो उन्होंने घर पर पैसे भेजने शुरू कर दिए। वर्ष 1992 में प्रथम श्रेणी में बीए करने के बाद सुमन ने पिता की सलाह पर इलाहाबाद लौटने का निश्चय किया और यहां इलाहाबाद विश्वविद्यालय से प्राचीन इतिहास में एमए किया।

इसके बाद 1995 में उन्होंने लोक प्रशासन में डिप्लोमा किया और प्रशासनिक सेवा परीक्षा की तैयारी में जुट गये। इसी बीच उन्हें महालेखाकार ऑफिस में लेखाकार की सर्विस लग गई। सर्विस होने के बाद भी उन्होंने तैयारी जारी रखा और 1997 में उनका पीसीएस में चयन हुआ और इसके बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा।


तमाम महत्वपूर्ण पदों पर सेवा देने के बाद 2008 में उन्हें आइएएस कैडर मिल गया। वह देहरादून में एडीएम और सिटी मजिस्ट्रेट के अलावा कई जिलों में एडीएम गन्ना आयुक्त, निदेशक समाज कल्याण सहित कई महत्वपूर्ण पदों पर रह चुके हैं। वे अल्मोड़ा और नैनीताल में भी जिलाधिकारी के पद पर रहे हैं।

 सुमन का मानना है कि अगर दृढ़ निश्चय हो तो कोई भी कठिनाई इंसान को नहीं डिगा सकती। अपने लक्ष्य को लेकर सुमन दृढ़-संकल्प होकर डटे रहे और अंत में सफलता का स्वाद चखे। इनकी सफलता से हमें यही प्रेरणा मिलती है कि जिंदगी की राह में हमें अनगिनत बाधाओं का सामना करना पड़ेगा, हमें उसका डटकर मुकाबला करने की जरुरत है न कि हार मान लेने का।


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आइडिया साधारण किन्तु इरादे बड़े थे, छोटे से गैराज से हुई शुरुआत, आज है 8000 करोड़ का एम्पायर

अगर आपने मन में कुछ सोच लिया तो कुछ भी कर पाना संभव है। सबसे पहले आप समझिए कि आपके लिए क्या महत्वपूर्ण है, फिर आप अपने जुनून का उपयोग कर कुछ भी हासिल कर सकते हैं। 

 आज की हमारी स्टोरी 68 साल के रविन्द्र किशोर सिन्हा जी की है जिन्होंने एक छोटे से गैराज से शुरू कर आज एशिया के सबसे बड़े मानव शक्ति से युक्त सुरक्षा फर्म्स के संचालक है। यह अपने आप में प्रेरणादायक है।


इनका जन्म और पालन-पोषण पटना के एक निम्न मध्यम वर्गीय परिवार में हुआ था। उन्होंने अपने छह भाई-बहनों के साथ-साथ सरकारी स्कूल से प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त की। उसके बाद उन्होंने यह तय किया की वह पोलिटिकल साइंस में उच्च शिक्षा की पढ़ाई करेंगे। अपने परिवार की आर्थिक जरूरतों को पूरा करने के लिए इन्होंने एक पार्ट टाइम नौकरी ज्वाइन कर ली। यह नौकरी अपराध और राजनैतिक रिपोर्टिंग से जुड़ी जर्नलिस्ट की थी जिसका नाम सर्चलाईट था।

भारत -पाकिस्तान तनाव की रिपोर्टिंग के दौरान उन्हें बिहार रेजीमेंट के बॉर्डर पोस्ट पर रुकने का मौका मिला। तब उन्हें सिक्योरिटी और इंटेलिजेंस सर्विस के बारे में एक आईडिया आया। 1973 में जयप्रकाश नारायण की राजनैतिक सक्रियता से सहानुभूति रखने पर उन्हें नौकरी से निकाल दिया गया। उसके बाद उन्होंने बहुत सारी नौकरी की तलाश की पर उनके आशा के अनुरूप नौकरी नहीं मिल पा रही थी।

उनके कुछ दोस्त कंस्ट्रक्शन के बिज़नेस में थे और उन्हें अपने प्रोजेक्ट साइट के लिए गार्ड की जरुरत थी। सिन्हा जी ने तब उन्हें रिटायर्ड सैनिक दिए और तब उन्हें यह पता लगा कि प्राइवेट सिक्योरिटी एजेंसीज में भी बिज़नेस के मौके हैं। तब उन्होंने अपनी खुद की कंपनी खोलने का निश्चय किया। आखिर 1974 में पटना में एक छोटे से गैरेज को लीज़ पर लेकर "सेक्युरिटी और इंटेलिजेंस सर्विसेज" (SIS इंडिया लिमिटेड) नामक कंपनी खोली। 

 पहले साल में SIS इंडिया लिमिटेड ने 250 सेना के आदमी रखे और लगभग एक लाख रूपये का कारोबार हासिल किया। 1988 में SIS इंडिया लिमिटेड ने अपना एक नया विभाग खोला; ट्रेनिंग अकादमी का, जहाँ लाखों की संख्या में सिक्योरिटी गार्ड्स को ट्रेनिंग दी जाती थी।

2005 में कंपनी का टर्न-ओवर 25 करोड़ के पास पहुँच गया। उन्होंने दूसरे देशों में भी कंपनी खोलने का निश्चय किया। 2008 में SIS इंडिया लिमिटेड ने ऑस्ट्रेलिया की सबसे बड़ी कंपनी चब-सिक्योरिटी को 1000 करोड़ में खरीद लिया। आज SIS एशिया की सबसे अधिक मैनपॉवर वाली सिक्योरिटी फर्म बन गई है। आज इनके यहाँ लगभग 70,000 कर्मचारी काम करते हैं।

SIS इंडिया लिमिटेड आज 2000 से भी अधिक कॉर्पोरेट इंडस्ट्रीज को सिक्योरिटी प्रदान कर रही है जिसमे टाटा स्टील, टाटा मोटर और आईसीआईसीआई बैंक शामिल हैं। वर्तमान में SIS इंडिया लिमिटेड का मार्केट कैप क़रीब 8000 करोड़ का है। 

2014 में सिन्हा संसद के ऊपरी सदन के सदस्य के रूप में राज्यसभा के लिए चुने गए थे। वह बिहार राज्य से भारतीय जनता पार्टी के प्रतिनिधि के रूप में हैं। 



 2006 में नुकसान की रोकथाम के प्रमोटर पुरस्कार से उन्हें नवाज़ा गया। पंजाब सरकार के द्वारा उन्हें CAPSI प्रतिष्टित लाइफ टाइम अचीवमेंट अवार्ड से भी सम्मानित किया गया। उनके द्वारा किये गए असाधारण उपलब्धि उनके साहस, दृढ़ता और उनकी इच्छाशक्ति का परिणाम है। 

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