Wednesday, May 27, 2020

सब्जी बेच कर शिक्षा पूरी करने वाले यह व्यक्ति आज चला रहे हैं 500 करोड़ टर्नओवर की कंपनी !!



यह कहानी एक ऐसे इंसान की है जिसे बचपन से ही अत्यंत गरीबी का सामना करना पड़ा। आर्थिक तंगी के चलते इस शख्स ने सब्जी बेचकर व कई जगह मजदूरी करके काफी मुश्किल से रुपए जुटाए। जिंदगी में गरीबी और अभाव से ही प्रेरणा लेते हुए इस शख्स ने अपने अंदर कुछ बड़ा करने की चाह पैदा की और अपने पढ़ाई को जारी रखा। इनकी मेहनत सफल हुई और आज ये 500 करोड़ रूपये की सलाना टर्न ओवर करने वाली कंपनी के मालिक हैं। 

 गुजरात के अहमद नगर जिले के एक छोटे से गांव अकोला में एक बेहद ही गरीब परिवार में पैदा लिए नितिन गोडसे की कारोबारी सफ़लता बेहद प्रेरणादायक है। नितिन के पिता एक प्राइवेट कंपनी में सेल्समैन थे और उनकी मासिक आय काफी कम थी। किसी तरह घर का दाना-पानी चल रहा था।

तीन भाई-बहन में सबसे बड़े होने की वजह से परिवार पर हो रहे आर्थिक दबाव को कम करने के लिए इन्होनें एक स्थानीय दुकान पर सेल्समैन के रूप में काम करना शुरू कर दिया। साथ ही साथ अपनी पढ़ाई भी जारी रखा। 

 अपनी स्कूली शिक्षा पूरी करने के बाद, उनकी वित्तीय स्थिति ने उन्हें इंजीनियरिंग का अध्ययन करने की अनुमति नहीं दी, तो अंत में उन्होंने बीएससी करने का फैसला किया और 1992 में पुणे विश्वविद्यालय में दाखिला लिया। ग्रेजुएशन करने के बाद उन्हें एक कंपनी में सुपरवाइजर की नौकरी मिली।


हालांकि, कुछ दिन काम करने के बाद नितिन ने आगे के विकास के लिए एक अच्छी शिक्षा की जरूरत महसूस की। समय की एक छोटी सी अवधि में शीर्ष प्रबंधकीय पद को प्राप्त करने के उद्येश्य से उन्होंने एमबीए करने का फैसला किया। एमबीए के बाद उन्हें एक एग्रो बेस्ड कंपनी में जॉब मिली। यह कंपनी ताजी सब्जियों को साफ-सुथरे ढंग से पैक करके बाजार में बेचती थी। एक किसान परिवार से आने वाले नितिन इस तरह के व्यापार के प्रति आकर्षित हुए और अंत में ख़ुद का एक ऐसा ही कारोबार शुरू करने का निर्णय लिया। 

 एक दोस्त से 5 लाख रुपये उधार लेकर नितिन ने सब्जियों का बिजनेस शुरू किया।नितिन प्रतिदिन सुबह 3.30 बजे उठ जाते और सब्जियों से भरे ठेले को बाज़ार ले जाकर बेचा करते। लेकिन इस व्यवसाय से उन्हें कुछ खास लाभ नहीं प्राप्त हो सके और मजबूरन इसे बंद करना पड़ा। उसके बाद ख़ुद के पेट भरने के लिए एक गैस कंपनी में मार्केटिंग मैनेजर की नौकरी करने लगे।


फिर नितिन ने तीन साल काम करके फंड इकट्ठा किया और 1996 में गैस हैंडलिंग सिस्टम, सिलेंडर ट्रॉली, गैस कैबिनेट बनाने की कंपनी शुरू की। अपने इस भावी प्रोजेक्ट को नितिन ने नाम दिया “एक्सेल गैस और उपकरण प्राइवेट लिमिटेड”। 



 यूँ कहे तो नाममात्र के निवेश से शुरू की गई यह कंपनी आज लगभग 500 करोड़ रुपये का सलाना टर्न ओवर कर रही है। इतना ही नहीं आज इस कंपनी में करीब 150 से ज्यादा स्थायी कर्मचारी है, जबकि बार्क, सिपला, आईआईएसआर व रिलायंस जैसी कंपनियां इनकी ग्राहक हैं।



 दिल से एक किसान नितिन ने जिंदगी में तमाम मुश्किलों के बावजूद अपने अंदर मानव मूल्यों और तेजी से विकास होने की एक स्थिर गति को बनाए रखा। फलस्वरूप उन्हें इतनी शानदार कामयाबी मिली।   









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40 रुपये महीने की कमाई से 32 करोड़ का बिज़नेस-एम्पायर खड़ा करने वाले कृष्ण कुमार की कहानी !!



पिता की मृत्यु के बाद इस सत्रह वर्षीय लड़के के लिए जीने का ही प्रश्न उठ खड़ा हो गया था। उनके पास केवल उनकी माता की मौजूदगी का मानसिक संबल ही था और ऊपर थी बड़ी जिम्मेदारी। दो वक्त का खाना और घर के किराये के लिए उन्हें अपने हाई स्कूल की पढ़ाई बीच में ही छोड़नी पड़ी। उनकी शुरुआत शून्य से हुई और आज उनकी कंपनी का वार्षिक टर्न-ओवर 32 करोड़ रूपये का है। आज वे BMW  गाड़ियों में बैठते हैं और आलीशान बंगले में रहते हैं। यह उस व्यक्ति की अविश्वसनीय कहानी है जिन्होंने अपना करियर मात्र चालीस रूपये प्रति महीने की पगार से शुरू किया और अपने कभी हार न मानने वाले रवैये की वजह से धीरे-धीरे सफलता की सीढ़ी चढ़ने लगे। 



चेन्नई के कृष्ण कुमार ने बहुत ही छोटी सी नौकरी से शुरुआत करने के बाद बहुत सारी अलग-अलग छोटी-छोटी नौकरियां भी की। उन्हें 40 रुपये महीने की तनख्वाह वाली एक पार्ट-टाइम टाइपिस्ट की नौकरी मिली पर यह उनके घर के किराये के लिए भी पर्याप्त नहीं था। उस नौकरी को उन्होंने जल्द ही छोड़ दिया। बिना कॉलेज डिग्री के उन्हें आगे का जीवन कठिन लगने लगा। अपनी माता के साथ घर चलाने के लिए उन्होंने एक अकॉउंटेंट की नौकरी की और साथ ही साथ एक हॉस्पिटल में पार्ट टाइम नौकरी भी करने लगे। 

कृष्ण कुमार ने बताया था कि;  
“एक नौकरी में मंगलवार को छुट्टी मिलती थी और दूसरी में रविवार को। इसलिए मैं वास्तव में बिना किसी छुट्टी के हफ्ते और महीने काम करता रहता था।”


घर का खर्च उठाने के लिए वे एक लेदर एक्सपोर्ट कंपनी में 300 रुपये की तनख्वाह पर काम करने लगे और इसके साथ हॉस्पिटल में भी काम कर रहे थे। उसके बाद उन्होंने चार साल तक भारतीय रेलवे में काम किया और फिर एक कोल्ड ड्रिंक कंपनी में भी। अंत में उन्होंने ब्लू-डार्ट में 900 रूपये की तनख्वाह पर भी काम किया और यहीं से उन्हें लॉजिस्टिक बिज़नेस के गुर सीखने के मौके मिले। 


 कृष्ण कुमार ने कंपनी के लिए सब कुछ किया और 1990 में उन्हें नौकरी के एक साल बाद ही सेल्स मैनेजर के रूप में पदोन्नति मिल गई। शादी और बच्चों के बाद उनकी जिम्मेदारी और भी बढ़ गई। कड़ी मेहनत और बिज़नेस स्किल की बदौलत अपनी सारी पूंजी लगा कर इन्होंने अपनी खुद की कंपनी खोल ली। परन्तु उनके भाग्य ने उनका साथ नहीं दिया और हर्षद मेहता स्कैम के कारण सारा मार्केट क्रैश हो गया। उनकी स्थिति और भी ख़राब हो गई। एक बार वे कॉफ़ी पीने एक रेस्टोरेंट गए, वहाँ उन्हें एक कप कॉफ़ी के लिए छह रूपये अदा करनी थी। और उनके पास देने के लिए सिर्फ पांच ही रूपये थे। असफलताओं के एक के बाद एक झटकों के बावजूद भी उन्होंने अपने जज़्बे को टूटने नहीं दिया।  


अपने बचत के 8,000 रुपये से उन्होंने एक लॉजिस्टिक कंपनी खोली जिसका नाम एवन सोलूशन्स एंड लॉजिस्टिक प्राइवेट लिमिटेड रखा। ब्लू स्टार के एमडी ने जब कृष्ण कुमार के बारे में सुना तब उन्होंने कुमार को दो कॉन्ट्रैक्ट दिया। सिर्फ चार कर्मचारी के साथ मिलकर कुमार ने शून्य से यह बिज़नेस खड़ा किया। चेन्नई में उनका बिज़नेस चारों तरफ फ़ैल चुका था। आज उनके कर्मचारियों की संख्या 1000 से अधिक है और उनकी कंपनी का वार्षिक टर्न-ओवर लगभग 32 करोड़ रूपये का है। उनका मानना है कि ऑटोमेशन और टेक्नोलॉजी के द्वारा उनके बिज़नेस को बढ़ावा मिला है और उनकी कंपनी को प्रतिष्ठा। वे आज बीएमडब्लू में घूमते हैं, उनके पास बहुत सारी लक्ज़री कारें हैं और चेन्नई में बहुत सारे आलीशान घर भी।




बरसों पहले उनका सपना एक रूम का घर ख़रीद लेने की उपलब्धि पर जाकर ही ख़त्म हो जाता था। परन्तु अपने अथक श्रम और संघर्ष के चलते उन्होंने अपने लिए एक स्वप्न का सा वैभव पूर्ण संसार रच लिया।







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Friday, May 22, 2020

पारिवारिक खर्चे की भरपाई के लिए शुरू किया बिज़नेस, आज है 1000 करोड़ के क्लब में शामिल !!



यह कहानी वास्तव में एक शिक्षक की है लेकिन अतिरिक्त खर्चों से निपटने के लिए उन्होंने व्यापार का विकल्प चुना। और कारोबारी जगत में घुसते हुए इन्होंने अजंता, ऑरपेट और ओरेवा जैसी नामचीन ब्रांडों की आधारशिला रखते हुए आज की युवा पीढ़ी के लिए एक आदर्श बन कर खड़े हैं। एक दिन इस शख्स की पत्नी ने इन्हें ताने देते हुए कहा कि आप अपने बचे समय में कुछ कारोबार क्यूँ नहीं करते? यदि मैं पुरुष होती तो अपने भाई के साथ मिलकर कोई कारोबार करती और पूरे शहर में प्रसिद्ध हो गई होती। यह बात इनके दिमाग में खटक गई और फिर इन्होंने कारोबारी जगत में कदम रखते हुए हमेशा के लिए अपना नाम बना लिए।

जी हाँ हम बात कर रहे हैं ऑरपेट, अजंता और ओरेवा जैसे ब्रांडों के निर्माता ओधावजी पटेल की सफलता के बारे में। आज शायद ही कोई घर होगा जहाँ इनके द्वारा बनाया गया सामान नहीं पहुँचा हो। ओधावजी मूल रूप से एक किसान परिवार से ताल्लुक रखते हैं। किसान परिवार से आने के बावजूद इन्होंने विज्ञान में स्नातक करने के बाद बी.एड की डिग्री हासिल की। इसके बाद इन्होंने वी सी स्कूल में विज्ञान और गणित के शिक्षक के रूप में तीस साल तक काम किया। इन्हें 150 रूपये प्रति महीने की पगार मिलती थी। किसी तरह पूरे परिवार का भरण-पोषण हो पाता था। लेकिन जब इनके बच्चे बड़े हुए तो परिवार पर आर्थिक दबाव बनने शुरू हो गये।




फिर अतिरिक्त आय के लिए इन्होंने कुछ व्यापार शुरू करने के बारे में सोचा। इनकी पत्नी ने भी इस काम के लिए इन्हें काफी प्रोत्साहित किया। काफी सोच-विचार करने के बाद इन्होंने मोरबी में एक कपड़े की दुकान खोली जो साल 1970 तक जारी रहा। इसी दौरान वर्ष 1960 के दौरान पानी की तीव्र कमी थी। यद्यपि प्रत्येक गांव में कुएं थे, लेकिन पानी खींचने के लिए एक आवश्यक तेल इंजन की आवश्यकता थी। ओधावजी ने इस क्षेत्र में बिज़नेस संभावना देखी और वसंत इंजीनियरिंग वर्क्स के बैनर तले तेल इंजन बनाने शुरू किये। इन्होंने तेल इंजन का नाम अपनी बेटी के नाम पर ‘जयश्री’ रखा।


यह यूनिट पांच साल तक जारी रहा। एक दिन लोगों के एक समूह ने इनके पास ट्रांजिस्टर घड़ी परियोजना से संबंधित आइडिया लेकर आए।ओधावजी को यह आइडिया अच्छा लगा और उन्होंने 1,65,000 की लागत से घड़ी बनाने के कारखाने को एक किराए के घर में 600 रुपये प्रति माह के किराए पर स्थापित किया और अजंता के रूप अपने ब्रांड की आधारशिला रखी।

शुरुआत में कंपनी को भारी नुकसान झेलना पड़ा लेकिन ओधावजी ने हार नहीं मानी और डटे रहे। बाज़ार में लोगों ने इनके उत्पाद में विश्वास दिखाने शुरू कर दिए और देखते-ही-देखते अजंता बाज़ार की सबसे लोकप्रिय और विश्वसनीय घड़ी ब्रांड बन गई। फिर उन्होंने समय के साथ अन्य क्षेत्रों में भी पैठ ज़माने के लिए ऑरपेट और ओरेवा जैसी दो नामचीन ब्रांड की पेशकश की।



 करीबन डेढ़ लाख रूपये की लागत से शुरू हुई कंपनी आज 1000 करोड़ के क्लब में शामिल है। इससे शानदार कारोबारी सफलता और क्या हो सकती। 




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18 वर्षो से व्हीलचेयर पर हैं, लेकिन गरीब-वंचित को मुफ़्त शिक्षा देने का उनका संकल्प जारी है !!



स्वस्थ जीवन की चाह हर किसी की होती है, किन्तु जीवन पूर्णता अप्रत्याशित है। कब किस मोड़ पर क्या हो हम नहीं जानते ,लेकिन अगर हम मानसिक रूप से मजबूत है तो शारीरिक कमी भी हमें कमजोर नहीं बना सकती। सही मायने में सच्चा विजेता तो वही है जो अपने जीवन की हर कमी को भूल कर दूसरो की जिंदगियों को रोशन करने में अपना सर्वस्व त्याग देता है। फिर चाहे शारीरिक अक्षमता हो या विपरीत परिस्थितियां हर शब्द के अर्थ सूक्ष्म हो जाते हैं। ऐसा ही एक प्रेरणादायक उदहारण हमारे समक्ष प्रस्तुत हुआ है गोपाल खंडेलवाल का जोकि 18 वर्षो से व्हीलचेयर पर हैं। लेकिन निस्वार्थ भावना व जज़्बा  ऐसा की आज हज़ारो गरीब बच्चों को निशुल्क पढ़ा कर उन्हें समाज में एक सम्मानजनक स्थान दिलवा रहें हैं।




48 वर्षीय गोपाल खंडेलवाल बनारस के एक साधारण  परिवार से है। जब वे मात्र 27 वर्ष के थे तो एक  सड़क हादसे ने उनके शरीर के  निचले भाग को पैरालाइज़्ड कर दिया। तीन सालों तक  इनका इलाज BHU में चला लेकिन कोई सुधार न दिखने  पर गोपाल की हिम्मत टूटने लगी। माँ बाप थे नहीं ,दो भाई थे वो भी अपने जीवन में व्यस्त थे ,कोई देख रेख करने वाला  नहीं था। 

तब गोपाल के दोस्त डॉ अमित दत्ता ने इन्हे संभाला और इन्हे अपने साथ गॉव चलने की सलाह दी।फिर  डॉ अमित गोपाल को अपने साथ मिर्ज़ापुर जिला मुख्यालय से आठ किमी दूर कछवा ब्लॉक  के पत्तिकापुर गॉव ले आयें। वहां उनके लिए एक कमरा भी बनवा दिया।  गोपाल का गॉव में मन तो लगने लगा लेकिन खाली  बैठ कर समय काटना उनके लिए बहुत मुश्किल होने लगा। फिर उन्होंने बच्चों को निशुल्क पढ़ाने का मन  बनाया और एक  बगीचे में इन्होने बच्चों को पढ़ाना शुरू किया। पहले दिन सिर्फ एक ही  लड़की पढ़ने आयी लेकिन धीरे धीरे लोगों ने  विश्वास दिखाया और बच्चो की  संख्या में बढ़ोत्तरी होती चली गयी। 

आज इनकी पाठशाला में 67 बच्चें पढ़ते है। गोपाल बताते है की अब उनका जीवन ये बच्चे ही हैं। जो उनके साथ सुबह 5 बजे से शाम के 6 बजे तक रहते है। ये बच्चे ही  इन्हे सुबह चारपाई से उठाकर व्हीलचेयर पर बैठाते है व शाम को यही बच्चे इन्हे चारपाई पर वापस लेटा  देते है। अपनी पाठशाला का नाम गोपाल ने अपनी माँ के नाम पर 'नोवाल शिक्षा संस्थान 'रखा। इनकी पाठशाला में बीते 18 वर्षो में हज़ारो बच्चे पढ़ चुके हैं। ये वे बच्चे हैं जो मजदूरी या अन्य कामो की  वजह से स्कूल नहीं जा पाते  हैं।




गोपाल सिर्फ इन बच्चो को पढ़ा ही  नहीं रहें हैं बल्कि उन्हें जीवन जीने का सलीका भी सीखा रहें है। वे बच्चों को कपड़े पहनने से लेकर उठने बैठने  खाना खाने का  तरीका सीखा रहे हैं। ताकि वे समाज में अच्छा स्थान पा  सकें। गरीब बच्चो को बेहतर शिक्षा मिले इसके लिए गोपाल खुद तो मेहनत करते ही  है  किन्तु वो चाहते है कि इन बच्चो को अच्छे स्कूलों में एडमिशन भी मिले ,जिसमे काफी हद तक वे सफल भी  हो रहें हैं। इसके  लिए उन्हें सोशल साईट  काफी मदद मिल रही है। जो बच्चा गरीब किंतु पढ़ने की ललक रखता है उसकी फोटो या विडिओ बना गोपाल फेसबुक पर डालते हैंऔर फेसबुक के मित्रो से यह अपील करते है अगर मुमकिन हो सके तो वे उस बच्चे की पढाई का खर्चा उठायें।  वे  मित्रगण इनके  अकाउंट में फीस के पैसे भेजते हैं। फिर गोपाल उन बच्चो का अच्छे स्कूल में  एडमिशन  करवाते है। वर्तमान में 50 से अधिक बच्चे स्कूलों  में पढ़ने  जा रहें  हैं। गोपाल बच्चो को पढ़ाने के अलावा गॉव वालो का इलाज़ भी करते है। इनके दोस्त डॉ अमित इनको कई प्रकार  की दवाएं देते हैं जिन्हे ज़रुरत पड़ने पर वे  गॉव वालो को देते हैं।


गोपाल के जीवन में उनके  दोस्त डॉ अमित का विशेष स्थान है। गोपाल बताते है की वे अपने जीवन से हार मान चुके थे और जब उनके साथ कोई नहीं था तो अमित ने ही  उन्हें संभाला व् प्रत्येक पल जीवन के  प्रति सकारात्मक रवैया बनाये रखने पर बल दिया। गोपाल मानते है की आज वो जो कुछ भी कर पा रहे  है वो सिर्फ  उनके दोस्त  से ही मुमकिन हो पाया हैं। 

 गोपाल दो कदम भी चल पाने में समर्थ नहीं हैं किन्तु आज  उन्होंने हज़ारों बच्चों को समाज में खड़े होने के काबिल बनाया हैं। जिन्हे हमारे समाज में वंचित समुदाय के नाम से जाना जाता है। गोपाल की शारीरिक अक्षमता कभी भी उनके इरादों को डिगा न सकी।आज उनके क्षेत्र के लोग उनके हौंसलों  की मिसालें देते हैं।  

Wednesday, May 20, 2020

बस से सफ़र के दौरान उन्हें कुछ कमी दिखी, फिर शुरू किया स्टार्टअप, 600 करोड़ की हुई कमाई !!



आज-कल की नई पीढ़ी के युवाओं को कहीं पर थोरी कठिनाईयों का सामना क्या करना पड़ता, वो उसे दूर करने के साथ-साथ उसमें एक बड़ा बिज़नेस आइडिया ही खोज निकालते हैं। आज की यह कहानी एक ऐसे ही शख्स की है जिन्होंने एक दिन यात्रा के दौरान बस चूक जाने से हुई अपनी पीड़ा को आम लोगों की पीड़ा समझते हुए हमेशा के लिए मुक्ति देने के अभियान में बदल दिया। इतना ही नहीं ऑनलाइन बस टिकट बुकिंग के उनके बनाये पोर्टल रेड-बस ने उन्हें दिलाया आईबीबो से 600 करोड़ रुपयों का खड़ा सौदा।  

 आंध्र प्रदेश के एक छोटे से जिले निज़ामाबाद के फणीन्द्र समां ने कभी भी इंटरप्रेन्योरशिप के बारे में नहीं सोचा था। बिट्स पिलानी से इन्होंने इंजीनियरिंग की डिग्री ली और पोस्ट ग्रेजुएशन इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ़ साइंस से करने के बाद वे बेंगलुरु स्थित एक कंपनी में मज़े से काम करने लगे। परंतु एक बुरे अनुभव से रूबरू होने पर उन्होंने उसका समाधान खोजने का प्रयास किया ताकि दूसरों को इस अनुभव से न गुजरना पड़े। और फिर उन्होंने भारत की सबसे लोकप्रिय पोर्टलों में से एक के निर्माण के लिए योगदान दिया और इससे 600 करोड़ का साम्राज्य भी बनाया। 

 फणीन्द्र का जीवन ऐसे ही शांति पूर्वक चल रहा था और वे अक्सर ही अपने माता-पिता से मिलने हैदराबाद बस से जाया करते थे। 2005 में दीपावली का समय था, उनके सारे रूम-मेट्स छुट्टियाँ मनाने अपने-अपने घर जाने को तैयार थे। जब वह बस की टिकट लेने पहुंचे तब हैदराबाद जाने वाली बसों की सारी टिकट्स बिक चुकी थीं। दुर्भाग्यवश उन्हें टिकट नहीं मिली और वह हैदराबाद नहीं जा पाए। वह दो-तीन ट्रेवल एजेंट के पास भी गए पर उन्हें खाली हाथ ही लौटना पड़ा और वह बुरी तरह से निराश हो गए।  

 दुखी मन लेकर फणीन्द्र वापस अपने फ्लैट लौट आये और उन्होंने अपना पूरा सप्ताह नाराजगी में बिता दिया और सोच रहे थे कि क्यों नहीं इसके लिए कोई समाधान निकाला गया।

मेरे मन में बार-बार यह विचार आ रहा था कि क्यों वहाँ कोई ऎसी कंप्यूटर प्रणाली नहीं है जिसमें सभी बस ऑपरेटरों का उल्लेख हो और वे बता पाये कि कितनी बसें वहाँ से चलती है और कहीं जाने के लिए इस समय टिकट्स मिलने की क्या स्थिति है। और जब मैं पहले ट्रेवल एजेंट के पास जाऊँ तो वह सिस्टम लॉग ऑन करे और बस ऑपरेटर बताये कि सीट खाली है कि नहीं।

 फणीन्द्र ने पूरा सप्ताह ट्रेवल एजेंट के पास घूमते हुए बिताया और बस टिकट्स की बुकिंग की प्रक्रिया को समझने के लिए उन्होंने एजेंट से बहुत सारे सवाल भी पूछे और ढेर सारी जानकारियां इकठ्ठी की। उन्होंने ट्रेवल एजेंट और बस ऑपरेटर्स के काम को समझने की कोशिश की। कोई भी उन्हें इसके बारे में बताने के लिए ज्यादा रुची नहीं ले रहा था। उन्हें सफलता तब मिली जब एक युवा ट्रेवल एजेंट से मिले जो एक इंजीनियर भी था। और वे समझ पाए कि फणीन्द्र क्या चाहते हैं। वे बहुत खुश भी हुए कि बस टिकट्स बुकिंग के बारे में वह कुछ करना चाहते हैं।   





काम कैसे किया जायेगा यह सब सोचने के बाद समां ने अपने दोस्त के साथ मिलकर तय किया कि मुफ्त में ट्रेवल एजेंट के लिए खुला मंच बनाएंगे। फणीन्द्र इस प्रॉब्लम का हल ढूंढने के लिए उत्सुक थे जबकि उन्हें प्रोग्रामिंग नहीं आती थी। बुक्स पढ़कर उन्होंने कोडिंग और प्रोग्रामिंग सीखी और तब जाकर रेड-बस का जन्म हुआ।  


 शुरुआत में ट्रेवल एजेंट्स ने उनके द्वारा बनाये गए इस प्लैटफॉर्म का जब उपयोग किया तब उनके टिकटों की बिक्री में काफी सुधार हुआ। यह बहुत ही बड़ी सफलता थी रेडबस के लिए; जिसमें पढे -लिखे लोगों के अलावा वे भी वे भी इसका लाभ उठा पा रहे थे जिन्हें कंप्यूटर का उपयोग करना भी नहीं आता था। जब रेडबस को लॉन्च किया गया तब सोचा गया था कि पांच सालों में केवल 100 बस ऑपरेटर का ही रजिस्ट्रेशन होगा। परंतु इसकी सफलता इतनी तेजी से बढ़ी कि एक साल के भीतर ही 400 रजिस्ट्रेशन हुआ।   





जून 2014 में रेडबस को आईबीबो ने 600 करोड़ में अधिग्रहण कर लिया। फणीन्द्र के पास अब उनके बैंक अकाउंट में इतने रुपये इकट्ठे हो गए हैं कि वह अब सारी जिंदगी आराम से बिता सकते हैं। इस कहानी में सबसे अच्छी बात यह है कि फणीन्द्र ने पैसे कमाने के उद्देश्य से यह काम नहीं शुरू किया था वह केवल यह चाहते थे कि उस प्रॉब्लम का समाधान मिले और जो तकलीफ़ उन्होंने उठाई वह दूसरे को न मिले। 


 कुछ सालों में जो मेहनत फणीन्द्र और उनके दोस्तों ने किया है इस काम को करने के लिए, उसे ट्रेवल उद्योग में दशकों से काम कर रहे लोगों से उतनी सराहना नहीं मिली। परंतु उन्होंने कभी भी अपना धैर्य नहीं खोया और अपने आइडिया पर काम करते रहे, यही उनकी सफलता का राज है।   







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शहर की चकाचौंध छोड़ जैविक खेती के जरिये सफलता हासिल करने वाले दंपति की कहानी !!



आज के आधुनिक युग में जहाँ लोग आरामदायक और सुख-सुविधाओं भारी ज़िन्दगी जीने के लिए लालायित रहते हैं। ज्यादातर पति -पत्नी की चाहती होती है कि वे एक आधुनिक जीवन जीयें, जहां उन्हें सब कुछ उंगलियों के इशारे पर मिल जाये। शायद ही कुछ लोग होंगे जो अब भी गांव के जीवन को पसंद करते हैं और पारंपरिक जीवन बिताने की कल्पना करते हैं। गांव के पारंपरिक जीवन में जो शांति और सुद्धता है वह शहरों के भाग-दौड़ और प्रदूषण भारी ज़िन्दगी में कभी प्राप्त नहीं हो सकता है। 

 पर धीरे-धीरे कुछ युवाओं में शौकिया खेती की का क्रेज अब बढ़ने लगा है। लोग अब गांव के परिवेश में रहनें व प्राकृतिक जीवन जीने की पहल कर रहे हैं। बहुत सारे लोग हैं जो शहर के अव्यवस्था से तंग आकर , प्रकृति के करीब, ग्रामीण इलाको मे रहने के लिए इच्छुक हैं। और इस तरह के प्रयासों से दूसरों के लिए भी एक प्रेरणादायक उदाहरण पेश हो रहा है।  



आज हम एक ऐसे युगल की बात करने जा रहे हैं जिन्होंने शहरों की चकाचौंध भारी जिंदगी को अलविदा कह दिया और गांव में रहनें की ठानी है। इनका नाम है अंजलि रुद्राराजु करियप्पा और कबीर करियप्पा । इन दोनों नें अपनें शहर के जीवन को छोड़ गांव में रहनें व वहां रहकर ऑर्गेनिक व पारंपरिक खेती कर प्राकृतिक रूप से जीवन जीने की एक पहल शुरू की। दोनों मिलकर फिलहाल कर्नाटका के मैसूर शहर के निकट कोटे तालुका के हलासुरु गाँव में एक बहुत बड़े फार्म को स्थापित किया है। इस फार्म का नाम है "यररोवे फार्म"। एक तरह से देखा जाए तो उन्होंने सर्फ एक फार्म नहीं अपनें सपनों का एक पूरा प्राकृतिक संसार ही बस डाला है। यहीं से उपजने वाले शुद्ध अनाज न सब्जियों का वे सेवन करते हैं और अपना पूरा जीवन उन्होंने उस फार्म के लिए ही समर्पित कर दिया है।

अगर हम कबीर की बात करें तो, कबीर का बचपन खेतों में ही गुजर है। वे खतों में ही बड़े हुए। कबीर को हम दूसरी पीढ़ी का किसान कहें तो गलत नहीं होगा। उनके माता-पिता, जुली करियप्पा और विवेक करियप्पा करीब तीन दशकों से आर्गेनिक खेती का अभ्यास कर रहे थे। वहीं अपने माता-पिता द्वारा कबीर को भी घर में ही शिक्षा मिली। कबीर ने बचपन से ही सिर्फ ओर्गानिक खेती को ही देखा और उन्हें किसी दूसरे खेती के बारे में कभी पता भी नहीं चला। 

 दूसरी तरफ अगर अंजली की बात जी जाए तो अंजली शुरू से ही शहरी परिवेश में रहीं। उन्होनें हैदराबाद से प्रवंधन में ग्रेजुएशन किया और उसके बाद न्यूआर्क से मास्टर्स की डिग्री हासिल की है। इसके अलावा वे न्यूआर्क में ही करीब एक दसक तक फाइनासियल सर्विस के क्षेत्र में काम भी कर चुकी हैं। पर धीरे-धीरे उनका प्रकृति की ओर रुझान बढ़ता गया और कारपोरेट क्षेत्र को उन्होनें अलविदा कहने का मन बना लिया। 2010 में उन्होंने नौकरी छोड़ दी और देश वापस लौट आयीं। उन्होनें अपने परिवार के साथ एक छोटे पैमाने पर जैविक खेती की शुरुआत की। अंजली के लिए शुरूआत में यह कठिन था क्योंकि उन्हें इसका कोई अनुभव नहीं था। अंजलि पूरे भारत में  विशेष रूप से भारत के कई 'ग्रामीण' भागों में गई। वहां उन्होनें खुदको बहुत सहज व प्रसन्न महसूस किया।  

उसके बाद दोनों नें मिलकर इस फार्म की स्थापना की। एक शहर की तुलना में यहाँ रहने के लिए सुरक्षित व सम्पन्न वातावरण है। यहाँ उन्होनें गांव से लोगों को ओर्गानिक फार्मिंग सिखाई व ग्रामीणों को काम पर भी रखा। कबीर और अंजली ने लगभग सात अन्य लोगों की मदद से 50 एकड़ खेत का प्रबंधन किया है।यहाँ वे हर यह चीज़ विकसित करने की कोशिश करते हैं जो उन्हें चाहिए और रोजमर्रा के जीवन में वे उपभोग करते हैं। साथ ही वे कुछ ऐसे चीजें का भी उत्पादन करते हैं जिसकी बाजार में अच्छी डिमांड ही। ये सारे फसल सब्जियां वे पूर्ण रूप से प्राकृतिक वातावरण वे व आर्गेनिक तरिके से उगते हैं। जिसकी गुणवत्ता का कोई जवाब नहीं होता। 

 खेत में उगाई गई फसलों की में मुख्यरूप से गन्ना, कपास, तेल जिसमे सरसों, तिल,सूरजमुखी और मूंगफली शामिल हैं, इसके अलावा रागी, बाजरा, ज्वार, फोक्साटेल, चावल और गेहूं जैसे अनाज शामिल हैं। दालों में सभी प्रकार के दाल मूंग,मसूर,अरहर इत्यादि व मसालों में  हल्दी, अदरक, मिर्च, धनिया, मेथी, और सरसों जैसे मसाले शामिल हैं। इसके अलावा उनके फार्म में एक से एक ताजी व ऑर्गेनिक फलों-सब्जियों का उत्पादन होता है।  




उन्हें अपनें फार्म से सारी चीजें मुहैया हो जाती है जिसकी उन्हें जरूरत होती है। उन्हें बाजार से मात्र नमक, पास्ता, सर्फ-साबुन व ईंधन ही खरीदना पड़ता है। इसके अलावा उनके यररोवे फार्म से हर सप्ताह ताजी फल सब्जियों को पास के शहर मैसूर व बंगलुरु के बाज़ारों में भेजा जाता है।



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Tuesday, May 19, 2020

अपने ज़बरदस्त कारोबारी आइडिया से 2 साल में ही 100 करोड़ बनाने वाले तनुज और कनिका



पिछले कुछ वर्षों से रियल एस्टेट कारोबार में एक बड़ी कारोबारी संभावना दिखी है। और इसी वजह से निवेशकों ने कई मिलियन डॉलर का निवेश ऑनलाइन रियल एस्टेट कारोबार में किया है। सूचना प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल कर हमारे देश के कई युवाओं ने स्टार्टअप के लिए इस क्षेत्र को चुना है। हालांकि कुछ स्टार्टअप अपने उत्पादों और विपणन रणनीतियों के जरिए आम जनता का ध्यान आकर्षित करने में सफल रहे, वहीं एक बेहतर व्यापार मॉडल और स्थिर राजस्व पैदा करने में कई स्टार्टअप अब भी जूझ ही रही है।




निजी जिंदगी में आई परेशानियों को खत्म करने के लिए कुछ लोग ऐसे उपाय ढूंढ निकालते हैं जो औरों के लिए वरदान साबित हो जाता है। साल 2013 में तनुज शॉरी और कनिका गुप्ता ने अपनी खुद की समस्याओं को खत्म करने के उद्देश्य से ‘स्क्वायर यार्ड्स’ नामक एक रियल एस्टेट सलाहकार फर्म शुरू करने का फैसला किया जो भारतीय रियल एस्टेट में इच्छुक एनआरआई को निवेश करने के लिए प्रोत्साहित करती है। तीन लोगों के साथ एक छोटे से कमरे में शुरू हुई यह कंपनी 1000 से अधिक लोगों का संगठन बनते हुए 9 से अधिक देशों में विस्तार कर आज इस सेगमेंट में सबसे बड़ी कंपनी है।

आइडिया इतना दमदार था कि कंपनी एक साल के भीतर ही तीन बड़ी कंपनियों का अधिग्रहण करते हुए करोड़ों रूपये का सालाना टर्नओवर करनी शुरू कर दी। रेवेन्यू, मुनाफ़ा और बाजार हिस्सेदारी इन तीन चीजों पर फोकस करते हुए कंपनी 22 महीने में ही 100 करोड़ के क्लब में शामिल हो गई। इस क्षेत्र में भारत में अपार कारोबारी संभावना को देखते हुए तनुज और कनिका ने शीर्ष 10 भारतीय शहरों के रियल एस्टेट बाज़ार पर व्यापक शोध किया और फिर इसे एनआरआई समुदाय के साथ साझा करने का निश्चय किया। जब एनआरआई द्वारा मांग में वृद्धि को देखा, तो कंपनी ने शीर्ष मेट्रो शहरों में कार्यालयों की स्थापना कर देश के शीर्ष डेवलपर्स के साथ साझेदारी कर भारत में तेजी से विस्तार शुरू किया।

कंपनी अगले एक साल में 15 भारतीय शहरों और सिंगापुर, दुबई, लंदन जैसे शहरों में भी अपनी उपस्थिति स्थापित करने में सफल रही और एनआरआई के बीच अपनी पैठ जमा ली। 

 कंपनी ने टेक्नोलॉजी का सही इस्तेमाल कर वितरण प्लेटफार्मों की पेशकश करने के लिए तकनीकी क्षमताओं का भी निर्माण किया, जिससे खरीद-फरोख्त की प्रक्रिया बेहद आसान हो गई। आपको यह जानकर हैरानी होगी कि आज स्क्वायर यार्ड प्रति माह लगभग 1,000 से अधिक लेन-देन करता है, जिसका सालाना रेवेन्यू दर 25 मिलियन डॉलर के पार है। वर्तमान में कंपनी भारत के प्रमुख शहरों सहित 10 देशों के 32 शहरों में फैली हुई है।  


हालांकि इतने कम समय में एक स्टार्टअप को मल्टी मिलियन कंपनी में तब्दील करना आसान नहीं था तनुज बताते हैं कि कई डेवलपर्स जो जिनके साथ हमारी साझेदारी थी, समय पर निर्माण कार्य पूरा करने में विफल रहे और इस वजह से ग्राहकों के साथ विवाद भी हुए। इन मुद्दों को हल करने के लिए, हमने डेवलपर द्वारा पेनाल्टी देने जैसी चीजों को विकसित किया। इससे ग्राहकों का हमारे प्रति विश्वास बढ़ा और हम आज यहाँ खड़े हैं। 

 आज भी कंपनी मूल रूप से उद्यमशीलता की भावना और नवीन अवधारणाओं द्वारा संचालित है जो कि एक ठोस रेवेन्यू मॉडल को सबसे ज्यादा महत्वता देती है और हमेशा कुछ नया करते हुए इस क्षेत्र की अग्रणी कंपनियों में शुमार कर रहा है। 







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Friday, May 15, 2020

चाय-नास्ता बेच कर करोड़ों रुपये बनाने वाले इस व्यक्ति ने साबित किया कोई आइडिया छोटा नहीं होता !

यह कहानी दिल्ली के एक ऐसे युवा की है जिसने सबसे अलग कुछ नया करने की कोशिश की। आपको यकीं नहीं होगा इस शख्स की एक मामूली सी सोच ने इन्हें आज करोड़ो रूपये की कंपनी का मालिक बना दिया। इनका आइडिया इतना दमदार था कि चार सालों के भीतर इनकी कंपनी ने दो लाख महीने की आमदनी से 50 लाख महीने की आमदनी तक का सफ़र तय कर लिया। 

 जी हाँ, नई दिल्ली के रॉबिन झा ने सचमुच अपनी कंपनी के ज़रिये एक प्याली चाय में तूफान सा समा कर रख दिया है। इनके कंपनी की चौंकाने वाली सफ़लता के पीछे उनका चाय और नाश्ते का कारोबार है।  



आप सोच रहे होंगे की यह सड़क के किनारे कोई चाय के ठेले चलाने वाले की बात हो रही है पर आप गलत सोच रहे हैं; क्योंकि यह कोई मामूली से चाय के व्यापारी नहीं हैं। रॉबिन झा टी-पॉट के सीईओ हैं, जिनकी स्टार्ट-अप श्रृंखला पूरे दिल्ली एनसीआर क्षेत्र में फैली हुई है।

पेशे से एक चार्टर्ड अकाउंटेंट और विलय व अधिग्रहण  कंपनी  ‘एर्न्स्ट एंड यंग’ के साथ काम करने वाले रॉबिन ने कभी नहीं सोचा था कि वह इस तरह का अनोखा और बढ़ने वाला काम करेंगे।


रॉबिन ने साल 2013 में अपने नौकरी से बचाये पूंजी के 20 लाख रुपये से इसकी शुरुआत करी। उन्होंने अपने दोस्त अतीत कुमार और असद खान, जो खुद भी चार्टर्ड अकाउंटेंट हैं, के साथ मिलकर दिल्ली के मालवीय नगर में एक चाय आउटलेट खोली। और कुछ ही दिनों में अप्रैल 2012 में अपने बिज़नेस को बड़ा करने के उद्येश से इन्होंने शिवंत एग्रो फूड्स नाम की एक प्राइवेट लिमिटेड कंपनी की स्थापना की। 



 अपने दोस्तों के साथ विचार मंथन के बाद अपने व्यापार के लिए उन्होंने चाय के साथ ही आगे बढ़ने का फैसला किया।इनके पिता नरेंद्र झा जो बैंक मैनेजर है और माँ रंजना दोनों ही इनके इस बिज़नेस के खिलाफ थे और इसकी सफलता के प्रति आशंकित भी थे, लेकिन रॉबिन की दृढ-इच्छाशक्ति के आगे उन्हें भी झुकना पड़ा।  

अपने आईडिया के साथ आगे बढ़ते हुए इन्होंने बहुत सारे कैफ़े मार्किट के बारे में जानकारी हासिल की और उनकी मांग और आपूर्ति के बारे में भी खोजबीन की शुरू कर दी। इससे यह पता चला कि 85-90 फीसदी भारतीय केवल चाय ही पीते हैं और यही उनके बिज़नेस का आधार बना। टीपॉट एक ऐसा चाय का प्याला है जिसके साथ बहुत तरीके के नाश्ते शामिल हैं। 

 अपने अनुभव का इस्तेमाल कर रॉबिन ने चाय बागानों और दिल्ली के विभिन्न कैफ़े में चाय के विशेषज्ञों को ढूंढा। और आखिर में टी पॉट का जन्म मालवीय नगर के मेन मार्किट में स्थित एक 800 स्क्वायर फ़ीट के शॉप में हुआ। शुरुआत में केवल 10 लोग काम करने वाले थे और 25 तरह की चाय और कुछ जलपान के विकल्प रखे गए।  


रॉबिन अपने आगे के प्लान को सुधारने के लिए उपभोक्ताओं के विचार टेबलेट और पेपर के जरिये लिया करते थे। यह काम इन्होंने मालवीय नगर के अपने आउटलेट में पहले के तीन महीनों में किया। निष्कर्षों से पता चला कि उनके यहाँ जो ग्राहक आते हैं वह 25 से 35 साल की आयु वाले ज्यादा होते हैं और ऑफिस में काम करने वाले। यह सब समझ में आने पर रॉबिन ने ऑफिस के आसपास ज्यादा ध्यान देना शुरू किया। इसी क्रम में उन्होंने अपना पहला ऑफिस आउटलेट 2014 में आईबीबो में खोला जो कि गुरुग्राम की एक बड़ी ऑनलाइन ट्रेवल कंपनी है। 

 आज टीपॉट के 21 आउटलेट हैं जिसमे आधे तो दिल्ली एनसीआर के ऑफिस एरिया में हैं जैसे वर्ल्ड ट्रेड टावर, नोएडा और के.जी.मार्ग में और बाकी  मार्किट, मेट्रो स्टेशन, इन्द्रा गाँधी इंटरनेशनल एयर पोर्ट में स्थित है। आज रॉबिन के टीपॉट में लगभग 6 दर्जन वर्गीकृत चाय की 100 से अधिक सारणी की सेवा दी जाती है। जैसे -ब्लैक टी, ओलोंग, ग्रीन, वाइट, हर्बल और फ्लेवर्ड।  

इतना ही नहीं टीपॉट ने आसाम और दार्जीलिंग के पांच चाय के बागानों से टाई -अप भी किया है। टीपॉट आज देश की एक अग्रणी चाय-नाश्ता की कंपनी है जिसमे थाई, इटालियन और कॉन्टिनेंटल नाश्ते परोसे जाते हैं। इसके साथ-साथ कुकीज़, मफिन्स, सँडविचेस, वडा-पाव, कीमा पाव, रैप्स आदि सर्व किये जाते हैं। 



 अपनी सफलता का राज बताते हुए रॉबिन कहते हैं हम अपने ग्राहकों को समझते हैं, अपनी गुणवत्ता पर हमेशा पूरा ध्यान रखते हैं और हमारा लॉन्ग टर्म विज़न है 

रॉबिन अपने टीपॉट की आईडिया के साथ साल 2020 तक 10 बड़े शहरों में लगभग 200 आउटलेट खोलने के लिए तैयार हैं। 

 रॉबिन के सफ़लता का सफ़र यह प्रेरणा देती है कि कोई भी आइडिया छोटा या बड़ा नहीं होता। बस हमें पूरी दृढ़ता के साथ अपने आइडिया पर काम करने की जरुरत है।





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गरीबी के चलते नहीं बन पाए डॉक्टर, आज इनकी ₹25,000 करोड़ की फार्मा कंपनी में बड़े-बड़े डॉक्टर करते हैं काम



कहते हैं कि अगर व्यक्ति सच्चे मन से कुछ भी करने की ठान ले तो दुनिया की कोई भी ताकत उसे अपनी मंजिल तक पहुँचने से नहीं रोक सकती। आज हम एक ऐसे ही सफल व्यक्ति की कहानी लेकर आए हैं जिन्होंने देश के एक ऐसे राज्य से शुरुआत कर पूरी दुनिया में अपनी कामयाबी का डंका बजाया, जहाँ उस दौर में शिक्षा जैसी कई मूलभूत व्यवस्थाओं का अभाव था। एक किसान परिवार में जन्में इस व्यक्ति ने बचपन से ही डॉक्टर बनने का सपना देखा था लेकिन गरीबी और अभावों की वजह से इन्हें अपने सपने का त्याग करना पड़ा। पटना में एक छोटे से दवाई की दुकान से शुरुआत कर 30 से ज्यादा देशों में अपना कारोबार फैलाते हुए इस व्यक्ति की गिनती देश के दिग्गज उद्योगपति के रुप में हमेशा के लिए अमर हो गयी। 



संप्रदा सिंह आज हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनकी सफलता पीढ़ी-दर-पीढ़ी लिए प्रेरणा रहेगी। एल्केम लेबोरेटरीज नाम की एक बहुराष्ट्रीय फार्मा कंपनी की आधारशिला रखने वाले संप्रदा सिंह की गिनती देश के सबसे प्रभावशाली फार्मास्युटिकल उद्यमी के रूप में होती है। हममें से ज्यादातर लोग उन्हें भले ही नहीं जानते होंगे लेकिन आपकी जानकारी के लिए बताना चाहते हैं कि इनके अभूतपूर्व सफलता की खातिर इन्हें फार्मा उद्योग के आॅस्कर के समकक्ष एक्सप्रेस फार्मा एक्सीलेंस अवाॅर्ड से भी नवाजा गया है।

लेकिन हमेशा ऊँची सोच रखने वाले संप्रदा सिंह ने सोचा कि जब शून्य से शुरुआत कर एक सफल डिस्ट्रिब्यूशन फर्म बनाई जा सकती है तो फिर क्यों न हम अपनी ही एक फार्मा ब्रांड बाजार में उतारें। इसी सोच के साथ एक दवा निर्माता बनने का संकल्प लेकर उन्होंने मुंबई का रुख किया। मुंबई पहुँच साल 1973 में उन्होंने ‘एल्केम लेबोरेटरीज’ नाम से खुद की दवा बनाने वाली कंपनी खोली। शुरूआती पूंजी कम होने की वजह से प्रारंभिक पांच साल उन्हें बेहद संघर्ष करना पड़ा। साल 1989 में टर्निंग पाइंट आया, जब एल्केम लैब ने एक एंटी बायोटिक कंफोटेक्सिम का जेनेरिक वर्जन टैक्सिम बनाने में सफलता हासिल की। 

 दरअसल इसकी इन्वेंटर कंपनी मेरिओन रूसेल (अब सेनोफी एवेंटिस) ने एल्केम को बहुत छोटा प्रतिस्पर्धी मानकर गंभीरता से नहीं लिया था। फ्रेंच बहुराष्ट्रीय कंपनी से यह सबसे बड़ी चूक हुई और किफायती मूल्य के कारण टैक्सिम ने मार्केट में वर्चस्व कायम कर लिया। इस वर्चस्व ने फार्मा क्षेत्र में एल्केम लेबोरेटरीज को एक नई पहचान दिलाई।  


एल्केम लेबोरेटरीज आज फार्मास्युटिकल्स और न्यूट्रास्युटिकल्स बनाती है। 30 देशों में अपने कारोबार का विस्तार करते हुए आज विश्व के फार्मा सेक्टर में इसकी पहचान है। साल 2017 में फोर्ब्स इंडिया ने 100 टॉप भारतीय धनकुबेरों की सूची में संप्रदा सिंह को 52वां क्रम प्रदान किया था। इतना ही नहीं 2.8 बिलियन डाॅलर (करीबन ₹19,000 करोड़) निजी संपदा के धनी संप्रदा सिंह यह दर्जा हासिल करने वाले पहले बिहारी उद्यमी हैं।


साल 2019 में सम्प्रदा सिंह हमारे बीच नहीं रहे, लेकिन उन्होंने सफलता का जो साम्राज्य फैलाया वह वाक़ई में प्रेरणा से भरे हैं। वर्तमान में अल्केम की बागडोर उनके भाई और बेटे के हाथों में है।  



 संप्रदा सिंह की सफलता से यह सीख मिलती है कि जज़्बे के सामने उम्र को भी झुकना पड़ता है। यदि दृढ़-इच्छाशक्ति और मजबूत इरादों के साथ आगे बढ़ें तो सफलता एक-न-एक दिन अवश्य दस्तक देगी। 






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मात्र 5 हज़ार रुपये, लेकिन आइडिया कमाल का था, सालाना 360 करोड़ की हो रही है कमाई


गम हो या खुशी के पल हो फूल हर अंदाज को बयां करने का सबसे आसान और खुबसूरत जरिया होते हैं। ताजे फूलों में खुशी को दोगुना और गम को हल्का करने की ताकत होती है। इन्हीं फूलों के छोटे से गुलदस्ते में कारोबारी संभावनाओं को देखा बिहार के विकास गुटगुटिया ने। महज 5 हज़ार रुपये की रकम से शुरुआत कर देश के फ्लोरिकल्चर इंडस्ट्री में क्रांति लाते हुए अंतराष्ट्रीय स्तर की एक नामचीन ब्रांड स्थापित करने वाले विकास आज हजारों लोगों के लिए प्रेरणास्रोत हैं। 



 कायदे से देखें तो भारत की फ्लोरिकल्चर इंडस्ट्री की सालाना कुल ग्रोथ 30 फीसदी की रफ्तार से भी तेज हो रही है। वहीं इंडस्ट्री बॉडी एसोचैम की माने तो आने वाले कुछ वर्षों में इस इंडस्ट्री का मार्केट कैप 10,000 करोड़ रुपये तक पहुंच जाएगी। ऐसे स्थिति में इस क्षेत्र में कारोबार की बड़ी संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता।  

आज हम बात कर रहे हैं एक छोटे फ्लोरिस्ट से अंतरराष्ट्रीय बाजार में  पहचान बना चुके बड़े ब्रांड फर्न्स एन पेटल्स की आधारशिला रखने वाले विकास गुटगुटिया की सफलता के बारे में। पूर्वी बिहार के एक छोटे से गांव विद्यासागर में एक मध्यम-वर्गीय परिवार में जन्मे विकास ने स्कूली शिक्षा प्राप्त करने के बाद ग्रेजुएशन की पढ़ाई पश्चिम बंगाल से की। पढ़ाई के दौरान विकास अपने चाचा के फूलों की दुकान पर मदद भी किया करते थे और यहीं से उन्होंने व्यापार करने की बारीकियों को सीखा।

 पढ़ाई खत्म होने के बाद दो साल उन्होंने मुंबई व दिल्ली में रोजगार व व्यापार की संभावना खोजी और फिर साल 1994 में 5 हजार रूपये की शुरूआती पूंजी से साउथ एक्सटेंशन दिल्ली में पहली बार फूलों की एयर कंडीशन शॉप खोली। हालांकि उस दौर में देश के भीतर फूलों से संबंधित व्यापार में ज्यादा तरक्की के आसार नहीं थे लेकिन फिर भी विकास ने अपना सफ़र जारी रखा। संयोग से उन्हें एक भागीदार मिल गया जिसने इस बिजनेस में 2.5 लाख रुपए निवेश किए। भागीदारी लंबी नहीं चली और 9 साल तक उन्हें मुनाफ़े का इंतजार करना पड़ा। इस दौरान फूलों का निर्यात करके उन्होंने रिटेलिंग को किसी तरह जारी रखी।

  इस असंगठित सेक्टर में जितने भी फ्लोरिस्ट मौजूद थे उनसे हटकर बेहतर सर्विस, फूलों की वेराइटी और आकर्षक फूलों की सजावट पर विकास ने जोर दिया। और विकास का गुणवत्ता पर ज्यादा ध्यान देने की उनकी कोशिश कामयाब हुई। इसी दौरान ताज पैलेस होटल में एक भव्य शादी के लिए उन्हें फूलों की सप्लाय का ऑर्डर मिला और इस तरह बिज़नेस के एक नए रास्ते खुले। साथ ही विकास ने कारोबार में नयापन लाने हेतु फुलों के गुलदस्ते के अलावा फुलों के साथ चॉकलेट्स, सॉफ्ट टॉइज, केक्स, गिफ्ट हैंपर्स जैसे प्रोडक्ट के साथ अपनी रेंज बढ़ाते गये।

करीबन 7 साल तक कारोबार को चलाने के बाद उन्होंने अपने रिटेल व्यापार को देशव्यापी बनाने की योजना बनाई और फर्न्स एन पेटल्स बुटीक्स की फ्रेंचाइजी देना शुरू किया। फ्रेंचाइजी के लिए उन्होंने 10-12 लाख रुपये के निवेश और शोरूम के लिए 200-300 वर्गफीट की जगह का न्यूनतम मापदंड रखा। इस निवेश में कंपनी ब्रैंड नेम, इंफ्रास्ट्रक्चरल सपोर्ट, डिजाइन और तकनीकी जानकारियां, फूलों के सजावट की ट्रेनिंग के साथ स्टोर चलाने के लिए लगने वाली इंवेटरीज जैसे फूल, एक्सेसरीज और गिफ्ट आइटम मुहैया करवाती है।



आज फर्न्स एन पेटल्स की चेन्नई, बैंगलोर, दिल्ली, मुंबई, कोयंबटूर, आगरा, इलाहाबाद सहित देश के 93 शहरों में 240 फ्रेंचाइज स्टोर फैली हुई है। इतना ही नहीं फर्न्स एन पेटल्स आज भारत में सबसे बड़ा फूल और उपहार खरीदने वाली श्रृंखला है जिसका सालाना टर्नओवर 360 करोड़ के पार है। आज यह सिर्फ भारत में ही कारोबार नहीं कर रही बल्कि एक वैश्विक ब्रांड बन चुकी है।   

 फूलों के संगठित रिटेल व्यापार में सबसे बड़े उद्यमी के रूप में जाना जाने वाले विकास की सफलता से हमें काफी कुछ सीखने को मिलता है। विकास जब फूलों का कारोबार शुरू किये थे तो उन्होंने कभी नहीं सोचा था कि एक दिन वे देश के सफल कारोबारियों की सूची में शुमार करेंगें। अपने आइडिया के साथ आगे बढ़ते हुए उन्होंने हमेशा कुछ नया करने को सोचा और सफल हुए।  





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20 हजार रूपये से शुरुआत कर 8,800 करोड़ के एक प्रसिद्ध ब्रांड को बनाने वाले दो दोस्तों की कहानी


आमतौर पर पैसे की बर्बादी और किसी के बहकने के लिए दोस्ती को ही जिम्मेदार ठहराया जाता रहा है। लेकिन यह एक ऐसी दोस्ती की कहानी है, जो आज औरों के लिए मिसाल बन चुकी है। यह दो पहली पीढ़ी के उद्यमियों की कहानी है, जिन्होंने अपनी दोस्ती को बखूबी निभाते हुए अनोखा कीर्तिमान स्थापित किया है।  बचपन से दोस्ती में जो एक-दूसरे का हाथ उन्होंने थामा था, 8,800 करोड़  साम्राज्य खड़ा होने के बाद भी वह साथ क़ायम है। एक सा ही नाम लिए ये दो लड़के स्कूल में जिगरी दोस्त बने, साथ-साथ पढ़ाई की, खेल में भी उत्कृष्ट प्रदर्शन किया और बाद में बिज़नेस में भी एक साथ ऊँची छलांग लगाई।


नाम के साथ-साथ इनकी सोच और सपने भी एक से ही थे। राधे श्याम अग्रवाल और राधे श्याम गोयनका ने कॉसमेटिक मार्किट को अपना पहला बिज़नेस बनाया। दोनों कॉलेज अटेंड करने के साथ-साथ अपना बहुत सारा समय कास्मेटिक के केमिकल फार्मूला जानने के लिए सेकंड हैण्ड बुक की शॉप में गुजारा करते थे। इसके साथ वे दोनों सस्ते गोंद और कार्डबोर्ड से बोर्ड गेम बनाते, ईसबगोल और टूथब्रश की रिपैकेजिंग करते और कोलकाता के बड़ा-बाजार में दुकान-दुकान जाकर बेचा करते थे।



  तीन सालों की लगातार कोशिशों के बावजूद इन्हें कास्मेटिक बिज़नेस में सफलता नहीं मिल पा रही थी। इन दोनों के संघर्ष को देखकर गोयनका के पिता ने इन्हें 20,000 रुपये हाथ में दिए और दोनों दोस्तों ने यह तय किया कि बिज़नेस में 50-50 की भागीदारी रहेगी। तब उन्होंने केमको केमिकल्स की शुरुआत की पर उन्हें यहाँ भी सफलता नहीं मिली।

 उनके अपने निजी जीवन में एक बड़ा बदलाव आया। अग्रवाल और गोयनका की शादी हो गई। अब उनके ऊपर आर्थिक दबाव और जिम्मेदारी और भी बढ़ गई और दोनों बिज़नेस के नए अवसर तलाशने लगे। इसी बीच उन्हें बिरला ग्रुप में अच्छी आमदनी पर नौकरी लग गई। पांच सालों तक उन्होंने वहाँ नौकरी की और बिज़नेस के गुर सीखे। तजुर्बे हासिल करने के बाद इन्होंने नौकरी छोड़ने का निश्चय किया।




भारतीय मध्यम वर्ग को नजर में रखकर इन्होंने इमामी नाम की वैनिशिंग क्रीम बाजार में उतारा। इमामी नाम का कोई मतलब नहीं था पर सुनने में यह इटालियन साउंड करता था। उन्होंने सोचा की इससे भारतीय ग्राहक प्रभावित होंगे और ऐसा हुआ भी। उन्होंने बाजार की बहुत जानकारी ली और जाना कि जो टेलकम पाउडर टिन के बॉक्स में मिलता है वह बहुत ही साधारण लगता है तब इन्होंने एक बहुत बड़ा दांव खेला। टेलकम पाउडर को एक प्लास्टिक के कंटेनर में बहुत ही खूबसूरती से पैक कर और उसमें गोल्डन लेबलिंग कर एक पॉश और विदेशी लुक दिया।

 और फिर इस उत्पाद ने उड़ान भरना शुरू कर दिया। इसकी मांग दिनों-दिन बढ़ती चली गई और इसमें पाउडर इंडस्ट्री के शहंशाह पोंड्स को भी पीछे छोड़ दिया। सफलता का यह पहला स्वाद अग्रवाल और गोयनका ने चखा था। उनके नए-नए प्रयोग और ग्राहकों के साथ सीधे संपर्क उनकी ताकत बन गई थी।  



अपने अगले कदम में इन्होंने एक मल्टीपर्पस एंटीसेप्टिक ब्यूटी क्रीम बोरोप्लस को 1984 में बाजार में लाया। और इसने इन्हें बाजार का लीडर बना दिया और यह लगभग 500 करोड़ का ब्रांड बन गया। इमामी ब्रांडिंग में जोरों के साथ खर्च कर रहा था। 1983 में राजेश खन्ना अभिनीत फिल्म “अगर तुम न होते” में राजेश खन्ना को इमामी का मैनेजिंग डाइरेक्टर की भूमिका में दिखाया गया था। और इसके लिए रेखा ने मॉडलिंग की थी। यह रणनीति भारतीयों के मन में इमामी को एक नए मक़ाम पर ला कर रख दिया। इसके बाद इन्होंने ठंडा और आयुर्वेदिक नवरत्न तेल मार्केट में लेकर आये जिसने तीन साल के भीतर ही 600 करोड़ का प्रॉफिट दिला दिया। फिर उनका अगला कदम पुरुषों के लिए पहली बार फेयरनेस क्रीम का था जो बहुत ही सफल रहा।


बहुत से अभिनेता जैसे अमिताभ बच्चन, श्रीदेवी, शाहरुख खान, ज़ीनत अमान, करीना कपूर, कंगना रनौत और बहुत से खिलाड़ी  जैसे सानिया मिर्जा, सुशील कुमार, मिल्खा सिंह, मैरी कॉम और सौरभ गांगुली ने इनके उत्पाद का प्रचार किया है। अग्रवाल और गोयनका को पता था कि सेलिब्रटी के समर्थन से वह पूरे देश भर में एक घरेलू नाम बन जाएंगे।




 यह उनकी लगन और सफलता की प्यास ही है जो आज इमामी का टर्न-ओवर 8,800 करोड़ से भी ज्यादा का है।अग्रवाल और गोयनका की दोस्ती आज के युग के लिए एक मिसाल की तरह पेश है। उनकी दोस्ती भरोसे, हिम्मत और बुलंद हौसलों की आंच में तप कर इमामी के रूप में कुंदन हो गई है। यह दोस्ताना दोनों परिवारों के बीच दूसरी पीढ़ी के बीच भी क़ायम है।  




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घर-घर सामान डिलीवरी के आइडिया ने इन्हें बना दिया 7000 करोड़ की कंपनी का मालिक


प्रत्येक व्यक्ति की अभिलाषा होती है कि वह जो भी कार्य करे वह उसकी रुचि के अनुरूप हो तथा उसमें उसे सफलता मिले। हाल के कुछ वर्षों में भारत के युवा पीढ़ी से कई उद्यमी उभर कर आये हैं। इन युवाओं ने किसी कंपनी में काम करने की बजाय, खुद की कंपनी शुरू कर औरों के लिए रोजगार मुहैया में दिलचस्पी दिखाते हुए सफलता की नई कहानियां लिख डाली। आज की कहानी भी एक ऐसे ही युवा उद्यमी की है, जिन्होंने अमेरिका में मोटी तनख्वाह की नौकरी छोड़ स्वदेश लौटने का निश्चय किया और तकनीक का इस्तेमाल कर एक ऐसे कंपनी की आधारशिला रखी जिसकी सच में जरुरत थी। और आज ये देश के एक सफल आईटी कारोबारी हैं जिनका बिज़नेस कई करोड़ों में है। 

यह कहानी है देश की प्रमुख डिलिवरी स्टार्टअप ग्रोफर्स डॉट कॉम के संस्थापक अलबिंदर ढींढसा की। पंजाब के पटियाला में एक मध्यम-वर्गीय परिवार में पले-बढ़े अलबिंदर ने अपनी स्कूली शिक्षा प्राप्त करने के बाद आईआईटी की परीक्षा पास की। सफलतापूर्वक आईआईटी दिल्ली से इंजीनियरिंग की डिग्री लेने के बाद इन्होंने अपने कैरियर की शुरुआत करते हुए 2005 में अमेरिका के यूआरएस कॉर्पोरेशन में ट्रांसपोर्टेशन एनालिस्ट के तौर पर नौकरी कर ली। कुछ समय तक नौकरी करने के बाद उन्होंने एमबीए की पढ़ाई कर भारत लौट आये। यहां उन्होंने जोमैटो डॉट कॉम के साथ करियर की नई शुरुआत की। कॉलेज के दिनों से ही अपना खुद का स्टार्टअप शुरू करने में विश्वास रखने वाले अलबिंदर ने नौकरी के साथ-साथ बिज़नेस की संभावनाएं भी तलाश रहे थे। अमेरिका में नौकरी करते हुए उन्होंने डिलिवरी इंडस्ट्री में एक बड़े गैप को भांपा। उन्होंने देखा कि हाइपर-लोकल स्पेस में खरीददार और दुकानदार के बीच होने वाला लेन-देन बहुत ही जटिल और अव्यवस्थित था। उन्हें इस क्षेत्र में एक बड़े बिज़नेस का अवसर दिखा।

इसी दौरान उनकी मुलाकात उनके एक मित्र सौरभ कुमार से हुई। उन्होंने इस गैप की चर्चा सौरभ से की तो दोनों को महसूस हुआ कि इसमें बिजनेस का एक बड़ा अवसर है जिसे हाथ से नहीं जाने देना चाहिए। दोनों ने मिलकर इस आइडिया के पीछे रिसर्च करने शुरू कर दिए। इसी कड़ी में इन्होंने स्थानीय फार्मेसी कारोबारी से बातचीत के दौरान पाया कि वे तीन से चार किलोमीटर के क्षेत्र में राेजाना 50-60 होम डिलिवरी करते हैं।
आधारिक संरचना के अभाव में डिलीवरी सिस्टम उस वक़्त एक बड़ी समस्या के रूप में उभर रही थी। इन्होंने बिना कोई वक़्त गवायें एक ऐसा प्लेटफॉर्म बनाने का निर्णय लिया जो दुकानदार के साथ-साथ खरीददार के लिए भी फायदेमंद हो और मार्केट के गैप को भी कम कर सके। और इसी सोच के साथ ‘वन नंबर’ की शुरुआत हुई।

 इन्होंने घर के नजदीकी इलाके में स्थित फार्मेसी, ग्रोसरी और रेस्टोरेंट से कस्टमर के लिए ऑन-डिमांड पिक-अप और ड्रॉप की सेवा प्रदान करते हुए शुरुआत की। कुछ महीनों तक काम करने के दौरान इन्होंने पाया कि कुल ऑडर्स का 90 प्रतिशत हिस्सा ग्रोसरी और फार्मेसी से आ रहा था। फिर इन्होंने इन्ही दो सेक्टर्स पर फोकस करते हुए अपने मॉडल में बदलाव किया तथा कंपनी को ग्रोफर्स के नाम से रीब्रांड भी किया।   

ग्रोफर्स आज वेबसाइट और मोबाइल एप के जरिए ग्राहकों को ऑनलाइन आर्डर करने की सुविधा प्रदान करती है। इतना ही नहीं प्रतिदिन के रोजमर्रा की चीजों को महज़ कुछ ही घंटों में उनके घर पर डिलीवरी करवा देती। बेंगलुरु, चेन्नई, दिल्ली, कोलकाता समेत सभी बड़े शहरों में यह प्रतिदिन बीस हज़ार से भी ज्यादा ग्राहकों को सेवा प्रदान करते हुए देश की सबसे बड़ी डिलीवरी स्टार्टअप है। 



इतना ही नहीं आज कंपनी की वैल्यूएशन 1 बिलियन डॉलर अर्थात 7000 करोड़ के पार है। 1000 से ज्यादा लोगों को रोजगार के अवसर प्रदान कर अलबिंदर ने नई पीढ़ी के युवाओं के लिए मिसाल पेश की है। इस सफलता को देख हमें यह सीख मिलती है कि किसी के यहाँ रोजगार करने के बजाय खुद के आइडिया पर काम करते हुए यदि आगे बढ़े तो आने वाले वक़्त में हम भी दूसरे को रोजगार के अवसर प्रदान कर सकेंगे।  



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6 लाख के लोन से 4 करोड़ टर्नओवर तक का सफ़र, जिंदगी से हार चुकी एक महिला की प्रेरक कहानी


आपके भीतर ही तमाम शक्तियां मौजूद हैं और आप कुछ भी और सब कुछ कर सकते हैं l शक्ति एक ऐसी ताकत है जिससे आप बुरे वक़्त में भी सर उठा कर चल सकते हैं l एक औरत जो पति द्वारा बेरहमी से की गयी पिटाई  के कारण अस्पताल में भर्ती थी और अपने बच्चों के लिए प्यार के सहारे वह अपनी जिंदगी को एक मौका दे रही थीl एक छोटी सी आशा की किरण थी जो एक मरते हुए औरत की ताक़त बन गई l आज उनकी हथेली में करोड़ों रुपयों का साम्राज्य है और बेख़ौफ़  जिंदगी जी रही हैं l 

 मुम्बई के भिवांडी के एक मध्यम वर्गीय परिवार में भारती सुमेरिया का जन्म हुआ था l उनके रूढ़िवादी पिता ने उन्हें दसवीं के बाद पढ़ाने से इंकार कर दिया और उनकी शादी कर दी ताकि वह ख़ुशी से अपना जीवन गुजार सके l उनके पिता थोड़ा-थोड़ा यह जानते थे कि जिसे उन्होंने अपनी बेटी के लिए चुना है वह व्यक्ति उनके लिए एक बुरा सपना बन सकता है l   


शादी के बाद जल्द ही भारती ने एक लड़की को जन्म दिया और कुछ सालों बाद उनके दो जुड़वे बेटे हुए l पति बेरोज़गार थे और अपने पिता की पूरी प्रॉपर्टी घर का किराया देने में ही गवा रहे थे l उनके पति संजय, भारती को बिना बात ही पीटा करते थे और जैसे-जैसे समय बीतता गया उनका वहशीपन बढ़ता ही चला गया l यह हर रोज होने वाली घटना बन गई और इसके चलते उन्हें कई बार हॉस्पिटल में एडमिट होना पड़ता l 

 भारती अपनी इस डरावनी जिंदगी से पलायन कर अपने माता-पिता के घर चली आयीं l वह जानतीं थीं कि उन्हें वापस अपने पति के पास ही जाना पड़ेगा l उनका हर एक पल अपने पति के डर के साये में बीतता था l एक महीने तक वह घर से बाहर भी नहीं निकली थी और उनकी लोगों के साथ बिलकुल भी बातचीत नहीं थी l   

यह एक ऐसा समय था जब वह पूरे अँधेरे में थी, उनके बच्चे ही उनकी आशा के  किरण थे l उनके बच्चे हमेशा उनका हौसला बढ़ाते कुछ नया सीखने को, लोकल कॉम्पिटिशन में भाग लेने को और अपने डिप्रेशन के दायरे से बाहर निकलने के लिए कहते थेl भारती के भाई ने बच्चों के ख़ातिर उन्हें नौकरी करने को कहा l  

 2005 में भारती ने एक छोटी सी फैक्ट्री खोली जिसमें छोटे-छोटे सामान जैसे टूथब्रश, बॉक्सेस, टिफ़िन बॉक्सेस आदि बनाये जाते थे l उनके पिता ने भारती की मदद के लिए छह लाख का लोन लिया और मुलुंड में उन्होंने दो कर्मचारियों के साथ मिलकर काम शुरू किया l पैसे कमाने से ज्यादा भारती के काम करने से उनका डिप्रेशन पूरी तरह से खत्म हो गया l   

पति की ज्यादतियां अभी भी  ख़त्म नहीं हुई थी l उनके पति घर में और लोगों के सामने भी भारती को मारते थेl केनफ़ोलिओज को बताते हुए भारती कहती हैं कि “पुलिस के पास जाने पर उनसे भी मदद नहीं मिलती थी क्योंकि मेरे पति की पहचान पुलिस डिपार्टमेंट के लोगों से थी”l

तीन-चार साल बाद भारती ने एक कदम आगे बढ़ाया और पीईटी नामक एक फैक्ट्री खोली जिसमे प्लास्टिक बॉटल्स बनाया जाता है l अपने ग्राहकों  के संतोष के लिए वह खुद ही सामान की गुणवत्ता की जाँच करती थी l इन सब से उन्हें प्रतिष्ठा मिली और जल्द ही सिप्ला, बिसलेरी जैसे बड़े ब्रांड से भी आर्डर मिलने लगे l 

 तीन साल बाद 2014 में उनके पति संजय ने फिर से उनपर हाथ उठाया , इस समय उनके पति ने फैक्ट्री के कर्मचारियों के सामने ही भारती को मारना शुरू कर दिया l यह उनके बच्चों के सहन शक्ति से बाहर था और बच्चों ने अपने पिता से कह दिया कि वह वापस कभी लौटकर न आये l


 आज भारती ने अपना बिज़नेस बढ़ाकर चार फैक्ट्री में तब्दील कर दिया है जिसका वार्षिक टर्न-ओवर लगभग चार करोड़ है l इस तरह भारती ने घुप अँधेरे जीवन में  भी एक रौशनी का झरोखा सा खोल दिया और स्वयं और अपने बच्चों का जीवन खुशियों से भर दिया l 




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शून्य से की थी शुरुआत, दो दिन में 6100 करोड़ कमा कर अंबानी, बिरला जैसों को दी थी पटखनी



यदि देश में सफल कारोबारी की चर्चा होती है तो लोगों की जुबान पर टाटा, अंबानी और बिरला जैसे कुछ चंद नाम सबसे पहले आते। इन कारोबारी दिग्गजों को हर जुबान पर जगह बनाने में कई दशक लगे। लेकिन वक़्त के साथ और भी कई लोग इन दिग्गज उद्योगपतियों की सूचि में अपनी जगह बनाए। इनमें कई ऐसे शख्स हैं जिन्होंने कठिन मेहनत और परिश्रम की बदौलत शून्य से शुरुआत कर इस मुकाम तक पहुंचे कि आज अंबानी और बिरला से कंधों-से-कंधा मिलाकर चलते हैं। और ताज्जुब की बात यह है कि हम ऐसे कई लोगों को जानते तक नहीं।

आज हम ऐसे ही एक सफल कारोबारी की कहानी लेकर आए हैं जिन्होंने अपने करियर की शुरुआत पिता के बियरिंग बिजनेस से की थी। धंधा बंद होने के बाद भी इन्होंने हार नहीं मानी और काम करते रहे। आज देश के रिटेल कारोबार में इनकी तूती बोलती है। इतना ही नहीं इन्होंने रिटेल बिजनेस में रिलायंस और बिरला जैसी बड़ी कंपनियों को भी पीछे छोड़ दिया।

हम बात कर रहे हैं एवेन्यू सुपरमार्ट लिमिटेड के मालिक राधाकृष्ण दमानी की सफलता के बारे में। आज दमानी देश के शीर्ष अमीरों की सूची में शामिल हैं। हाल ही में इनकी कंपनी ने आईपीओ (शेयर) जारी किया जो कि 299 रुपए शेयर के हिसाब से बेचा गया था जब बाजार में उसकी लिस्टिंग हुई तो वह तमाम रिकार्ड तोड़ते हुए 641 रुपए तक जा पहुंचा। जिस डीमार्ट की सफलता के चर्चे आज हर तरफ हो रहे हैं वास्तव में वो 15 साल लंबे इंतजार का फल है।

दमानी पिता के बियरिंग बिजनेस के साथ अपने कारोबारी कैरियर की शुरुआत की। लेकिन दुर्भाग्यवश पिता के देहांत के बाद बिजनेस बंद हो गया। इस बुरे वक्त में उनके भाई राजेंद्र दमानी ने इनका साथ दिया। फिर दमानी भाइयों ने स्टॉक ब्रोकिंग के बिजनेस में कदम रखा। शुरुआत में दमानी को तनिक भी समझ नहीं थी कि यहां धंधा कैसे किया जाता है? उन्होंने काफी समय तक बाजार की समझ अपने से बुजुर्ग ब्रोकर से जानकारी हासिल कर बनाई। और फिर इन्होंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। इन्होंने अपनी सूझ-बुझ और दूरदर्शिता की बदौलत रेजर बनाने वाली जिलेट जैसी कंपनियों में पैसे लगाते हुए करोड़पति बन गये।

दमानी शुरू से ही अपना खुद का कारोबार खरा करना चाहते थे लेकिन पैसे की कमी हमेशा बाधा बनती थी। स्टॉक मार्केट से अच्छे पैसे बनाने के बाद इन्होंने साल 2000 में खुदरा बाजार में घुसने का मन बनाया और इसकी तैयारी में जुट गए। छोटे कारोबारियों और दुकानदारों से बातचीत करने के बाद इन्होंने छोटे शहरों पर ध्यान केंद्रित करते हुए डी-मार्ट के बैनर तले खुदरा बाज़ार में कदम रखा।

 आज देश के 45 शहरों में डी-मार्ट के लगभग 118 स्टोर हैं। डी-मार्ट ने अपने स्टोर के लिए कभी कोई जगह किराए पर नहीं ली। जब जहां स्टोर खोला इसके लिए अपनी जगह खरीद ली। इससे कंपनी को ज्यादा प्रॉफिट करने में सहोलियत हुई क्योंकि किराए में एक बड़ी रकम चली जाती। इतना ही नहीं इस पैसे की मदद से इन्होंने अपने स्टोर पर मौजूद सामान को कम दाम में भी देने में सक्षम बने। आपको यह जानकर हैरानी होगी कि आज इनकी रिटेल समूह मुनाफे में रिलायंस रिटेल व फ्यूचर रिटेल को काफी पीछे छोड़ चुकी है।  


दरअसल कंपनी द्वारा आईपीओ जारी करने के बाद सिर्फ दमानी व उनके परिवार की ही लाटरी नहीं निकली बल्कि उनके तमाम अफसर व कर्मचारी भी रातों-रात लखपति, करोड़पति बन गए। इनमें डी-मार्ट के प्रबंध निदेशक नेविल नरोना भी है जिनके शेयरों की कीमत 900 करोड़ रुपए हो गई है। नरोना एक दशक पहले हिंदुस्तान यूनीलिवर कंपनी छोड़कर दमानी के साथ जाने का जोखिम लिया था। उनके वित्तीय सलाहकार 200 करोड़ के मालिक हो गए हैं जबकि लखपति बनने वालों की तादाद हजारों में है। कंपनी की वैल्यूएशन 40,000 हजार करोड़ के पार है। 

 आमतौर पर सुर्ख़ियों से दूर रहने वाले दमानी हमेशा साधारण जीवन जीने में यकीन रखते हैं। दमानी का हमेशा से यही मानना रहा है कि आनन-फानन में आकर पूरे देशभर में कारोबार फैलाने से बेहतर पहले जिन एरिया में सर्विस मौजूद है उन्हीं को सुधारने पर ध्यान लगाया जाए तो इससे बिज़नेस में काफी तेजी से प्रगति देखने को मिलती है। और इसका जीता-जागता उदाहरण हैं राधाकृष्ण दमानी जिन्होंने एक ही झटके में अनिल अंबानी, अजय पीरामल, राहुल बजाज जैसे देश के दिग्गज को पीछे छोड़ दिया। 



 इनकी सफलता को देखकर हमें यह सीख मिलती है कि कठिन परिश्रम और दृढ इच्छाशक्ति से असंभव को भी संभव बनाया जा सकता है।  

50 रुपये की छोटी रक़म से 10,000 करोड़ का साम्राज्य स्थापित करना आसान नहीं था, लेकिन इन्होंने कर दिखाया



जब लोग किसी काम में असफल हो जाते हैं तो वे परिस्थितियों को, दूसरों से न मिलने वाली मदद को और भाग्य पर दोष मढ़ने लगते हैं। आज हम जिस व्यक्ति की बात कर रहे हैं उनका जीवन ऐसे ही तमाम परिस्थितिओं से गुजरा। बचपन में बहुत ही उन्होंने विषम से विषम परिस्थितियों का सामना किया। 

 परिवार और समाज से कोई सहायता न मिलने के बावजूद वे औपचारिक प्रशिक्षण से सिविल इंजीनियरिंग में पारंगत हो गए। कड़ी मेहनत के बाद जब उन्हें कुछ अवसर तो मिले तो कमबख़्त पूंजी के नाम पर उनके पास केवल 50 रुपये ही थे।  



भारत के दिग्गज कारोबारी पी.एन.सी मेनन आज किसी परिचय के मोहताज़ नहीं हैं। मेनन जब दस वर्ष के थे तब उनके पिता का देहांत हो गया था। पिता के बाद उनके परिवार को बहुत सारी सामाजिक और आर्थिक दुश्वारियों का सामना करना पड़ा। घर की स्थिति धीरे-धीरे और नीचे जा रही थी और फीस के लिए भी पैसे निकलना मुश्किल हो रहा था। जैसे-तैसे इन्होंने अपने स्कूल की शिक्षा पूरी की और बी.कॉम करने के लिए त्रिसूर के एक लोकल कॉलेज में दाखिला ले लिया।

इधर घर की स्थिति दयनीय थी कि कॉलेज की फीस देना भी असंभव था। अंत में उन्हें कॉलेज की पढ़ाई बीच में ही छोड़नी पड़ी। पैसे कमाना उनकी जरुरत और मज़बूरी दोनों बन गयी थी। घर में चूल्हा जलाने के लिए इन्होंने छोटे-मोटे काम करना शुरू कर दिया। बिना किसी औपचारिक शिक्षा के इन्होंने छोटे स्तर पर डिज़ाइनिंग का काम शुरू कर दिया था। अपने समर्पण के बल पर इन्होंने अपनी क्षमताओं को विकसित कर उच्च-स्तरीय इंटीरियर डेकोरेटर और सिविल का काम शुरू कर दिया। उनकी क्षमता और कड़ी मेहनत के बावजूद उन्हें कोई संतोषजनक कॉन्ट्रैक्ट नहीं मिल रहा था। सभी बाधाओं को चुनौती देते हुए उन्होंने इस उद्योग के बारे में और विस्तार से सीखना जारी रखा। 
 कहा भी गया है कि भाग्य हमेशा बहादुरों का साथ देती है और यह मेनन के साथ भी हुआ। एक दिन उन्हें किसी ने भारत के बाहर अवसर तलाशने की सलाह दी। लेकिन ओमान का सपना इतना आसान नहीं था। ओमान जाने के टिकट के पैसों का इंतज़ाम उनके औकात से बाहर की बात थी। 

 सफलता की यात्रा में बहुत सारी मुश्किलें आती हैं और उनके लिए सबसे बड़ी चुनौती थी कुछ पैसे इकठ्ठे करने की। एक तरफ का टिकट और हाथ में 50 रूपये लेकर ओमान जाना किसी ख़ुदकुशी से कम नहीं था। पर कहते हैं न कि जिनकी इच्छा असामान्य उपलब्धियां को हासिल करना है, वे असामान्य चुनौतियों का सामना करने को हमेशा तैयार रहते हैं। मेनन वैसे ही लोगों में से थे। 

 सभी अनिश्चितताओं के बीच सिर्फ अपने साहस और विश्वास के औज़ार को लेकर मेनन ओमान पहुँच गए। उनके लिए ओमान एक सर्कस से कम नहीं था। अनजान संस्कृति, पराई भाषा और एक अपेक्षाकृत विकसित समाज की तिकड़ी उनके लिए बड़ी मानसिक चुनौती के रूप में खड़ी थी। ओमान का तापमान और भोजन शैली भी उन्हें शारीरिक रूप से तोड़नी शुरू कर दी थी। सफल लोगों में चुनौतियों को अवसर में बदलने की क्षमता पहले से ही होती है। ओमान एक विकसित देश है पर वहां की जलवायु लोगों की कार्यक्षमता कम कर देती है। मेनन ने इस कमजोरी को मात देते हुए असामान्य रूप से कम समय में काम पूरा करने की पेशकश की। लोगों को उनका यह तरीका बेहद पसंद आया और जल्द ही उनके बहुत सारे बिज़नेस कांटेक्ट बन गए।

मेनन ने बैंक से लोन लेकर एक-एक पैसे का सदुपयोग करने की सोची और उन्होंने सड़क के किनारे एक छोटे स्तर पर इंटीरियर्स और फिट-आउट्स की एक दुकान खोल ली। मेनन हमेशा से ही परफेक्शनिस्ट थे और धीरे-धीरे उनके काम की गुणवत्ता की चर्चा होने लगी और उनके ग्राहक बनने शुरू हो गए।



“मैं स्वभाव से चैन से न बैठने वाला व्यक्ति हूँ। इसलिए मैंने कभी भी वीकेंड्स पर छुट्टी नहीं ली। जो व्यक्ति अपने तरीकों से काम करके ऊँचे उठते है वे प्रायः जो हासिल कर चुके हैं; उसके लिए असुरक्षित महसूस करते हैं” — मेनन



वह समय मेनन का संघर्षों से भरा था और वह पैसे कमाने के प्रयास में लगे रहे। जहाँ दूसरे ठेकेदार एयर कंडिशन्ड कार लेकर शान-ओ-शौकत का जीवन जी रहे थे, वही मेनन इस ओमान की गर्मी में सामान्य सी गाड़ी में सफर करते थे। उन्होंने लगभग 175000 किलोमीटर की दूरी ऐसे ही अ-वातानुकूलित कारों में सफर करते हुए तय किया था।

यह कठिन दौर महीने से सालों में तब्दील होते गए। पूरे आठ सालों बाद बिज़नेस में उन्हें एक हाई-पेइंग ग्राहक से कॉन्ट्रैक्ट मिला। मेनन की यह खासियत थी कि वह अच्छी गुणवत्ता के साथ और समय पर अपना काम पूरा करते है और इसी गुण से उन्हें एक अलग पहचान मिली। अपने इस फर्म का नाम उन्होंने अपनी पत्नी के नाम पर शोभा लिमिटेड रखा। यह कठिन दौर महीने से सालों में तब्दील होते गए। पूरे आठ सालों बाद बिज़नेस में उन्हें एक हाई-पेइंग ग्राहक से कॉन्ट्रैक्ट मिला। मेनन की यह खासियत थी कि वह अच्छी गुणवत्ता के साथ और समय पर अपना काम पूरा करते है और इसी गुण से उन्हें एक अलग पहचान मिली। अपने इस फर्म का नाम उन्होंने अपनी पत्नी के नाम पर शोभा लिमिटेड रखा।



 फ़ोर्ब्स की गणना में मेनन की संपत्ति 10,801 करोड़ आंकी गई है। मेनन खुद से बने हुए इंट्रेप्रेनेयर हैं जो विश्वास करते हैं, असाधारण गुणवत्ता और कठिन परिश्रम पर। बहुत सालों के संघर्ष के बाद उन्होंने न केवल एक बड़ा साम्राज्य खड़ा किया बल्कि एक सम्मानीय व्यक्ति के रूप में भी खुद को स्थापित किया है। 2013 में वे अपनी संपत्ति का आधा हिस्सा बिल गेट्स की चैरिटी को दान कर चुके हैं। 



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Wednesday, May 13, 2020

दो दोस्तों ने शुरू किया अनूठा स्टार्टअप, 25 लाख घरों से कूड़ा बटोर कर रहे करोड़ों की कमाई


आज हमारे देश में जनसंख्या बढ़ने और तेज़ आर्थिक विकास के कारण कचरे की समस्या एक विकराल रूप लेती जा रही है। देश में पैदा होने वाला 80 फीसदी कचरा कार्बनिक उत्पादों, गंदगी और धूल का मिश्रण होता है, जो हमारे स्वास्थ्य एवं पर्यावरण के लिए एक गंभीर खतरा है। आज हमारे सामने पर्यावरण को बचाये रखने का महत्वपूर्ण दायित्व है। यह कचरा प्रबंधन की दिशा में उठाया गया एक बेहतरीन कदम है। इसके तहत कचरे को रीसाइकिल करने की प्रक्रिया को अंजाम दिया जाता है, ताकि इसे दोबारा किसी दूसरे रूप में प्रयोग किया जा सके।
 ऐसा ही एक बेहतरीन प्रयास कर रही हैं “रिकार्ट” नाम की कंपनी, जिसकी आधारशिला का श्रेय जाता है अनुराग तिवारी को। इनकी कंपनी दिल्ली म्युनिसिपल कारपोरेशन के साथ मिलकर 25 लाख लोगों के घरों से कूड़ा बटोर कर उसे रिसाइकिल कर रही है।  



अनुराग तिवारी कुरुक्षेत्र के रहने वाले हैं और फाइनेंस में पोस्ट ग्रेजुएट करने के बाद इन्होंने 2 साल भारती एयरटेल में काम किया। लेकिन वो हमेशा से कुछ अपना करना चाहते थे। इसी विचार के साथ उन्होंने अपने फरीदाबाद निवासी दोस्त ऋषभ भाटिया के साथ मिलकर एडवरटाइजिंग कंपनी खोली, जिसका सालाना टर्नओवर 5 -10 करोड़ हो रहा था। लेकिन अनुराग एक ऐसे क्षेत्र में काम करना चाहते थे जहाँ उनकी कंपनी 100 करोड़ का टर्नओवर कर सके। एक दिन अनुराग फरीदाबाद गुडगाँव मार्ग से गुजर रहे थे. जहाँ उन्होंने कूड़े का एक बड़ा सा ढेर देखा जिसमे अधिकतर सामान रिसाइकिल होने वाला था परन्तु उसे बेकार में डम्प किया जा रहा था। बस फिर क्या था, तुरंत अनुराग के मन में यह विचार आया क्यों न ऐसा काम किया जाए जिससे शहर से कूड़े का ढेर भी हटा कर साफ़ सुथरा किया जा सके व साथ ही कूड़ा रिसाइकिल भी हो सके।


इसी विचार के साथ उन्होंने अपनी एडवरटाइजिंग कंपनी को बंद कर अपने दो दोस्तों ऋषभ व वेंकटेश के साथ मिलकर “रिकार्ट” नामक स्टार्टअप खोला और दिल्ली और गुडगाँव के घरों से कूड़ा उठवाने का काम शुरू किया। आज इनकी कंपनी में 11 से अधिक कर्मचारी पेरोल पर काम कर रहे हैं और सालाना 15 करोड़ से अधिक का टर्नओवर है। वर्तमान में इनकी कंपनी गुडगाँव के 50 अपार्टमेंट व दिल्ली के 25 लाख लोगों के घर से कूड़ा उठा रही है।



अनुराग अपनी कंपनी के द्वारा कचरा उठाने वालों व कबाड़ियों के जीवन में भी काफी सुधार लाए हैं। जिन कूड़ा उठाने वालों को 100 से 200 रूपए मिलते थे, अब उन्हें 500 से 700 रूपए मेहनताना मिलता है। इसके साथ ही 100 से अधिक कबाड़ी वालों के जीवन स्तर में काफी सुधार आया है। अनुराग बताते हैं कि वह सूखे कूड़े का कलेक्शन, ट्रांसपोर्टेशन व रिसाइकिल करने का ही काम करते है। जिसमे प्लास्टिक, गत्ता, रद्दी, धातु व बॉयोमैट्रिक कचरे को अलग-अलग कर विभिन्न रिसाइक्लिंग प्लांट को बेचते हैं। ग्राहकों को बस एक मोबाइल से मिस काल देना होता है फिर रिकार्ट के लोग उनसे संपर्क कर घर से बेकार समान उठा कर ले जाते हैं।

अपनी भविष्य की योजनाओं के बारे में जानकारी देते हुए अनुराग बताते हैं कि “अगले वर्ष तक वे 50 नई म्युनिसिपैलिटीयों के साथ काम करेंगे और आने वाले 3 सालों में आईपीओ प्लान कर रहे हैं। साथ ही वह बताते हैं कि भारत में कोई कचरा प्रबंधन के क्षेत्र में बड़ी कंपनी नहीं है इसलिये वे आने वाले कुछ वर्षों में इंटरनेशनल वेस्ट मैनेजमेंट एंड रीसाइक्लिंग कम्पनीज के साथ जॉइंट वेंचर के लिये प्लान तैयार कर रहे हैं।

अपने श्रेष्‍ठ कार्यो के लिये अनुराग को भारत सरकार के द्वारा इंडो जर्मन ट्रैंनिंग प्रोग्राम के लिए 1 महीने की बिज़नेस विजिट के लिए जर्मनी भेजा गया है, जिसे अनुराग अपने जीवन की एक बहुत बड़ी उपलब्धि मानते हैं और वह चाहते हैं कि देश स्वच्छ एवं कूड़ा रहित बन सके और वह इसके लिये हर मुमकिन प्रयास करेंगे।

छोटे से किराने की दुकान से हुई शुरुआत, आज 100 करोड़ की नामचीन कंपनी बन चुकी है !



यह कहानी ऐसे ही एक शख्स की सफलता को लेकर है। उन्होंने अपने बचपन की शुरुआत कोलकत्ता में एक छोटे से किराने की दुकान पर अपने पिता के साथ काम करते हुए व्यतीत किया और आज भारत के सबसे बड़े क्षेत्रीय खाद्य ब्रांड के कर्ता-धर्ता हैं। ऐसा कर इस शख्स ने सिद्ध कर दिया कि जो लोग बड़ा सोचते हैं और उसे साकार करना जानते हैं उनके लिए कुछ भी असंभव नहीं है।

यह कहानी भारतीय फ़ूड ब्रांड प्रिया फ़ूड प्रोडक्ट्स लिमिटेड की आधारशिला रखने वाले कारोबारी गणेश प्रसाद अग्रवाल की है। सिर्फ तीन दशकों में ही अग्रवाल कंपनी विकसित होकर पूर्वी भारत के सबसे बड़े ब्रांड के रूप में उभरा है। आज इनका सालाना टर्न-ओवर 100 करोड़ रूपयों का है। बर्तमान में कंपनी के नौ प्लांट्स हैं और 100 टन का इनका रोज़ का उत्पादन है। इनके द्वारा बनाये 36 प्रकार के बिसकिट्स और पंद्रह तरीके के स्नैक्स आइटम पश्चिम बंगाल, बिहार, झारखण्ड और ओडिशा के बाज़ारों में उपलब्ध है।

कोलकाता से बीस किलोमीटर दूर एक मध्यमवर्गीय परिवार में जन्में गणेश के पिता किराने की दूकान चलाते थे। घर की माली हालात ठीक नहीं रहने पर भी उनके पिता हमेशा शिक्षा के महत्त्व पर जोर देते थे।

 अग्रवाल अपने पिता के साथ दुकान में बैठते थे और कुछ प्राइवेट ट्यूशन्स करते थे, पर उनके पिता उन्हें अपनी पढ़ाई पर ज्यादा ध्यान देने को कहते थे। अपना स्नातक नार्थ कोलकत्ता के सिटी कॉलेज से पूरा करने के बाद वे अपने पिता की दुकान में मदद करने लगे क्योंकि सात लोगो के परिवार को चलाने के लिए इसकी सख्त जरुरत थी। लगभग 14 सालों तक इन्होंने यह काम जारी रखा।  

आखिर में कुछ अलग करने की उनकी सोच ने उन्हें आज इस मक़ाम पर खड़ा कर दिया। किराने की दुकान पर काम करने से उन्हें यह बात तो समझ में आ गई कि खाने के सामान में कभी भी मंदी नहीं आती। सितंबर 1986 में इन्होंने एक बिस्कुट बनाने की फैक्ट्री शुरू करने का निश्चय किया। पूंजी जुटाना उनके सामने सबसे बड़ी चुनौती थी लेकिन इन्होंने अपने हिस्से की प्रॉपर्टी को गिरवी रखकर और दोस्तों से कुछ उधार लेकर पूंजी जुटाई। अपने दोस्तों से और बैंक से इन्होंने 25 लाख रुपये उधार लिए और अपने बिज़नेस की आधारशिला रखी। 

 बिस्कुट के उद्योग में जरुरी उपकरण,ओवन और बहुत सारे काम करने वाले चाहिए होते है अग्रवाल हमेशा बड़ा सोचते थे, इसलिए इन्होंने दो एकड़ जमीन अपने घर पानीहाटी के पास ली और 50 बिस्कुट बनाने वाले कारीगर नौकरी पर रखे। और इस तरह भारत के मशहूर बिस्कुट ब्रांड प्रिया का जन्म हुआ।  


अग्रवाल अपने संघर्ष के दिनों को याद करते हुए बताते हैं “अधिक से अधिक काम मैं स्वयं ही करता था। और दिन भर ऑफिस से फैक्ट्री घूमता रहता था। कभी-कभी मेरा काम सात बजे सुबह से लेकर रात के एक बजे तक चलता था। वह समय मेरे लिए बहुत ही कठिन था।”

बिस्कुट का बिज़नेस आसान नहीं था क्योंकि बाजार में पहले से ही पारले-जी और ब्रिटानिया का दबदबा था। उन्होंने यह महसूस किया कि अगर मार्केटिंग बहुत अच्छी होगी तभी लोगों के मन में इस ब्रांड के लिए सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा।

गणेश ने बिना वक़्त गवायें तुरंत ही पांच लोगों की टीम बनाई जो घर-घर जाकर प्रिया के प्रोडक्ट के बारे में लोगों को जानकारी देने शुरू कर दिए। इन्होंने पहले ग्लुकोस और नारियल के बिस्कुट बनाए। बहुत ही कम दाम में अच्छी क्वालिटी के बिस्कुट मुहैया करना इनके बिज़नेस की रणनीति थी और यह सफल भी हुई। इसके बाद अग्रवाल ने दूसरे क्षेत्रों में भी हाथ आजमाए। 
 2005 में इन्होंने रिलायबल नाम का एक प्लांट शुरू किया जिसमें आलू के चिप्स और स्नैक्स तैयार किये जाते थे। 2012 में इन्होंने सोया नगेट्स का प्लांट डाला। आज उनके दोनों बेटे इनकी कंपनी के डायरेक्टर है।  


गणेश प्रसाद अग्रवाल जिन्होंने अपनी ऊँची सोच और कड़ी मेहनत के बल पर आज इस मक़ाम पर पहुंचे। उनके सफलता की यह यात्रा युवा उद्यमीयों के लिए बेहद प्रेरणादायक है।



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गांव में मवेशी चराने से लेकर एक प्रतिष्ठित IAS ऑफिसर बनने तक का सफ़र तय करने वाली लड़की !


यूपीएससी के परिणाम आने के पहले वनमती ने कंप्यूटर एप्लीकेशन में पोस्ट ग्रेजुएशन किया और एक प्राइवेट बैंक में नौकरी कर रही थी। आज वे न केवल अपने माता-पिता की देखभाल कर रही हैं बल्कि पूरे समाज और अपने देश को उसी दृढ़ता से सेवा दे रही हैं। इसलिए कहा गया है कि अगर हौसले बुलंद हो तो कठिन से कठिन राह भी आसान हो जाती है।




सी. वनमती का जीवन प्रेरणा का सबसे अच्छा उदाहरण है जिन्होंने हमेशा आशा का दामन थाम कर रखा। वनमती केरल के इरोड जिले के सत्यमंगलम कॉलेज में पढ़ने वाली एक साधारण लड़की थी। अपने पिता के साथ रहती थीं, पढ़ाई में मेहनती थीं और कॉलेज से लौटकर अपने पशुओं को चराने के लिए लेकर जाने में उन्हें बड़ा संतोष मिलता था। परन्तु यह सब कुछ बदल गया जब उन्होंने सिविल सर्विसेस की परीक्षा देने का मन बनाया।

ऐसा नहीं है कि उन्हें एक ही बार में सफलता मिली। तीन बार असफल होने के बाद भी उन्होंने हार नहीं मानी। 2015 की यूपीएससी के परिणाम की अंतिम सूची में 1236 लोगों में से एक नाम उनका था। इस समय वे अपने पिता के साथ हॉस्पिटल में थीं। उनके पिता का कोयम्बटूर के एक हॉस्पिटल में इलाज चल रहा था। उनके पिता टी.एन. चेन्नियपन को स्पाइन में चोट लगी थी। यह घटना तब हुई जब वनमती के इंटरव्यू के सिर्फ दो दिन बचे थे। उनके पिता का सारा दर्द खुशियों में तब बदल गया जब उन्हें पता चला कि उनकी बेटी ने यूपीएससी की परीक्षा में 152 वां स्थान प्राप्त किया है। उनकी ख़ुशी की कोई सीमा नहीं थी।


सामान्य परिवार में वनमती का जन्म हुआ। उनके माता-पिता बहुत पढ़े-लिखे नहीं थे और इरोड में इनका परिवार पशु-पालन करता था और पिता ड्राइवर थे। वनमती का बचपन भैसों के ऊपर बैठकर और जानवरों को चराते हुए बीता था। पर वे हमेशा से अपने आप को एक कलेक्टर के रूप में ही देखती थीं। जब उन्होंने बारहवीं की पढ़ाई पूरी कर ली तब उनके सम्बन्धी उनके माता-पिता को उनकी शादी के लिए सलाह दे रहे थे। उनके समुदाय में यह सामान्य सी बात थी परन्तु वनमती की अपनी अलग सोच थी। इस बात के लिए उनके माता-पिता से उन्हें हमेशा सहारा मिला।


“मैंने बारहवीं पास की तो रिश्तेदारों ने शादी के लिए दबाव डालना शुरू कर दिया, लेकिन मैं अपने परिवार और समाज की स्थिति सुधारने के लिए आगे पढ़ना चाहती थी।” — सी. वनमती

वनमती ने बताया कि उन्हें एक ‘गंगा जमुना सरस्वती’ नामक सीरियल की नायिका से प्रेरणा मिली। इस सीरियल में नायिका एक आईएएस ऑफिसर थी। उनकी दूसरी प्रेरणा उन्हें जिले के कलेक्टर से मिली। जब वे वनमती के स्कूल आये थे तब उस वक्त उनको मिले आदर और सम्मान ने भी उन्हें कलेक्टर जैसा बनने को प्रेरित किया और उन्होंने सिविल सर्विसेस की पढ़ाई करने का निश्चय किया।




अन्तः-प्रेरणा अपने आप में चमत्कारिक होता है। यह एक मजबूत ताकत की तरह हमारा साथ देता है और हमें अपने सपनों से भटकने नहीं देता। हमने बहुत सारी ऐसी कहानियां सुनी है जिसमें लोग दूसरों के द्वारा चले रास्तों को उदाहरण मानकर उन रास्तों पर चल पड़ते हैं। खासकर विद्यार्थी वर्ग बिना उलझन और दुविधा में पड़े उन कहानियों की मदद से अपना रास्ता खोज निकालते हैं।